परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
वासुपूज्य विधान
*समर्पण भावना*
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
*विनय-पाठ*
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अरिहन्त, सिद्ध, आचारज ।
उवझाय, साधु चरणा-रज ।।
दैगम्बर-प्रतिमा अ-प्रतिम ।
जिन भवन किर-तिमा किर-तिम ।।
नभ-चुम्बी, शिखर-जिनालय ।
पच-रंगी, ध्वज, ग्रन्थालय ।।
समशरण, जिनागम-धारा ।
जिन-धर्म-अहिंसा न्यारा ।।
कल्याण-धरा-रत्नत्रय ।
जिन-सिद्ध-क्षेत्र-‘धर’-अतिशय ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
जिन-वृषभ, अजित, सम्भव-जिन ।
अभि-नन्दन सम्बल दुर्दिन ।।
जिन-सुमति, पदम-प्रभ पाँवन ।
जिन-सुपार्श्व प्रभ-शशि आनन ।।
जिन-पुष्प-दन्त ‘मत’ शीतल ।
जिन-श्रेय-पूज्य बल-निर्बल ।।
जिन-विमल, नन्त-जिन वन्दन ।
जिन-धर्म, शान्ति सुर-नन्दन ।।
जिन-अरह, मल्ल, मुनि-सुव्रत ।
नमि, नेम, पार्श्व, प्रद-सन्मत ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
गुरु गौतम अपूर्व गणधर ।
धर-सेन अंग-पूरब-धर ।।
युग आद-पुराण-प्रणेता ।
पाहुड अध्यात्म रचेता ।।
मत अनेकांत संपोषक ।
सिद्धान्त जैन उद्घोषक ।।
व्यवहार लोक व्याख्याता ।
अनुशासन शब्द विधाता ।।
जित-प्रवाद, ऊरध-रेता ।
पाहुड़-वैद्यिक, अध्येता ।।
कर्तार गणित जैनागम ।
कर्त्ता अगणित जैनागम ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अथ अर्हत् पूजा-प्रतिज्ञायां
पूर्वा-चार्या नुक्रमेण
सकल-कर्म-क्षयार्थं
भावपूजा वन्दनास्तव-समेतं
पंच-महागुरु भक्ति
कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।।
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
ॐ
जय-जय-जय
नमोऽतु-नमोऽतु-नमोऽतु
सब अरिहन्तों को नमस्कार ।
सारे सिद्धों को नमस्कार ।।
आचार्य-वन्दना-उपाध्याय ।
नुति-साध-‘साध’ मन वचन काय ।।
ॐ ह्रीं अनादि-मूल-मंत्रेभ्यो नमः
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
मंगल जग चार, प्रथम अरिहन ।
मंगल शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त मंगल ।
इक दया प्रधान पन्थ मंगल ।।
उत्तम जग चार, प्रथम अरिहन ।
उत्तम शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त उत्तम ।
इक दया प्रधान पन्थ उत्तम ।।
शरणा जग चार, प्रथम अरिहन ।
शरणा शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर साधु-सन्त शरणा ।
इक दया प्रधान पन्थ शरणा ।।
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
थिर-अथिर अपावन पावन भी ।
कारण वशि-भूत अकारण ही ।।
नवकार मंत्र जो ध्याता है ।
कालिख चिर पाप मिटाता है ।।
दे… खो क्रन्दन, भीतर आया ।
देखो अंजन भी’तर’ आया ।।
भा-परमातम सुमरण करता ।
आखिर आतम सु-मरण करता ।।
नवकार मन्त्र यह नमस्कार ।
करता पापों को छार-छार ।।
अपराजित मंत्र यही विरला ।
सब मंगल में मंगल पहला ।।
आ-रती प्रथम अरिहन्तों की ।
आ-रती दूसरी सिद्धों की ।।
आचार्य आ-रति उपाध्याय ।
आ-रती पाँचवी सन्तों की ।।
बीजाक्षर ‘अ’ अरिहन्तों का ।
बीजाक्षर ‘सि’ श्री सिद्धों का ।।
आचारज ‘अ’-‘उ’ उपाध्याय ।
नुति बीजाक्षर ‘सा’ सन्तों का ।।
प्रकटाये आठ शगुन विराट ।
जिनने विघटाये कर्म-आठ ।।
इक वर्तमान वधु-मुक्ति कन्त ।
वे सिद्ध तिन्हें वन्दन अनन्त ।।
*दोहा*
करते ही जिन अर्चना,
भक्ति-भाव भरपूर ।
भीति शाकिनी-डाकिनी,
सर्पादिक विष दूर ।।
‘पुष्पांजलिं क्षिपामि’
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
*पंचकल्याणक अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
भगवज्-जिनेन्द्र कल्याण पञ्च ।
नहिं रहें दूर कल्याण रञ्च ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवतो
गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण पंच-कल्याण-केभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पंच परमेष्ठी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
परमेष्ठि पञ्च गुरु पाद-मूल ।
करने अब तक के पाप धूल ।।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत-सिद्धा-चार्यो
पाध्याय सर्व-साधुभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*श्री जिन-सहस्र-नाम का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिनवर इक हजार आठ नाम ।
रत ‘सु-मरण’ गुजरें तीन शाम ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिन-
अष्टकाधिक सहस्र नामेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*जिनवाणी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिन-देव मुखोद्-भूत माता ।
दो जोड़ ज्ञान-केवल नाता ।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि तत्त्वार्थ-सूत्र-दशाध्याय
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*आचार्य श्री जी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
निर्ग्रन्थ तीन कम नव करोड़ ।
दो सुख अबाध से डोर जोड़ ।।
ॐ ह्रीं आचार्य श्रीविद्यासागरादि-
त्रिन्यून-नव-कोटी मुनि-वरेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पूजा-प्रतिज्ञा-पाठ*
अभ्यर्चित मूल संघ जैसी ।
विधि पूजन अपनाऊँ वैसी ।।
अरिहन्त सिद्ध आचार-वन्त ।
करके वन्दन उवझाय सन्त ।।
नित करें जगत् गुरुवर मंगल ।
नित करें जगत पल-पल मंगल ।।
नित करें चतुष्क-नन्त मंगल ।
नित करें चतुष्क-वन्त मंगल ।।
नित करें वंश-मति-हर मंगल ।
नित करें हंस-मति-धर मंगल ।।
नित करें विपद्-मोचन मंगल ।
नित करें जगत्-लोचन मंगल ।।
इक आप जितेन्द्रिय मैं दूजा ।
हो सकूँ, आप ठानूँ पूजा ।।
आठों द्रव्यों को लिये हाथ ।
भावों की शुचिता लिये साथ ।।
संचित अब-तलक पुण्य अपना ।
तुम केवल-ज्ञान रूप अगना ।।
जो, उसमें करता आज होम ।
बन साध, साध लूँ जाप ओम् ।।
ॐ ह्रीं विधि-यज्ञ-प्रतिज्ञानाय
जिन-प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*स्वस्ति-मंगल-पाठ*
वृषभ स्वस्ति ।
अजित स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सम्भव जिन ।
स्वस्ति-स्वस्ति अभिनन्दन ।
सुमत स्वस्ति ।
पदम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सुपार्श्व धन ।
स्वस्ति-स्वस्ति चन्द्र-लखन ।
सुविध स्वस्ति ।
शीतल स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति श्रेयस् दूज ।
स्वस्ति-स्वस्ति वासव-पूज ।
विमल स्वस्ति ।
अनन्त स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति नाथ-धरम ।
स्वस्ति-स्वस्ति शान्त-परम ।
कुन्थ स्वस्ति ।
अरह स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति मल्ल-जगत ।
स्वस्ति-स्वस्ति मुनि-सुव्रत ।
नमि स्वस्ति ।
नेम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति पार्श्व-गभीर ।
स्वस्ति-स्वस्ति सन्मत-वीर ।
इति श्री-चतु-र्विंशति-तीर्थंकर
स्वस्ति मंगल-विधानं
पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*परमर्षि-स्वस्ति-पाठ*
धन ! केवल-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।
मन-पर्यय-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।।
धर-अवधि-ज्ञान जागृत पल-पल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर ऋद्धि एक कोष्-ठस्थ नाम ।
इक बीज पदनु-सारिणि प्रणाम ।।
धर सम्-भिन्-नन, सन्-श्रोतृ, सकल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
संस्पर्श, श्रवण, दूरास्वादन ।
धर-ऋद्धि दूरतः अवलोकन ।।
धर-दूर-घ्राण जल-भिन्न-कमल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
दश-चार ‘पूर्व’ दश बुध-प्रतेक ।
बुध-महा-निमित-अष्टांग एक ।।
धर-प्रज्ञा-श्रमण प्रवादि अचल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल।।
धर-जंघा-चारण, तन्तु, अगन ।
बीजांकुर-चारण, पुष्प-गगन ।।
पर्वत, श्रेणी ‘चारण’ जल-फल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-अणिमा, महिमा ऋद्धि एक ।
धर-गरिमा, लघिमा ऋद्धि नेक ।।
धर-ऋद्धि वचन, काया, मन, बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
वशि अन्तर्-धानिक काम-रूप ।
अप्-प्रती-घात आप्तिक अनूप ।।
प्राकाम्य-ऋद्धि-धर, नैन-सजल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-दीप्त, तप्त, ब्रम-चर्य-घोर ।
मह-दुग्र, घोर, धर-वर्य-घोर ।।
थित-घोर-पराक्रम बल-निर्बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
आमर्ष सर्व-विष आशि-अविष ।
औषध-क्ष्वेल, विष-दृष्टि-अविष ।।
विड्-औषध, औषध-जल्लरु-मल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
अक्षीण-महानस, घृत-स्रावी ।
अक्षीण-संवास, अमृत-स्रावी ।।
इक ‘सहज-निराकुल’ हृदय-सरल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
इति परमर्षि स्वस्ति-मंगल-विधान
पुष्पांजलि
पूजन
जय जय कारा ।
जय जय कारा ।
पूज्य आपका साँचा द्वारा ।।
हारा मैं, किस्मत का मारा ।
एक सहारा, मुझे तुम्हारा ।।
पूज्य आपका साँचा द्वारा ।।
ॐ ह्रीं श्री पूज्य जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री पूज्य जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पूज्य जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
बटुआ खाली ।
छिनी दिवाली ।।
त्राहि-माम् भेंटूँ जल झारी ।।
ॐ ह्रीं दारिद्र-निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आते रिश्ते ।
जाते रिसते ।।
त्राहि-माम् पद चन्दन रखते ।।
ॐ ह्रीं वैवाहिक बाधा-निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।।
बच्चे नूठे ।
धन्धे रूठे ।।
त्राहि-माम् भेंटूँ धाँ कूटे ।।
ॐ ह्रीं आजीविका-बाधा निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
दाग चुनरिया ।
झुकी नज़रिया ।।
त्राहि-माम् भेंटूँ गुल बगिया ।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आँख दिखायें ।
रोग सतायें ।।
त्राहि-माम् घृत भोग भिंंटायें ।।
ॐ ह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
किस्मत फूटी ।
सरसुुत रूठी ।।
त्राहि-माम् भेंटूँ लौं नूठी ।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ऊपर बाधा ।
उदय असाता ।।
त्राहि-माम् घट धूप चढ़ाता ।।
ॐ ह्रीं टुष्टविद्या निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चोरी, प्यारी ।
चीज हमारी ।।
त्राहि-माम् भेंटूँ फल क्यारी ।।
ॐ ह्रीं इष्ट वियोग निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
राह कँटीली ।
‘शू’ साइड धी ।।
त्राहि-माम् भेंटूँ द्रव सब ही ।।
ॐ ह्रीं अपमृत्यु-अल्पमृत्यु निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कल्याणक अर्घ
सूनी गोदी ।
बहु ‘बहु’ रोती ।।
त्राहि-माम् भेंटूँ दृग् मोती ।।
ॐ ह्रीं आषाढ़ कृष्ण षष्ट्यां
गर्भ कल्याणक-प्राप्ताय
अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मानस पाया ।
बगुला भाया ।।
त्राहि माम् हित शरणा आया ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश्यां
जन्म कल्याणक-प्राप्ताय
मानस विकार निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दीक्षा सपना ।
सपने अपना ।।
त्राहि-माम् पत मेरी रखना ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश्यां
दीक्षा कल्याणक प्राप्ताय
सिद्ध साक्षि दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
खूब धका ली ।
दुकाँ न चाली ।।
त्राहि-माम् दो मना दिवाली ।।
ॐ ह्रीं भाद्रपद शुक्ल द्वितीयायां
ज्ञान कल्याणक प्राप्ताय
व्यापार बाधा निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पीर घनेरी ।
अपने वैरी ।।
त्राहि-माम् हो रक्षा मेरी ।।
ॐ ह्रीं भाद्रपद शुक्ल चतुर्दश्यां
मोक्ष कल्याणक प्राप्ताय
बन्धुजन-कृत बाधा निवारकाय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘विधान प्रारंभ’
सुत-वसु-पूज ।
निशि-कर दूज ।
वासु पूज जय, दिश्-दश गूँज ।।
ॐ ह्रीं श्री पूज्य जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री पूज्य जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री पूज्य जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्
जय अरिहन्त ।
सिद्ध अनन्त ।
सूरि पाठी-जय, जय निर्ग्रन्थ ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ
अक्षर असिआ उसा नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ज्ञान अपार ।
भव-जल पार ।
दया-धर्म, मुनि मंगल चार ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं ए ऐ ओ औ अं अः
अक्षर चतुर्विध मंगलाय नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
इक-आराध ।
सुख-निर्बाध ।
उत्तम धर्म अहिंसा, साध ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अक्षर चतुर्विध लोकोत्तमाय नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिन भगवन्त ।
सिद्ध अनन्त ।
धर्म अहिंसा शरण महन्त ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अक्षर चतुर्विध शरणाय नमः
दक्षिण-दिशि अर्घ निर्वापमिति स्वाहा ।।
दर्शन नन्त ।
ज्ञान अनन्त ।
बल ‘अनन्त’ सुख अनन्त वन्त ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अक्षर पूज्य जिनेन्द्राय नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केशर-पीठ ।
सुर’भी गीत ।
भा-मण्डल सुर-तर हर-दीठ ।।
गुल बरसात ।
दुन्दुभ नाद ।
छतर, चँवर प्रतिहारज आठ ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अक्षर पूज्य जिनेन्द्राय नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।।
संहनन, बाण ।
अर संस्थान ।
लखन-सहस, निर्मल, बलवान ।।
विरहित-श्वेद ।
रक्त-सुफेद ।
रूप-नूप, तन गन्ध निकेत ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अक्षर पूज्य जिनेन्द्राय नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थिर-नख-केश ।
अर अनिमेष ।
सुभिख, अभय, विद्या सर्वेश ।।
मुख दिश्-चार ।
गगन विहार ।
छाया, विघन ना कवलाहार ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अक्षर पूज्य जिनेन्द्राय नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मागध भाष ।
दिश्-आकाश ।
‘ऋत’, ‘सुर’, मैत्री ‘अन’ वाताश ।
पद्म-सुगन्ध ।
पथ जल गन्ध ।
धर्म चक्र भू दर्प’ण पन्थ ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अक्षर पूज्य जिनेन्द्राय नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम वलय पूजन विधान की जय
अनन्त चतुष्टय
दर्पण भाँत ।
दर्शन हाथ ।।
कर्म दर्शनावरण विघात ।।१।।
ॐ ह्रीं अनन्त-दर्शन मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आप समान ।
केवल ज्ञान ।
ज्ञानावरण कर्म अवसान ।।२।।
ॐ ह्रीं अनन्त-ज्ञान मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नमन विनीत ।
बल अगणीत ।
अन्तराय इक अर अभिजीत ।।३।।
ॐ ह्रीं अनन्त वीर्य मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दुख अब नाश ।
सुख अविनाश ।
कर्म मोहनी एक विनाश ।।४।।
ॐ ह्रीं अनन्त सुख मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दर्शन नन्त ।
ज्ञान अनन्त ।
बल ‘अनन्त’ सुख अनन्त वन्त ।।
ॐ ह्रीं अनन्त-चतुष्टय मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
द्वितीय वलय पूजन विधान की जय
अष्ट-प्रातिहार्य
प्रथमा भौन ।
उपमा गौण ।
रत्न खचित सिंहासन सोन ।।१।।
ॐ ह्रीं सिंहासन मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिव शिव द्वार ।
गहल निवार ।
बिन्दु सहित वाणी ओंकार ।।२।।
ॐ ह्रीं दिव्य-ध्वनि मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सोम समान ।
सौम्य विधान ।
जोड़ भा वलय कोटिक भान ।।३।।
ॐ ह्रीं भामण्डल मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दे तुम ढ़ोक ।
साधन मोख ।
सुर तरु सार्थक नाम अशोक ।।४।।
ॐ ह्रीं वृक्ष-अशोक मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
उपवन नन्द ।
इतर सुगन्ध ।
झिर लग गुल बरसात अमन्द ।।५।।
ॐ ह्रीं पुष्प-वृष्टि मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बाजे नेक ।
बाजे लेख ।
दरद-मन्द इह बाजे एक ।।६।।
ॐ ह्रीं देवदुन्दुभि मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अधर सुड़ोल ।
झालर लोल ।
छतर सुशोभित तीन अमोल ।।७।।
ॐ ह्रीं छत्र-त्रय मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
किस-से देव ।
हिस्से सेव ।
ढोरें चौसठ चँवर सदैव ।।८।।
ॐ ह्रीं चामर मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केशर-पीठ ।
सुर’भी गीत ।
भा-मण्डल सुर-तर हर-दीठ ।।
गुल बरसात ।
दुन्दुभ नाद ।
छतर, चँवर प्रतिहारज आठ ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-प्रातिहार्य मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तृतीय वलय पूजन विधान की जय
जन्मातिशय
भगवत वाँच ।
उपरत काँच ।
‘संहनन’ वज्र वृषभ नाराच ।।१।।
ॐ ह्रीं धन ! संहनन मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अमरित घोल ।
मित अनमोल ।
बड़े सुरीले मीठे बोल ।।२।।
ॐ ह्रीं बोल अमोल मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अबकी शाम ।
हाथ मुकाम ।
संस्थाँ सम चतु रस्रिक नाम ।।३।।
ॐ ह्रीं छटा संस्थाँ मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हंस-विवेक ।
ध्वज, गज-रेख ।
लाखन शुभ सहस्र अभिलेख ।।४।।
ॐ ह्रीं ‘लाखन’ गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहाँ निहार ।
छक आहार ।
देवुपनीत मिष्ठ मनहार ।।५।।
ॐ ह्रीं निर्मल गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अचरज-कार ।
शक्ति अपार ।
बल श्वासन लो हिला पहाड़ ।।६।।
ॐ ह्रीं संबल मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हृदय उदार ।
दय अवतार ।
रग-रग बहे दुग्ध की धार ।।७।।
ॐ ह्रीं सित शोणित मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
होड़ न मान ।
गुमा गुमान ।
नहिं पसेव का नाम निशान ।।८।।
ॐ ह्रीं हीन पसीन गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहीं न और ।
छव सिर-मौर ।
निष्कलंक शशि से बढ़ गौर ।।९।।
ॐ ह्रीं सुन्दर, तन मन्दर मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अगर कपूर ।
चन्दन दूर ।
आगे लगे न मृग-कस्तूर ।।१०।।
ॐ ह्रीं सौरभ गौरव मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
संहनन, बाण ।
अर संस्थान ।
लखन-सहस, निर्मल, बलवान ।।
विरहित-श्वेद ।
रक्त-सुफेद ।
रूप-नूप, तन गन्ध निकेत ।।
ॐ ह्रीं दश-जन्मातिशय मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चतुर्थ वलय पूजन विधान की जय
केवल-ज्ञानातिशय
गत रत-द्वेष ।
हित उपदेश ।
रुक चाली वृद्धिन नख-केश ।।१।।
ॐ ह्रीं नग केश-नख गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दृग् नम दून ।
अवगम पून ।
झपकन पलक सर्वथा शून ।।२।।
ॐ ह्रीं झलक अपलक गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भीति न रेख ।
ईति न एक ।
योजन-शत सुभिक्ष अभिलेख ।।३।।
ॐ ह्रीं इक सुभिख गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वैर विडार ।
वत्सल न्यार ।
सभा सींह मृग एक कतार ।।४।।
ॐ ह्रीं ‘मा-हन्त’ गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जगत् प्रसिद्ध ।
परिकर रिद्ध ।
‘सहज निराकुल’ आकर सिद्ध ।।५।।
ॐ ह्रीं ‘विद्यालय’ गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भक्त चकोर ।
शशि बेजोड़ ।
मुख समशरण दिखे चहुओर ।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुख प्रतिभा गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पर हित कार ।
गगन विहार ।
ऊपर भू से अंगुल चार ।।७।।
ॐ ह्रीं ‘गगन-चरन’ गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेज प्रचण्ड ।
ज्योत अखण्ड़ ।
तन छाया से छूटा पिण्ड ।।८।।
ॐ ह्रीं छाया माया गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
व्रत निर्दोष ।
सजग, सहोश ।
संकट दूर खड़े जा कोस ।।९।।
ॐ ह्रीं ‘हन विघन’ गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अपरम्पार ।
अमिरित धार ।
अवगम बाद न कवलाहार ।।१०।।
ॐ ह्रीं अन अनशन गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थिर-नख-केश ।
अर अनिमेष ।
सुभिख, अभय, विद्या सर्वेश ।।
मुख दिश्-चार ।
गगन विहार ।
छाया, विघन ना कवलाहार ।।
ॐ ह्रीं दश केवल-ज्ञानातिशय मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पंंचम वलय पूजन विधान की जय
देव-कृतातिशय
निवसे श्वास ।
बिन आयास ।
सुर’भी अर्ध मागधी भाष ।।१।।
ॐ ह्रीं भाष अध-मागध गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
घन अवसान ।
धन ! अब शान ।
स्वच्छ साफ नभ शरद् समान ।।२।।
ॐ ह्रीं मगन गगन गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
झूम विधात ।
धूम विघात ।
दिश्-दिश् स्वच्छ शरद् ऋत भाँत ।।३।।
ॐ ह्रीं ‘दिशा’ गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विधना भूल ।
सुनिध अमूल ।
डाल-डाल ऋत-ऋत फल-फूल ।।४।।
ॐ ह्रीं ऋत-ऋत गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बारम्बार ।
जय जयकार ।
यहाँ विराजे तारण-हार ।।५।।
ॐ ह्रीं स्वर सुर गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दूर तनाव ।
सुदूर ताव ।।
दिश्-दिश् इक मैत्री का भाव ।।६।।
ॐ ह्रीं ‘मै-त्र’ गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
और न सन्ध ।
और सुगन्ध ।।
चलती रहती मारुत मन्द ।।७।।
ॐ ह्रीं ह-वा…वा-ह गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भी’तर ओज ।
निधि ले खोज ।
पल विहार सुर रचें सरोज ।।८।।
ॐ ह्रीं पद पद्म गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
एक न शूल ।
रेख न धूल ।
पन्थ मन्त्र साधन अनुकूल ।।९।।
ॐ ह्रीं ‘मा-रग’ गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
परिमल झूठ ।
इतर अनूठ ।
झिरे धार जल गन्ध अटूट ।।१०।।
ॐ ह्रीं मोहक गन्धोदक गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सलील न्यार ।
तील हजार ।
धर्म चक्र मत मिथ्याहार ।।११।।
ॐ ह्रीं अग्र धर्मचक्र गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अपूर्व जाग ।
दर्शन भाग ।
भू दर्पण जैसी बेदाग ।।१२।।
ॐ ह्रीं फर्श आदर्श गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जुदी उमंग ।
उड़ी पतंग ।
मन मन थम सी चली तरंग ।।१३।।
ॐ ह्रीं साध आह्लाद गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वितरण घाट ।
नांदी पाठ ।
‘सुर’-तिय द्रव्य मांगलिक आठ ।।१४।।
ॐ ह्रीं वस मंगल गुण मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मागध भाष ।
दिश्-आकाश ।
‘ऋत’, ‘सुर’, मैत्री ‘अन’ वाताश ।
पद्म-सुगन्ध ।
पथ जल गन्ध ।
धर्म चक्र भू दर्प’ण पन्थ ।।
ॐ ह्रीं चतुर्दश देव-कृतातिशय मण्डिताय
श्री पूज्य जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयमाला लघु चालीसा
दोहा
आ सुमरण से जुड़ चलें,
भले घड़ी एकाध ।
सुना, डूबते के लिये,
काफी तिनका साथ ।।
दिल दया से भींजा ।
नैन रखते तीजा ।।
भक्त की सुनते तुम ।
भक्त को चुनते तुम ।।१।।
विनत सीता रानी ।
आग पानी पानी ।।
कहा अर्हम्-अर्हम् ।
जटायु-पंख सोनम ।।२।।
दिल दया से भींजा ।
नैन रखते तीजा ।।
भक्त की सुनते तुम ।
भक्त को चुनते तुम ।।३।।
शूलिका विकराली ।
सिंहासन बन चाली ।।
फूल मुख अपने रख ।
स्वर्ग जन्मा मेंढक ।।४।।
दिल दया से भींजा ।
नैन रखते तीजा ।।
भक्त की सुनते तुम ।
भक्त को चुनते तुम ।।५।।
खुल पड़ा दरवाज़ा ।
शील जय नभ गाजा ।।
घड़े अहि जुग काला ।
निकाला गुलमाला ।।६।।
दिल दया से भींजा ।
नैन रखते तीजा ।।
भक्त की सुनते तुम ।
भक्त को चुनते तुम ।।७।।
भक्ति अनबुझ ज्योती ।
ज्वार जग-मग मोती ।।
ग्वाल वाला एका ।
सूरिवर अभिलेखा ।।८।।
दिल दया से भींजा ।
नैन रखते तीजा ।।
भक्त की सुनते तुम ।
भक्त को चुनते तुम ।।९।।
हाय ! मैं भी दुखिया ।
बनी आँखें दरिया ।।
निरा’कुल कर लो ना ।
रूप रुपया खोना ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री पूज्य जिनेन्द्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
दोहा
अपने चरणों से मुझे,
कभी न करना दूर ।
तुम पानी, मैं मीन हूँ,
मैं सरोज, तुम सूर ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
*शांति पाठ*
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्श्री शांति-भक्ति कायोत्सर्गम् ,
करोम्यहम्
(९ बार णमोकार )
*चौपाई*
दर्शन मात्र मेंटता दुखड़ा ।
भाँत चन्द्रमा सुन्दर मुखड़ा ।।
नासा टिके नैन मनहारी ।
करें वन्दना नाथ ! तुम्हारी ।।
आप चक्रधर-पञ्चम नामी ।
वन्द्य इन्द्र शत, अन्तर्-यामी ।।
प्रभो शान्ति-जिन करके करुणा ।
करो शान्ति ! जश निरखो अपना ।।
छत्र, सिंहासन, वृक्ष-अशोका ।
धुनि, दुन्दुभि, दल-चँवर अनोखा ।।
भा-मण्डल झिर-पुष्प-अनूठी ।
प्रातिहार्य-वसु आप विभूती ।।
अर्चित-जगत् ! शान्ति करतारी ।
ढ़ोक करो स्वीकार हमारी ।।
प्राण-भूत, सत्, जीव समस्ता ।
पायें परिणति शान्त प्रशस्ता ।।
देवों में जो देव बड़े हैं ।
चरणों में हित सेव खड़े हैं ।।
हंस-वंश वे जग उजियारे ।
करें शान्ति मण्डित जग सारे ।।
(निम्न श्लोक को पढ़कर
जल छोड़ना चाहिए)
शान्ति कीजिये गाँव-गाँव में ।
विश्व लीजिये पाँव-छाँव में ।।
डूब ‘साध-जन’ उतरें गहरे ।
लहर लहर-पचरंगा लहरे ।।
नृप धार्मिक बलशाली होवे ।
विकृति-प्रकृति मनमानी खोवे ।।
धर्म-चक्र-जिन सौख्य प्रदाता ।
रहे प्रवाहित यूँ हि विधाता ।।
द्रव्य सुमंगल-कारी होवे ।
क्षेत्र अमंगल-हारी होवे ।।
होवे काल सुमंगल-कारी ।
होवें भाव अमंगल-हारी ।।
कर्मन-घात घात मद सारा ।
सहजो सिद्ध रिद्ध परिवारा ।।
आदि आदि अर्हन् चौबीसा ।
शान्ति प्रदान करें निशि दीसा ।।
*दोहा*
किया शान्ति जिन भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
पाँच सभी कल्याणक धारी ।
आठ प्राति-हारज मन-हारी ।।
अतिशय तीस चार मण्डित हैं ।
अर बत्तीस इन्द्र वन्दित हैं ।।
चौ-विध संघ नखत मानिन्दा ।
राम श्याम चक्री, प्रभु ! चन्दा ।।
‘निलय-विनय’ अन-गिनत गभीरा ।
आद-आद जिन अंतिम वीरा ।।
अर्चन-पूजन-वन्दन करता ।
उनका मैं अभिनन्दन करता ।।
पीड़ा-दुक्ख-दरद-भय खोवे ।
मेरे कर्मों का क्षय होवे ।।
रत्नत्रय का मुझे लाभ हो ।
मेरी ‘गति-पंचम-उपाध’ हो ।।मृत्यु-महोत्सव मना सकूँ मैं ।
जिन-गुण-सम्पद् कमा सकूँ मैं ।।
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्
श्री समाधि-भक्ति कायोत्सर्गम्
करोम्यहम्
(९बार णमोकार )
*चौपाई*
सदा शास्त्र अभ्यास करूँ मैं ।
सन्त समीप निवास करूँ मैं ।।
मौन धरूँ क्यूँ, गुणी दिखाये ।
गौण करूँ, यूँ दोष-पराये ।।
भावन-आत्म तत्व, नम-नयना ।
हित-मित रखूँ मधुरतम वयना ।।
जब तक राधा-मुक्ति रिझाऊँ ।
इन्हें जन्म जन्मान्तर पाऊँ ।।
तारण हारे……शरण सहारे ।
हृदय हमारे….चरण तुम्हारे ।।
चरण तुम्हारे….हृदय हमारा ।
रहे, तलक जब भव-जल-धारा ।।
स्वर-अक्षर पद मात्रा गलती ।
हुईं, चाहते बिन अनगिनती ।।
हो अपराध क्षमा यह मेरा ।
‘जैसा भी’ मैं अपना तेरा ।।
*दोहा*
किया समाधी, भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञाना ।
सम्यक्-चारित, ताना-बाना ।।
रूप अनूप ध्यान परमातम ।
बुद्ध-विशुद्ध ज्ञान धर आतम ।।
पूजन नित वन्दन करता हूँ ।
अर्चन अभिनन्दन करता हूँ ।।
क्षय होवें दुख संकट सारे ।
क्षय हो जावें कर्म हमारे ।।
मुझे लाभ रत्नत्रय होवे ।
सुगति गमन, भय-सप्तक खोवे ।।
पाऊँ मरण-समाधी स्वामी ।
बनूँ रतन जिन-गुण आसामी ।।
‘पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्’
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र
पढ़ना चाहिए )
*विसर्जन पाठ*
अंजन को पार किया ।
चंदन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।
अगनी ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।
( निम्न श्लोक पढ़कर
विसर्जन करना चाहिये )
*दोहा*
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
‘आरती’
वासुपूज देव
देव करे सेव
सोने की थाल
दीप घी प्रजाल
आरती उतारें हम भी सदैव
आरतिया पहली गर्भ अनोखी
बरसा रत्नों की
‘रे बरसा रत्नों की
स्वर्ग से उतर के करते हैं देव
आरती उतारें हम भी सदैव
आरतिया दूजी जनमत पल की
धार क्षीर जल की,
‘रे धार क्षीर जल की,
स्वर्ग से उतर के करते हैं देव
आरती उतारें हम भी सदैव
आरतिया तीजी त्याग विभूति
सातिशयी केली
‘रे सातिशयी केली
स्वर्ग से उतर के करते हैं देव
आरती उतारें हम भी सदैव
आरतिया चौथी ज्ञान अकेली
धन्य धुन अनूठी
‘रे धन्य धुन अनूठी
स्वर्ग से उतर के करते हैं देव
आरती उतारें हम भी सदैव
आरती अखीरी मोक्ष गमन की
धारा नयन की
‘रे धारा नयन की
स्वर्ग से उतर के करते हैं देव
आरती उतारें हम भी सदैव
वृहद चालीसा
दोहा
बड़े इन्द्र सब है खड़े,
सविनय जोड़े हाथ ।
वासुपूज्य जिन देव जी,
नाम आपका सार्थ ।।
पुष्कर अर्ध पूर्व वैदेहा ।
‘रत्न-संचयन्’ वत्स सनेहा ।।
भव यह पिछला तीजा जानो ।
नृप पद्मोत्तर नाम पिछानो ।।१।।
वर्ण, स्वर्ण के जैसा दीखे ।
ग्यारह-अंग इन्होंने सीखे ।।
थे मांडलिक यहाँ पर राजा ।
बाद श्रमण भव-जलधि-जहाजा ।।२।।
शगुन नेक सद्-गुण आभरणा ।
व्रत सिंह निष्क्रीड़ित आचरणा ।।
धन ! प्रायोपगमन सन्यासी ।
स्वर्गिक महा शुक अधिशासी ।।३।।
‘गर्भ-पर्व’ छह महीने पहले ।
रत्न बरसने लगे रुपहले ।।
लिये हाथ में भेंट अनोखी ।
माँ सेविका देवि-देवों की ।।४।।
नृप वसु पूज नाम अनुरुपा ।
वासव-पूजित, क्षमा स्वरूपा ।।
चम्पापुरी नाम रजधानी ।
देवी जयावती पटरानी ।।५।।
सपने लगे हुये से अपने ।
देखे माँ ने सोलह सपने ।।
मानो कोई बाल पुकारे ।
“जागो माँ हम आये द्वारे” ।।६।।
गर्भ कृष्ण आषाढ़ा षष्टी ।
रिख शतभिषा प्रात समदृष्टी ।।
अंगिक देश स्वर्ग से आये ।
कुल इक्ष्वाकु प्रदीप कहाये ।।७।।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश जन्मे ।
स्वर्ग उतर आया भू छिन में ।।
‘जनमत’ वरुण योग विख्याता ।
कुम्भ राशि जुड़ चाला नाता ।।८।।
नाम विशाखा रिख अवतारी ।
छव बन्धूक पुष्प मनहारी ।।
शचि आई, बालक को लाई ।
अवतारी भव-एक कहाई ।।९।।
हिवरा फूला नहीं समाया ।
बाल गोद सौधर्म थमाया ।।
पार रुप कब नेत्र सफीने ।
नेत्र हजार इन्द्र ने कीने ।।१०।।
ऐरावत की किस्मत जागी ।
सेवा हाथ भागवत लागी ।।
रच सुमेर अभिषेक अनोखा ।
सुर-गण पुण्य कमाया चोखा ।।११।।
पैर उखड़ते दीखे यम के ।
नृत्य किया ताण्डव फिर जमके ।।
यादगार ये दृश्य अनूठे ।
महिष सुशोभित पाँव अँगूठे ।।१२।।
बढ़ने लगे दूज चन्दा से ।
निष्कलंक शशि पूनम भासे ।।
दर्श मात्र अपहारक-पीडा ।
धनु सत्तर उत्तुंग शरीरा ।।१३।।
बर्ष अठारह लाख कुमारा ।
बर्ष बहत्तर लख वय धारा ।।
मन प्रसंग भव पूरब छाया ।।
यह संसार जान के माया ।।१४।।
बारह सभी भावना भाये ।
देव तभी लौकान्तिक आये ।।
”विरला थामे केतु-अहिंसा” ।
लगे बाँधने सेतु-प्रशंसा ।।१५।।
बिन ओड़े दैगम्बर-बाना ।
भ्रम व्रत-मन्दिर कलश चढ़ाना ।।
देव-शास्त्र-गुरु का कहना है ।
संयम भव-मानव गहना है ।।१६।।
सिर्फ न लोचन, मन-मन भाई ।
दिव्य पुष्य-भा शिविका आई ।।
पूज्य कुमार पधारे आके ।
हर्षाये सुर-असुर उठा के ।।१७।।
पुर परिजन ने दूर तलक आ ।
किया विदा निज-नैन-उदक ला ।।
पुर चम्पापुर जाना माना ।
रम्य मनोहर तप उद्याना ।।१८।।
मुँह लग वृक्ष गगन बतियाई ।
धनु शत वसु चालीस उँचाई ।।
छह सौ छह राजे महराजे ।
तर पाटल तर आन विराजे ।।१९।।
‘णमो सव्व सिद्धाणं’ बोला ।
दिया उतार राजसी चोला ।।
पंच मुष्टी लुंचन अपना के ।
खड़े हो गये ध्यान लगा के ।।२०।।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश न्यारी ।
अपराह्निक जिन दीक्षा धारी ।।
दीक्षा रिक्ष विशाखा न्यारा ।
इक उपवास नियम उर धारा ।।२१।।
विसर पूर्व-भव-तापस शेखी ।
लगा टक-टकी नासा देखी ।।
कर अफसोश दोष-कृत पिछले ।
हरकत बिना तीन दिन निकले ।।२२।।
रखे दर्श-मुनि हित बेशबरी ।
ध्वज माहन्त महापुर नगरी ।।
हेत पारणा आये स्वामी ।
राजा राजा-जय जग नामी ।।२३।।
नवधा भक्ति से पड़गाया ।
गो-क्षीरान्न अहार कराया ।।
पुण्य सातिशय अबकि बोने ।
पञ्चाश्चर्य किये देवों ने ।।२४।।
सहजो बीते द्वादश मासा ।
गले उतार ध्यान परिभाषा ।।
बस अन्तर्मुहूर्त इक लागा ।
सुप्त चतुष्टय-अनन्त जागा ।।२५।।
दूज भ्राद-पद शुक्ल निराली ।
अपराह्निक बेला सुखहारी ।।
नियम धारणा धारी बेला ।
रिक्ष विशाखा वाली बेला ।।२६।।
विपिन सहेतुक छव लासानी ।
तर कदम्ब तर केवल ज्ञानी ।।
ऊँचाई धनु मानस्तंभा ।
शत वसु चालिस धुनि जगदम्बा ॥२७।।
कोट उँचाई यही बताई ।
चैत्य ‘वृक्ष’ सिद्धार्थ गुसाईं ।।
गिरि-तोरण भी इतने ऊँचे ।
इतने ऊँचे ध्वज नभ गूँजे ॥२८।।
वेदिस्-तूप न इससे ज्यादा ।
विस्तृत इतने ही प्रासाद ।।
कोट, वेदि सम-शरणा साँची ।
विस्तृत धनु दो सौ दश वाँची ।।२९।।
धनु शत-पञ्च साठ गिर चौड़े ।
तूप धनुष सत्तर अर थोड़े ।।
युुज षट् सार्ध प्रमाण सभा का ।
कुस छब्बीस वितान सभा का ।।३०।।
सिंहासन पद्मासन माड़े ।
चौषठ चँवर लिये सुर ठाड़े ।।
छतर तीन सिर-ऊपर डोलें ।
देव-दुन्दुभि मिसरी घोलें ।।३१।।
भामण्ड़ल भव-भव दर्पण है ।
झिर लग गंधोदक बर्सण है ।।
मन्द-मन्द चाले पवमाना ।
पुष्प-वृष्टि नन्दन बागाना ।।३२।।
तर अशोक तर छटा निराली ।
ध्वनि शिव-स्वर्ग भिंटाने वाली ।।
गुण अनुरूप नाम सम शरणा ।
वैर छोड़ बैठे सिंह-हिरणा ।।३३।।
सहजो षट् सहस्र सर्वज्ञा ।
द्वादश शतक पूर्व धर प्रज्ञा ।।
षट् सहस्र मति विपुल प्रकाशा ।
रसिक छियासठ गणि दृग् नासा ।।३४।।
गुरु शत जुग उन्तीस हजारा ।
शत ब्यालीस वादि विस्तारा ।।
चौ-पन सौ मुनि अवधि प्रभारी ।
दश हजार मुनि विक्रिय धारी ।।३५।।
गणिप सधर्म घाट वैतरणी ।
आर्या वर-सेना अर गणनी ।।
बाद सहस षट् ऊपर लाखा ।
नृृप स्वयंभु मुख श्रोतरि भाखा ।।३६।।
लाख-जुगल सुधि श्रावक शोभें ।
चार-लाख श्राविका सुशोभें ।।
भवि षण्मुख यग यक्ष सुनो जी ।
गांधारी यक्षिणी चुनो जी ।।३७।।
निस्पृह सिखला आखर-ढ़ाई ।
मास पूर्व ली सभा विदाई ।।
शुक्ल भाद्रपद चौदस मोखा ।
प्रात रिक्ष अश्विनी अनोखा ।।३८।।
विपिन शाल चंपा मंदारी ।
मुद्रा पद्मासन स्वीकारी ।।
जा पहुँचे शिव समय मात्र में ।
छह सौ एक महन्त साथ में ।।३९।।
चौरासी केवली अनबद्धा ।
चौ-पन सहस शतक षट् सिद्धा ।।
कहूँ कहाँ तक पार न आता ।
‘सहज-निराकुल’ मौन सुहाता ।।४०।।
दोहा
भाव भक्ति भीनी लिये,
की तुम चरणन सेव ।
अन्त गोद में आपकी,
चाहूँ सु-मरण देव ।।
ॐ ह्रीं श्री वासु-पूज्य जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामी स्वाहा
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