परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 132
श्रमण संघ नायक, उन्नायक-
श्रमण संस्कृति के ।
तोता क्यों रोता प्रस्तोता,
मूक माटि कृति के ॥
श्री गुरु वे विद्या सागर जी,
शिव-सारथि होवें ।
रोये पल आगमन, गमन पल,
पा अब न रोवें ।। स्थापना।।
कहा जिन्होंने नीर समर्पण,
सम दर्शन दाता ।
जैनागम विपरीत न रखना,
कदम जिन्हें भाता ॥
श्री गुरु वे विद्या सागर जी,
जनम यम निवारें ।
डूब रहे है भव-सागर में,
थाम-‘कर’ निकारें ।।जलं।।
चन्दन चर्चन चरण कहा,
जिनने भव-तप-हारी ।
सार्थक नाम किया जिन्होंने,
पा विद्या सारी ॥
श्री गुरु वे विद्या सागर जी,
करें मद किनारे ।
आये हमीं, कभी आ जायें,
मेरे भी द्वारे ।।चन्दनं ।।
कहा जिन्होंने अर्पण अक्षत,
पद देने वाला ।
दूध नहा फल-फूल रही पा,
जिन्हें ज्ञान शाला ॥
श्री गुरु वे विद्या सागर जी,
रख लें अपनों में ।
दर्श भले साक्षात् न दें,
दे जायें सपनों में ।। अक्षतम् ।।
कहा जिन्होंने सुमन समर्पण,
मदन मद विजेता ।
करघा अनुशासन प्रतिमा थली,
सबन इक प्रणेता ॥
श्री गुरु वे विद्या सागर जी,
गफलत सँहारे ।
सिर चढ़ बतिया रहा मार,
आ मार मार मारें ।।पुष्पं ।।
कहाँ जिन्होंने अर्पण व्यञ्जन,
क्षुध् वेदन हर्ता ।
ज्ञाता दृष्टा बने रहें नित,
विघटा पन कर्ता ॥
श्री गुरु वे विद्या सागर जी,
साहस मन भर दें ।
हंस बना सुवंश अपना दे,
आलस पन हर लें ।। नैवेद्यं ।।
कहा जिन्होंने दीप समर्पण,
तम विमोह नाशी ।
तलक आज जिन्होंने अपनी,
न कराई हाँसी ।
श्री गुरु वे विद्या सागर जी ,
कर दें विज्ञानी ।
जिसके बिन सब शून रखूँ ,
वो आस-पास पानी ।। दीपं ।।
कहा जिन्होंने धूप समर्पण ,
शत्रु कर्म दल का ।
भारी जीवन रुचे न जो ,
बनना चाहें हल्का ।।
श्री गुरु वे विद्या सागर जी,
हर लें पामरता ।
आस-पास रख श्वाँस श्वाँस में,
भर दे जागरता ।। धूपं ।।
कहा जिन्होने अपर्ण फल,
फल शिव शाश्वत देता ।
ताश महल न गहल पूर,
जो दूर खेल रेता ॥
श्री गुरु वे विद्या सागर जी,
विहर दर्द दुख लें ।
उठा कतार भक्त से अपने,
शिष्यों में रख लें ।। फलं ।।
कहा जिन्होंने अरघ समर्पण,
पद अनर्घ देवे ।
मन जिनका नित अपने,
गुरुवर की आज्ञा सेवे ॥
श्री गुरु वे विद्यासागर जी
लें चरणन निवसा ।
दे सुमरण नवकार अबकि,
देवें कुमरण विहँसा ।। अर्घं।।
“दोहा”
देख जिन्हें बुत पा गया,
थिरता कला विशेष ।
गुरु विद्या सर्वेश वे,
राग अपहरें द्वेष ॥
॥ जयमाला ॥
आ परम गुरुदेव जाओ,
भर नयन आये हमारे ।
हुआ रुँधने को गला,
आ पूर जाओ स्वप्न सारे ॥
नींद मीठी सुला सबको,
रात अब सोने चली है ।
किरण पहली उषा छूके,
उठ गई सोके कली है ॥
रात फिर आया दिवस यूँ ,
हाय ! युग है एक बीता ।
पर हृदय अपलक निरखता,
आज भी कल सी गली है ॥
विरह मावस चाँद सा क्या,
यह रहेगा उम्र सारी ।
सोच यह आशा मिलन के ,
ढ़ह रहे रह-रह कगारे ॥
आ परम गुरुदेव जाओ ,
भर नयन आये हमारे ॥
रात सा दिन हो गया है,
गगन काले मेघ छाये ॥
चमक बिजुरी रही, गर्जन,
सुन मयूरी छम छमाये ॥
कण्ठ सबके हुये तर,
झुक झूमती है प्रकृति सारी ।
बस पपीहा क्यों अकेला,
रटन पानी की लगाये ।।
नखत स्वाती बिन्दु जल पथ
खुद बना आना पड़ेगा ।।
हुआ अब तैयार नादाँ,
निगलने को अँग-अँगारे ।
आ परम गुरुदेव जाओ,
भर नयन आये हमारे ॥
चाह नहिं मन मोहनी,
जादू छड़ी लग हाथ जाये ।
चाह नहिं पर लोक को,
जाते समय कुछ साथ जाये ॥
सिर सभी के चढ़ छुऊँ,
आकाश यह नहिं चाह मेरी ।
चाह रज तेरे चरण की,
छू हमारा माथ जाये ॥
आने विवस कर दे तुम्हें,
वो निकल मुँह से बात जाये ।
टिका सुनते आसमाँ,
अब तलक आशा के सहारे ॥
आ परम गुरुदेव जाओ,
भर नयन आये हमारे ।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
विनय यही इक आपसे,
काल चतुर्थ ऋषीश ।
बल संबल पाता रहूँ ,
यूँ ही पा आशीष ॥
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