परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 50
गुरुदेव शरण ले लो ।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।स्थापना।।
भेंटूँ जल घट मैं ।
भूला भव तट मैं ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।जलं।।
भेंटूँ चन्दन मैं ।
भ्रमूँ कँवल-वन में ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।चन्दनं।।
भेंटूँ अक्षत मैं ।
बैठ चला पथ में ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।अक्षतं।।
भेंटूँ प्रसून मैं ।
पतवार शून मैं ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।पुष्पं।।
भेंटूँ नवेद मैं ।
आ फँसा रेत में ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।। नैवेद्यं।।
भेंटूँ दीपक मैं ।
फँसा मुशीबत में ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।दीपं।।
भेंटूँ सुगंध मैं ।
आ फँसा अंध में ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।धूपं ।।
भेंटूँ श्री-फल मेैं ।
भँवर दृग् सजल में ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।फलं।।
भेंटूँ दिव द्रव मैं ।
चढ़ा उपल नव में ।।
भूल भुलैय्या है ।।
शूल बिछैय्या है ।
उस पार तरण खे दो ।
गुरुदेव शरण ले लो ।।अर्घ्यं।।
==दोहा==
ज्ञान सिन्धु जल से किया,
जिनने मन परिशुद्ध ।
श्री गुरु विद्या वे करें,
मुनि सा हृदय विशुद्ध ।।
“जयमाला”
ज्ञान-सिन्धु-गुरुकुल आधार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।
संकट-हर ! भव जलधि जहाज ।
दया-सिन्धु ! सन्तन सरताज ।।
कलि भावी शिव वधु भरतार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।
त्रिगद हारि औषध अकसीर !
मदन पंच शर निरसक ! धीर !
दीन-बन्धु ! गौ-पालन-हार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।
विरहित आर्त-रौद्र-दुर्ध्यान !
मण्डित शिवद ध्यान गुण खान ।।
श्रमणाधिप ! अविचल ! अविकार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।
मति मराल धर ! त्रिभुवन मीत !
ज्ञान ध्यान रत ! सदय ! विनीत !
पन विध पापन वज्र प्रहार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।
संयत तन मन वचन कृपाल !
तीर्थो-द्धारक ! हृदय विशाल !
अद्भुत मूकमाटि कृतिकार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।
अतिथि ! धर्म नेकान्त प्रदीप !
सम कन-कनकरु चाँदी सीप !
दिव्य रूप विरहित श्रृँगार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।
बाल वैद्य ! शिव सारथवाह !
विमोहान्ध कलि अपर पनाह !
गुण अगम्य ! निर्दोष उदार !
गुरु विद्या भव तारण-हार ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
सुर गुरु पा पाये नहीं,
जब गुरु गुण का पार ।
मेरी तब क्या बात है,
मैं मति-मन्द अपार ।।
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