परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 126
छाया इनकी जिस पर पड़ जाती,
निहाल वो हो जाता ।
दें मुस्कुरा जरा सा बस,
पत पतझड़ झड़ सावन आता ॥
होंगें सन्त महन्त जगत के,
मेरे तो भगवन्त यही ।
श्री गुरुवर विद्या सागर जी,
देंवे अष्टम अन्त मही ।।स्थापना।।
न जमा, जमाना छोटी मछली,
मछली बड़ी परेशाँ है ।
पाइ-पाइ को भाइ-भाइ दो,
मिलें झगड़ते ऐसा है ।
हित सम्यक्त्व, छान कर प्रासुक,
उदक चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा, करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो अभिरामी ।।जलं।।
न जमा, जमाना मटका-अटका,
हाथ स्वयं कपि लेता है ।
लख प्रतिबिम्ब काँच खुद ले,
चटका सिर चटका ऐसा है ॥
हित संसार सिन्धु इस लय,
रस-मलय चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा, करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो सुखधामी ।।चन्दनं।।
न जमा, जमाना बुना जाल,
खुद मकड़ी की जाँ लेता है ।
जात-भ्रात लख भ्रात ! रात-
जागर सा भूँसे ऐसा है ॥
हित अछत थान भर थाली,
शाली-धान चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा, करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो जगनामी ।।अक्षतम्।।
न जमा, जमाना पाला लाला,
ज्वाल काल पा देता है ।
अपनों की ही टाँग केकड़े,
सा खींचे हा ! ऐसा है ।।
हित मदन-हनन चुन-चुन उपवन,
मन सुमन चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा, करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो निष्कामी ।।पुष्पं।।
न जमा, जमाना क्षुध् नागिन खुद,
बचा न पाये बेटा है ।
‘पाती प्रणय’ न झुलसी,
झुलसा परवाना भी ऐसा है ।।
इस क्षुधा-बिदा हित,
निर्मित घृत नैवेद्य चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा, करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो निजगामी ।।नैवेद्यं।।
न जमा, जमाना साया भी लख,
तिमिर छोड़ सँग देता है ।
कहे पराया धन अपनी,
बिटिया रानी को ऐसा है ।।
आऊँ कुछ और समीप आप,
घृत दीप चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा, करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो आसामी ।।दीपं।।
न जमा, जमाना दृग् लाली को,
कहाँ आँख ने देखा है ।
आँखों पे रख कान जान,
खरगोश दे गवा ऐसा है ।।
बनने कुछ और अनूप भूप-शिव,
धूप चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा, करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो शिवठामी ।।धूपं।।
न जमा, जमाना दूरी मृग,
कस्तूरी न पै परेशाँ है ।
माँ का बेटा माँग कलेजा-
ले, कॉलेज जा ऐसा है ॥
ऋतु फल सरस हरष, हित-
शिव, फल चरण चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा, करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो बेखामी ।।फलं।।
न जमा, जमाना मूढ़ ! सूड़ गज,
नहा डाल रज लेता है ।
भेद कड़ी लकड़ी ले,
हारे पदम, नरम अलि ऐसा है ।।
पाने पद अनर्घ उर गद गद,
अर्घ चढ़ाता हूँ स्वामी ।
कर करुणा करुणा-कर !
आप स्वयं सा कर लो परिणामी ।।अर्घं।।
==दोहा==
देख जिन्हें हंसा हुआ,
भीतर-बाहर एक
गुरु विद्या दिल-नेक वे,
नेक छुड़ा, दें एक ॥
॥जयमाला॥
आप ने सिर, रख दिया जो,
हाथ सब कुछ हाथ आया ।
हाथ आया स्वर्ण तो आया,
सुहागा साथ लाया ॥
माँगते ही पूर्ण करता,
कल्प तरु मानस पिपासा ।
रत्न चिन्ता मणी सुनते,
पूर्ण करता मनभि लाषा ॥
काम धेनू ! औषधी-अकसीर !
विद्या ! उपल-पारस ।
पलट देते पलक में,
किससे छुपा दुर्भाग्य पाँसा ॥
दे सभी ये रहे सब कुछ,
किन्तु बढ़के आप इनसे ।
आप ने निज सा बनाया,
समर्पण जिसने दिखाया ॥
आप ने सिर रख दिया जो,
हाथ सब कुछ हाथ आया॥
स्वार्थ रञ्जित जगत मूसल,
पलटता निज दिख रहा है ।
कौन नहिं कर अनसुनी,
अन्तर् ध्वनि हा ! बिक रहा है ।
चल हवाएँ पश्चिमी,
कुछ रहीं यूँ , कर ओट भी तो ॥
दीप मानवता पलक भी,
हृदय किसके टिक रहा है ।
नखत नभ कलि काल,
केवल आप रत्न प्रदीप अद्भुत ॥
हृदय जिस बिन लोभ लालच,
हित प्रकृति का है समाया ।
आपने सिर रख दिया जो,
हाथ सब कुछ हाथ आया ॥
है स्वयं मझधार में,
दुनिया सलंगर नाव खेती ।
खिसक बल घुटने रही,
ताना-कसी को हवा देती ॥
परिणति यह वानरी सी,
जल न आये नाक जब तक ।
शिशु धरे सिर उसे पैरों तले,
रख लख काल लेती ॥
खींचनें में टाँग जब इक,
दूसरे की यूँ लगे सब ।
पार करने दूसरों को,
आपने काँधे उठाया ॥
आपने सिर रख दिया जो,
हाथ सब कुछ हाथ आया ।
हाथ आया स्वर्ण तो,
आया सुहागा साथ लाया ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
यही प्रार्थना आपसे,
गुरुवर रत्नन दीप ।
दीप तले तम हा ! घना ।
रख लो चरण समीप॥
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