परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 164
लिये बिन तेरा नाम ।
न रीते कोई शाम ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।। स्थापना ।।
भर लाये जल कलशे ।
रहने न बने कल-से ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।। जलं ।।
लाये चन्दन झारी ।
हित बनने अविकारी ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।चंदन ।।
अक्षत परात लाया ।
पाने छत्रच्छाया ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।। अक्षतम् ।।
बहुतेरे गुल लाया ।
विहँसाने मद माया ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।। पुष्पं ।।
नीके व्यञ्जन घी के ।
मुख काल क्षुधा दीखे ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।। नैवेद्यं ।।
लाया माला दीवा ।
बनने विदेह जीवा ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।। दीपं ।।
खे घट में धूप रहा ।
मण्डूक कूप पन हा ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।। धूपं ।।
ले आया फल ढ़ेरी ।
पड़ जाय नज़र तेरी ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।। फलं ।।
वसु द्रव्य लिये थाली ।
खुरपा छूटे जाली ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।अर्घं ।।
==दोहा==
अंग-अंग गुरुदेव का,
देता प्रवचन मौन ।
आ गुरु गुण कीर्तन करें,
काम और कर गौण ।।
।। जयमाला ।।
आवाज यही आई दिश्-दिश् से ।
‘कि कह कैसे दूँ , तुम हो किस से ।।
सागर खारे पानी वाला ।
चन्दन लिपटाये अहि माला ।।
सहित कलंक निशाकर हा ! हा !
हहा ! दिवाकर उगले ज्वाला ।।
आवाज यही आई दिश-दिश से ।
‘कि कह कैसे दूँ ,तुम हो किस से ।।
सरिता बहती नीचे-नीचे ।
देख मोर पग अखिंयाँ मीचे ।।
काँटों वाला हहा ! बाग हा ।
भागे मृग कस्तूरी पीछे ।।
आवाज यही आई दिश्-दिश् से ।
‘कि कह कैसे दूँ ,तुम हो किस से ।।
देखे स्वप्न वृक्ष सावन के ।
गिरि क्या ? और ढ़ेर पाहन के ।।
मुख दावे तिनके मारुत हा ।
हहा ! राह-जन राजा वन के ।।
आवाज यही आई दिश्-दिश् से ।
‘कि कह कैसे दूँ ,तुम हो किस से ।।
।।जयमाला पूर्णार्घ।।
==दोहा==
जो कर लेते हाथ में,
श्री गुरु जी की छाँव ।
धूप रही आये भले,
लगे दीखने गाँव ।।
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