परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 39
तर्ज- “अगर तुम मिल जाओ,
जमाना छोड़ देगें हम”
अथक निरखा पर इन जैसा,
दिखा ना जग रस सानी ।
मिले मद-मत्त विबुध लेकिन,
मिला ना इन सा जिन ज्ञानी ॥
मैं नहीं कहता जग कहता,
प्राण गुरु ज्ञान-सिन्ध इनके ।
निराकुल गुरु विद्या ! इनसा,
चल सकूँ रस्ते गुण धन के ।। स्थापना।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी नव कर्म नहीं बनना ।
उपल नौका से भव तिरता,
रहूँगा मुनि बन कर वरना ।
महल सा मशान भी इनको,
कहाँ इन पे प्रमाद छाये ।
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
नीर ले चरण शरण आये ।। जलं।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी अवलम्बन ना वरना ।
अश्रु निर्जन वन झलकाता,
रहूँगा मुनि बन कर वरना ॥
काँच सा कंचन भी इनको,
क्रोध कब इनको तलफाये ।
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
गन्ध ले चरण शरण आये ।। चंदन।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी सिर नीचा ना करना ।
कृषि पत्थर पर ही करता,
रहूँगा मुनि बन कर वरना ।।
मीत सा अमीत भी इनको,
कहाँ इनको मद धमकाये ।
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
लिये धाँ चरण शरण आये ।।अक्षतम्।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी तिल तुष भी ना हरना ।
सलंगर पनडुबिया खेता,
रहूँगा मुनि बन कर वरना ।।
थवन सा निन्दन भी इनको,
कहाँ इनको मन्मथ भाये ।
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
पुष्प ले चरण शरण आये ।। पुष्पं।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी ना रंच संग करना ।
काग मल-मलकर ही धोता,
रहूँगा मुनि बनकर वरना ।।
काठ सा चन्दन भी इनको,
कहाँ इनको भय भरमाये ।
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
लिये चरु चरण शरण आये ।। नैवेद्यं।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी आतम बल ना नशना ।
कीर सा वीर नाम रटता,
रहूँगा मुनि बन कर वरना ।।
भवन सा कानन भी इनको,
कहाँ इनको तम ग्रस पाये ।
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
दीप ले चरण शरण आये ।।दीपं।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी आवास नहीं तकना ।
माल नभ पुष्पों की गुँथता,
रहूँगा मुनि बन कर वरना ।।
लाभ सा अलाभ भी इनको
कहाँ इनको अघ सिरजाये ।
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
धूप ले चरण शरण आये ।।धूपं।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी दिल आहत ना करना ।
नीर मन्थन ही आदरता,
रहूँगा मुनि बन कर वरना ।।
सीप सी चाँदी भी इनको,
कहाँ इनको बद बहकाये ।
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
लिये फल शरण शरण आये ।।फलं।।
इन्हें सुध-बुध ‘कि मुझे पर का,
कभी ना भेद प्रकट करना ।
तौल मण्डूकों की करता,
रहूँगा मुनि बन कर वरना ।
धनी सा निर्धन भी इनको,
कहाँ इनको छल-छल पाये ॥
सिन्धु विद्या, भगवन् मेरे,
अर्घ ले चरण चरण आये ।। अर्घं।।
*दोहा*
बने हुये विश्वास के,
कलि जो दूजे नाम ।
श्री गुरु विद्या वे तिन्हें,
सविनय नम्र प्रणाम ॥
॥ जयमाला ॥
जिन्हें आज निज कृष्ण कनाहीं,
माने है गैय्या ।
वे गुरु विद्या सिन्धु करें मुझपे,
अपनी छैय्या ॥
हाथ पकड़ वे मुझे रास्ता,
शिव का दिखलावें ।
शिव राधा को क्या पसन्द,
नापसन्द बतलावें ।।
सिखलावें तलवार धार पर,
चलना है कैसे ।
कलि विषयन काँटन पुष्पों सा,
खिलना है कैसे ॥
शील शिखर तक जाती तिस,
सुख सीढ़ी पधरावें ।
निज अनुभव मकरन्द मिरे,
जीवन में बिखरावें ।।
राज बतावे त्रिभुवन में,
जश गाये जाने का ।
बाल, जवाँ, वृद्धों के उर में,
पाये जाने का ।।
शीघ्र भिटावें प्रवचन माँ,
आँचल की छाया से ।
कोश दूर पधरावें मत्सर,
मानरु माया से ।।
पन दश परमादन गनीम मद,
मर्दन कर देवें ।
अपने अपनों में शामिल इक,
नामरु कर लेवें ।।
रहना कैसे गुप्तिन कोट बता,
देवें मुझको ।
भूली विसरी निज निधि कहाँ,
पता देवें मुझको ।।
अरहत गुण सम्पद का शीघ्र,
बनावे आसामी ।
और अधिक क्या कहूँ दीजिये,
चरण शरण स्वामी ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
*दोहा*
बद्धाँजली मेरी यही,
एक प्रार्थना देव ।
वर दीजे करता रहूँ,
आजीवन तुम सेव ।।
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