परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 165
तारण तरण ।
मिरे भगवन् ।।
आया चरण ।
पाने शरण ।। स्थापना ।।
लाया उदक ।
पाने झलक ।।
इक आपकी ।।
गुरु आपकी ।। जलं ।।
लिये मलयज ।
पाने पदरज ।।
कुछ आपकी ।
गुरु आपकी ।। चन्दनं ।।
लिये अक्षत ।
पाने हसरत ।।
शिव आप सी ।
गुरु आप सी ।। अक्षतम् ।।
लाया सुमन ।
पाने मदन ।।
जय आप सी ।
गुरु आप सी ।। पुष्पं ।।
लिये व्यंजन ।
पाने तरण ।।
शिव आपकी ।
गुरु आपकी ।। नैवेद्यं ।।
लिये दीपक ।
पाने बनक ।।
दय आप सी ।
गुरु आप सी ।। दीपं ।।
लिये सुगंध ।
पाने अनंत ।।
‘धी’ आप सी ।
गुरु आपसी ।। धूपं ।।
लिये ऋतु फल ।
पाने सजल ।।
दृग् आप सी ।
गुरु आप सी ।। फलं ।।
लिये सब द्रव ।
पाने अदब ।।
गुरु आप सी ।
गुरु आप सी ।। अर्घं ।।
==दोहा==
गुरुवर का गुण गावना,
गूँगे का गुड़ स्वाद ।
बोल कहाँ, जाहिर करूँ,
जो अपने जज्बात ।।
।। जयमाला ।।
मैंने जब से तुमसे जोड़ रक्खा नाम है ।
कोई बिगड़ता ही नहीं, मेरा काम है ।।
आगे मैं जमाना मेरे पीछे आ गया ।
जादू मेरा सारे जमाने पे छा गया ।।
तम-सितम-गम की मानो आई शाम है ।
मैंने जब से तुमसे जोड़ रक्खा नाम है ।।
कोई बिगड़ता ही नहीं मेरा काम है ।
घी में तरबतर हुईं सारी अँगुलियाँ ।
आप-आप छट गईं कालीं बदलियाँ ।।
बिन प्रयास पास आ गया मुकाम है ।
मैंने जब से तुमसे जोड़ रक्खा नाम है ।।
कोई बिगड़ता ही नहीं मेरा काम है ।
देखो वो पतंग मेरी छुये आसमाँ ।
क्या नहीं है पास उसके जिसके पास माँ ।।
बाग-बाग दिल हुआ, करीब राम है ।
मैंने जब से तुमसे जोड़ रक्खा नाम है ।।
कोई बिगड़ता ही नहीं मेरा काम है ।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
गुरुवर के गुण गा सके,
जिह्वा नहिं वो लोक ।
क्षमा-क्षमा कह अंत में,
नन्त दे रहा ढ़ोक ।।
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