परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 101
गुरु विद्या सिन्धु निराले हैं ।
गुरु ज्ञान सिन्धु दृग् तारे हैं ।।
हर लेते सुना पीर सबकी ।
हमने भी आज पुकारे हैं ।।स्थापना।।
मीरा को सुनते श्याम मिले ।
शबरी को सुनते राम मिले ।।
जल आँसु लिये, इक आश हिये ।
मुख आप नया इक नाम मिले ।।जल॑।।
अवीचि मरण जो मरणों में ।
पल तिस आने आभरणों में ।।
चंदन नहिं जीवन ही अर्पण ।
कर रहा आपके चरणों में ।।चंदन।।
इक सुर दे लहर, नेह धागा ।
बोले मुँडेर अनु-दिन कागा ।।
अक्षत नहिं, भाव भगति कर-कर ।
दर आप चला आया भागा ।।अक्षतं।।
नो कर्म पा न होऊँ विकलित ।
दो वर-कर सकूँ गहल विगलित |।
मिल पाये सुमन नहीं मन ही ।
आ गया लिये, ‘कर’ कर मुकुलित ।।पुष्पं।।
पल-पलक सही लो थाम-हाथ ।
कल तलक सही दो निभा साथ |।
नहिं व्यंजन, यही वचन सरगम ।
ले चरण शरण आ गया नाथ ।।नैवेद्यं।।
इक चुल्लु-भर संसार करो ।
कुछ काँधे सिर का भार करो |।
दीव न, जीवन मेरा अपना ।
कर कृपा इसे स्वीकार करो ।।दीपं।।
कर दया बना लो साफ नया ।
पंछी पावे इंसाफ बया ।।
नहिं धूप,लिये आतम स्वरूप ।
आ चरण-शरण में आप गया ।।धूपं।।
दर-कदम जिसे अपना गाया ।
लख तम, वह मम भागा साया ।।
ले पुण्य सकल, थे न अन्य फल ।
आ गया आप छत्रच्छाया ।।फलं।।
जूझूँ अपनों से, जाऊँ हार ।
दो सिखा कला ये सुखाधार ।।
नहिं अरघ, किये अब तलक अनघ ।
सब लिये आ गया, विनत द्वार ।।अर्घं।।
“दोहा”
ले दादा गुरु नाम जो,
करें काम प्रत्येक ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु वे,
वन्दन तिन्हें अनेक ॥
॥ जयमाला॥
सारथी शिव रथ हमें,
ले चलो सँग सँग जहाँ जाते ।
रीत हा ! झोली गई,
रत्नन व्यथा कागा भगाते ॥
कर बहुत आरंभ,
रख परिग्रह बहुत, छू श्वभ्र आये ।
परसते ही भू ,
झुलसने लगे हा ! पग डगमगाये ॥
नदी बैतरणी,
बुझाने प्यास, खाने मिले माटी ।
कष्ट क्या क्या,
लाख जिह्वा से सुना भी कौन पाये ॥
भले सुर-गुरु,स्वर्ग से आ,
उतर इह गाथा रचाये ।
हन्त ! यूँ बरसात में,
नाहक रहे आँसु बहाते ॥
सारथी शिव रथ हमें,
ले चलो सँग सँग जहाँ जाते ।
सर्प सा मन, बाँक-पन रख,
योनि तिर्यक् घूम आया ॥
लख सका नहिं, भू कभी,
तो ग्रास माँ नागिन बनाया ।
आशियाना आब-दाना,
ढूँढता फिरता रहा यूँ ॥
पीस निशि, पारे उठा,
आ-काल धमका खिल खिलाया ।
ले चला फिर साथ अपने,
हाय ! बेवश आत्म कितनी ॥
एक ना मानी, रहे हा !
पंख कितने फड़फड़ाते ।
सारथी शिव रथ हमें,
ले चलो सँग-सँग जहाँ जाते ॥
रख सरलता,
हृदय लोनी सी, बने सुर कई बारी ।
राजसी पोशाक,
सुविधायें, अमृत की कण्ठ झारी ॥
कभी नन्दन वन,
कभी मानस-सरोवर द्वीप-सागर ।
कर ठिठोली,
देवियों सँग, हा ! बिता दी उम्र सारी ॥
हाथ से फिसले,
पलक में जुग, जयतु-जय-सुख तुम्हारी ।
आ घड़ी अंतिम गई,
यूँ विजन वन क्रन्दन मचाते ॥
सारथी शिव-रथ हमें,
ले चलो सँग-सँग जहाँ जाते ।
।।जयमाला पूर्णार्ध।।
“दोहा”
और नहीं इक प्रार्थना,
कृपया कर गुरुदेव ।
लम्बी सी मुस्कान से,
दें भर शिशु का जेब ॥
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