परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
शीतलनाथ विधान
*समर्पण भावना*
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
*विनय-पाठ*
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अरिहन्त, सिद्ध, आचारज ।
उवझाय, साधु चरणा-रज ।।
दैगम्बर-प्रतिमा अ-प्रतिम ।
जिन भवन किर-तिमा किर-तिम ।।
नभ-चुम्बी, शिखर-जिनालय ।
पच-रंगी, ध्वज, ग्रन्थालय ।।
समशरण, जिनागम-धारा ।
जिन-धर्म-अहिंसा न्यारा ।।
कल्याण-धरा-रत्नत्रय ।
जिन-सिद्ध-क्षेत्र-‘धर’-अतिशय ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
जिन-वृषभ, अजित, सम्भव-जिन ।
अभि-नन्दन सम्बल दुर्दिन ।।
जिन-सुमति, पदम-प्रभ पाँवन ।
जिन-सुपार्श्व प्रभ-शशि आनन ।।
जिन-पुष्प-दन्त ‘मत’ शीतल ।
जिन-श्रेय-पूज्य बल-निर्बल ।।
जिन-विमल, नन्त-जिन वन्दन ।
जिन-धर्म, शान्ति सुर-नन्दन ।।
जिन-अरह, मल्ल, मुनि-सुव्रत ।
नमि, नेम, पार्श्व, प्रद-सन्मत ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
गुरु गौतम अपूर्व गणधर ।
धर-सेन अंग-पूरब-धर ।।
युग आद-पुराण-प्रणेता ।
पाहुड अध्यात्म रचेता ।।
मत अनेकांत संपोषक ।
सिद्धान्त जैन उद्घोषक ।।
व्यवहार लोक व्याख्याता ।
अनुशासन शब्द विधाता ।।
जित-प्रवाद, ऊरध-रेता ।
पाहुड़-वैद्यिक, अध्येता ।।
कर्तार गणित जैनागम ।
कर्त्ता अगणित जैनागम ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अथ अर्हत् पूजा-प्रतिज्ञायां
पूर्वा-चार्या नुक्रमेण
सकल-कर्म-क्षयार्थं
भावपूजा वन्दनास्तव-समेतं
पंच-महागुरु भक्ति
कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।।
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
ॐ
जय-जय-जय
नमोऽतु-नमोऽतु-नमोऽतु
सब अरिहन्तों को नमस्कार ।
सारे सिद्धों को नमस्कार ।।
आचार्य-वन्दना-उपाध्याय ।
नुति-साध-‘साध’ मन वचन काय ।।
ॐ ह्रीं अनादि-मूल-मंत्रेभ्यो नमः
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
मंगल जग चार, प्रथम अरिहन ।
मंगल शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त मंगल ।
इक दया प्रधान पन्थ मंगल ।।
उत्तम जग चार, प्रथम अरिहन ।
उत्तम शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त उत्तम ।
इक दया प्रधान पन्थ उत्तम ।।
शरणा जग चार, प्रथम अरिहन ।
शरणा शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर साधु-सन्त शरणा ।
इक दया प्रधान पन्थ शरणा ।।
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
थिर-अथिर अपावन पावन भी ।
कारण वशि-भूत अकारण ही ।।
नवकार मंत्र जो ध्याता है ।
कालिख चिर पाप मिटाता है ।।
दे… खो क्रन्दन, भीतर आया ।
देखो अंजन भी’तर’ आया ।।
भा-परमातम सुमरण करता ।
आखिर आतम सु-मरण करता ।।
नवकार मन्त्र यह नमस्कार ।
करता पापों को छार-छार ।।
अपराजित मंत्र यही विरला ।
सब मंगल में मंगल पहला ।।
आ-रती प्रथम अरिहन्तों की ।
आ-रती दूसरी सिद्धों की ।।
आचार्य आ-रति उपाध्याय ।
आ-रती पाँचवी सन्तों की ।।
बीजाक्षर ‘अ’ अरिहन्तों का ।
बीजाक्षर ‘सि’ श्री सिद्धों का ।।
आचारज ‘अ’-‘उ’ उपाध्याय ।
नुति बीजाक्षर ‘सा’ सन्तों का ।।
प्रकटाये आठ शगुन विराट ।
जिनने विघटाये कर्म-आठ ।।
इक वर्तमान वधु-मुक्ति कन्त ।
वे सिद्ध तिन्हें वन्दन अनन्त ।।
*दोहा*
करते ही जिन अर्चना,
भक्ति-भाव भरपूर ।
भीति शाकिनी-डाकिनी,
सर्पादिक विष दूर ।।
‘पुष्पांजलिं क्षिपामि’
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
*पंचकल्याणक अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
भगवज्-जिनेन्द्र कल्याण पञ्च ।
नहिं रहें दूर कल्याण रञ्च ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवतो
गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण पंच-कल्याण-केभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पंच परमेष्ठी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
परमेष्ठि पञ्च गुरु पाद-मूल ।
करने अब तक के पाप धूल ।।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत-सिद्धा-चार्यो
पाध्याय सर्व-साधुभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*श्री जिन-सहस्र-नाम का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिनवर इक हजार आठ नाम ।
रत ‘सु-मरण’ गुजरें तीन शाम ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिन-
अष्टकाधिक सहस्र नामेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*जिनवाणी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिन-देव मुखोद्-भूत माता ।
दो जोड़ ज्ञान-केवल नाता ।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि तत्त्वार्थ-सूत्र-दशाध्याय
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*आचार्य श्री जी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
निर्ग्रन्थ तीन कम नव करोड़ ।
दो सुख अबाध से डोर जोड़ ।।
ॐ ह्रीं आचार्य श्रीविद्यासागरादि-
त्रिन्यून-नव-कोटी मुनि-वरेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पूजा-प्रतिज्ञा-पाठ*
अभ्यर्चित मूल संघ जैसी ।
विधि पूजन अपनाऊँ वैसी ।।
अरिहन्त सिद्ध आचार-वन्त ।
करके वन्दन उवझाय सन्त ।।
नित करें जगत् गुरुवर मंगल ।
नित करें जगत पल-पल मंगल ।।
नित करें चतुष्क-नन्त मंगल ।
नित करें चतुष्क-वन्त मंगल ।।
नित करें वंश-मति-हर मंगल ।
नित करें हंस-मति-धर मंगल ।।
नित करें विपद्-मोचन मंगल ।
नित करें जगत्-लोचन मंगल ।।
इक आप जितेन्द्रिय मैं दूजा ।
हो सकूँ, आप ठानूँ पूजा ।।
आठों द्रव्यों को लिये हाथ ।
भावों की शुचिता लिये साथ ।।
संचित अब-तलक पुण्य अपना ।
तुम केवल-ज्ञान रूप अगना ।।
जो, उसमें करता आज होम ।
बन साध, साध लूँ जाप ओम् ।।
ॐ ह्रीं विधि-यज्ञ-प्रतिज्ञानाय
जिन-प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*स्वस्ति-मंगल-पाठ*
वृषभ स्वस्ति ।
अजित स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सम्भव जिन ।
स्वस्ति-स्वस्ति अभिनन्दन ।
सुमत स्वस्ति ।
पदम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सुपार्श्व धन ।
स्वस्ति-स्वस्ति चन्द्र-लखन ।
सुविध स्वस्ति ।
शीतल स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति श्रेयस् दूज ।
स्वस्ति-स्वस्ति वासव-पूज ।
विमल स्वस्ति ।
अनन्त स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति नाथ-धरम ।
स्वस्ति-स्वस्ति शान्त-परम ।
कुन्थ स्वस्ति ।
अरह स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति मल्ल-जगत ।
स्वस्ति-स्वस्ति मुनि-सुव्रत ।
नमि स्वस्ति ।
नेम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति पार्श्व-गभीर ।
स्वस्ति-स्वस्ति सन्मत-वीर ।
इति श्री-चतु-र्विंशति-तीर्थंकर
स्वस्ति मंगल-विधानं
पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*परमर्षि-स्वस्ति-पाठ*
धन ! केवल-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।
मन-पर्यय-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।।
धर-अवधि-ज्ञान जागृत पल-पल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर ऋद्धि एक कोष्-ठस्थ नाम ।
इक बीज पदनु-सारिणि प्रणाम ।।
धर सम्-भिन्-नन, सन्-श्रोतृ, सकल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
संस्पर्श, श्रवण, दूरास्वादन ।
धर-ऋद्धि दूरतः अवलोकन ।।
धर-दूर-घ्राण जल-भिन्न-कमल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
दश-चार ‘पूर्व’ दश बुध-प्रतेक ।
बुध-महा-निमित-अष्टांग एक ।।
धर-प्रज्ञा-श्रमण प्रवादि अचल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल।।
धर-जंघा-चारण, तन्तु, अगन ।
बीजांकुर-चारण, पुष्प-गगन ।।
पर्वत, श्रेणी ‘चारण’ जल-फल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-अणिमा, महिमा ऋद्धि एक ।
धर-गरिमा, लघिमा ऋद्धि नेक ।।
धर-ऋद्धि वचन, काया, मन, बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
वशि अन्तर्-धानिक काम-रूप ।
अप्-प्रती-घात आप्तिक अनूप ।।
प्राकाम्य-ऋद्धि-धर, नैन-सजल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-दीप्त, तप्त, ब्रम-चर्य-घोर ।
मह-दुग्र, घोर, धर-वर्य-घोर ।।
थित-घोर-पराक्रम बल-निर्बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
आमर्ष सर्व-विष आशि-अविष ।
औषध-क्ष्वेल, विष-दृष्टि-अविष ।।
विड्-औषध, औषध-जल्लरु-मल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
अक्षीण-महानस, घृत-स्रावी ।
अक्षीण-संवास, अमृत-स्रावी ।।
इक ‘सहज-निराकुल’ हृदय-सरल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
इति परमर्षि स्वस्ति-मंगल-विधान
पुष्पांजलि
‘पूजन’
तुम सुनते भक्त पुकार ।
साँचा तेरा दरबार ।।
दे दस्तक हारा हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
बारी इस बार हमार ।
बेड़ा दो पार उतार ।।
हो चले लाख उस पार ।
साँचा तेरा दरबार ।।
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
उधड़ी तुरपाई जेब ।
उखड़ी तर-‘पाई’ जेब ।।
लाया दृग् धारा हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं दारिद्र निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
महँगी हल्दी की गाँठ ।
पीले कब जल्दी हाथ ।।
रस मलयज लाया हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं वैवाहिक बाधा निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
घर बैठे बाल-गुपाल ।
छाया रुजगार अकाल ।।
कण अक्षत लाया हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं आजीविका बाधा निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
हा ! कोट कचहरी भाग ।
लागा चूनर में दाग ।।
गुल मंजुल लाया हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कर दवा, गया हूँ हार ।
रोगों की लगी कतार ।।
घृत व्यञ्जन लाया हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फिर आता माथे हाथ ।
रूठी सी सरसुति मात ।।
मण दीपक लाया हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हा ! चले नवग्रह रूठ ।
माया, रज-मोहन, मूठ ।।
अन सुगंध लाया हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं टुष्टविद्या निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थी प्यारी, बड़ी अजीज ।
चोरी हो चाली चीज ।।
ऋत-ऋत फल लाया हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं इष्ट वियोग निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रस्ते कण्टक अनुबन्ध ।
हा ! ‘शू’-साइड संबन्ध ।।
गुल-तण्डुल लाया हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं अपमृत्यु-अल्पमृत्यु निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘कल्याणक अर्घ’
खोया आमोद प्रमोद ।
सूनी बहुरानी गोद ।
भू मर्त्य रत्न बरसात ।
लागे सपने माँ हाथ ।।
दे दस्तक हारा हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण अष्टम्यां
गर्भ कल्याणक-प्राप्ताय
अकुटुम्ब बाधा निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
झोली भव मानस घाट ।
बक पीछे बारा-बाट ।।
पा गया मेर अभिषेक ।
‘अख सहस’ सार्थ अभिलेख ।।
दे दस्तक हारा हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं माघ कृष्ण द्वादश्यां
जन्म कल्याणक-प्राप्ताय
मानस विकार निवारकाय
श्री शीतल-नाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मन भावन दीक्षा रोज ।
सर पृष्ठ न उतरे बोझ ।।
पा गया केश जल क्षीर ।
पा गये प्रजा दृग् नीर ।।
दे दस्तक हारा हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं माघ कृष्ण द्वादश्यां
दीक्षा कल्याणक प्राप्ताय
सिद्ध साक्षि दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आई नौबत नीलाम ।
चक्के दुकान के जाम ।।
समशरणा हिरणा शेर ।
धुन दिश्-दश साँझ-सबेर ।।
दे दस्तक हारा हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं पौष्य-कृष्ण-चतुर्दश्यां
ज्ञान कल्याणक प्राप्ताय
व्यापार बाधा निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अपने हो चाले गैर ।
सपने भी साधें वैर ।।
आलोक और शिव लोक ।
मग लगे, कर्म दे ढ़ोक ।।
दे दस्तक हारा हूँ ।
किस्मत का मारा हूँ ।।
ॐ ह्रीं अश्विन-शुक्ल-अष्टम्यां
मोक्ष कल्याणक प्राप्ताय
बन्धुजन-कृत बाधा निवारकाय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘विधान प्रारंभ’
खत्म कहानी ।
आनी जानी ।।
सुन भवि प्राणी, शीतल वाणी ।
छव अभिरामी ।।
अन्तर्यामी ।।
जय शीतल जय शीतल स्वामी ।।
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
‘बीजाक्षर सहित मूल नवार्घ’
जय अरिहन्ता ।
सिद्ध अनन्ता ।।
आ-उ महन्ता ।
जय निर्ग्रन्था ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ
अक्षर असिआ उसा नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिन आभरणा ।
सिद्ध सुमरणा ।।
मंगल श्रमणा ।
‘सन्मत’ करुणा ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं ए ऐ ओ औ अं अः
अक्षर चतुर्विध मंगलाय नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिन भगवन्ता ।
सिद्ध अनन्ता ।।
उत्तम सन्ता ।
माहन पन्था ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अक्षर चतुर्विध लोकोत्तमाय नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अरि विध्वंसा ।
अक्षर वंशा ।।
‘मानस’ हंसा ।
शरण अहिंसा ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अक्षर चतुर्विध शरणाय नमः
दक्षिण-दिशि अर्घ निर्वापमिति स्वाहा ।।
गुण अगणन्ता ।
दृग्-बल वन्ता ।।
ज्ञान अनन्ता ।
सुख सामन्ता ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अक्षर शीतल जिनेन्द्राय नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुल बरसाता ।
दुन्दुभि नादा ।।
अर तर ‘छाता’ ।
चीन विधाता ।।
अर सिंह पीठा ।
भा जित-दीठा ।।
चँवर पुनीता ।
भव-हर गीता ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अक्षर शीतल जिनेन्द्राय नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।।
अर संस्थाना ।
लाञ्छन नाना ।।
संहनन वाणा ।
छव बलवाना ।।
रुधिर सुफेदा ।
गत-मल-स्वेदा ।।
सुरभित देहा ।
निस्-संदेह ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अक्षर शीतल जिनेन्द्राय नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थिर नख केशा ।
दय अनिमेषा ।।
क्षुधा न क्लेशा ।
खिल विद्येशा ।।
सुभिख अछाया ।
मुख-चउ माया ।।
गमन बताया ।
‘नभ’ जिनराया ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अक्षर शीतल जिनेन्द्राय नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘सुर’ जल गन्धा ।
‘ऋत’ भू-नन्दा ।।
दर्प’ण ‘पन्था’ ।
पद्य सुगन्धा ।।
वृष वृत भाषा ।
दिग् आकाशा ।।
अन वाताशा ।।
मैत्री वासा ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अक्षर शीतल जिनेन्द्राय नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम वलय पूजन विधान की जय
‘अनन्त चतुष्टय’
दृग् विख्याता ।
कर्म विघाता ।।
सुदर्श नाता ।
जयतु विधाता ।।१।।
ॐ ह्रीं अनन्त-दर्शन मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ज्ञानावरणा ।
हुआ विघटना ।।
हुआ प्रकटना ।
ज्ञानाभरणा ।।२।।
ॐ ह्रीं अनन्त-ज्ञान मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘अन्तर’ हन्ता ।
प्रकट तुरन्ता ।।
वीर्य अनन्ता |
जय भगवन्ता ।।३।।
ॐ ह्रीं अनन्त वीर्य मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मोह विहीना ।
सुख अनचीना ।।
ज्ञान नवीना ।
एक प्रवीणा ।।४।।
ॐ ह्रीं अनन्त सुख मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुण अगणन्ता ।
दृग्-बल वन्ता ।।
ज्ञान अनन्ता ।
सुख सामन्ता ।।
जल, धाँ-शाली ।
फल, गुल-क्यारी ।।
गन्ध, दिवाली ।
चरु, घृत-वाली ।।
शिव सुख-कारी ।
भव दुख-हारी ।।
भेंटूँ न्यारी ।
दरब पिटारी ।।
ॐ ह्रीं अनन्त-चतुष्टय मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
द्वितीय वलय पूजन विधान की जय
‘अष्टप्रातिहार्य’
चंदा तारे ।
झालर वाले ।।
छत्र निराले ।
जय जय कारे ।।१।।
ॐ ह्रीं छत्र-त्रय मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रत्न पिटारा ।
स्वर्ण निराला ।।
शेरों वाला ।
आसन थारा ।।२।।
ॐ ह्रीं सिंहासन मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सप्त भवाली ।
भा-वृत न्यारी ।।
भान पिटारी ।
शशि मन हारी ।।३।।
ॐ ह्रीं भामण्डल मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वारे न्यारे ।
‘सुर’ ले ठाड़े ।।
झिलमिल तारे ।
चँवर निराले ।।४।।
ॐ ह्रीं चामर मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जग कल्याणी ।
निध वरदानी ।।
ज्ञानी ध्यानी ।
सुर’भी’ मानी ।।५।।
ॐ ह्रीं दिव्य-ध्वनि मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुर बागाना ।
ले गुल नाना ।।
झड़ी लगाना ।
दृश्य सुहाना ।।६।।
ॐ ह्रीं पुष्प-वृष्टि मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ढ़ोल नगाड़े ।
बाजे सारे ।।
ले ‘सुर’ न्यारे ।।
पुण्य सहारे ।।७।।
ॐ ह्रीं देवदुन्दुभि मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अर आलोका ।
तर प्रद मोखा ।।
वृक्ष अशोका ।
पुण्य अनोखा ।।८।।
ॐ ह्रीं वृक्ष अशोक मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुल बरसाता ।
दुन्दुभि नादा ।।
अर तर ‘छाता’ ।
चीन विधाता ।।
अर सिंह पीठा ।
भा जित-दीठा ।।
चँवर पुनीता ।
भव-हर गीता ।।
जल, धाँ-शाली ।
फल, गुल-क्यारी ।।
गन्ध, दिवाली ।
चरु, घृत-वाली ।।
शिव सुख-कारी ।
भव दुख-हारी ।।
भेंटूँ न्यारी ।
दरब पिटारी ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-प्रातिहार्य-मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तृतीय वलय पूजन विधान की जय
‘जन्मातिशय’
पद गज रेखा ।
ध्वज, शशि लेखा ।।
लाखन नेका ।
श्रुत अभिलेखा ।।१।।
ॐ ह्रीं ‘लाखन’ गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देह न काँचा ।
पुण्य अयाँचा ।।
वज्र नराचा ।
विरषभ वाँचा ।।२।।
ॐ ह्रीं धन ! संहनन मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
परिमित वयना ।
पर हित वयना ।।
अर मिठ वयना ।
संस्कृत वयना ।।३।।
ॐ ह्रीं बोल अमोल मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
समचतु रस्रा ।
चल अन्यत्रा ।।
सामुद पत्रा ।
ढ़ोक सहस्रा ।।४।।
ॐ ह्रीं छटा संस्थाँ मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बड़ी सुहानी ।
छव लासानी ।।
पानी पानी ।
लख शश रानी ।।५।।
ॐ ह्रीं सुन्दर, तन मन्दर मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फूँक उड़ाया ।
पर्वत माया ।।
बल बतलाया ।
अतुल समाया ।।६।।
ॐ ह्रीं संबल मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तोरा मोरा ।
अबकी छोडा ।।
रग लहु दौड़ा ।
गोरा गोरा ।।७।।
ॐ ह्रीं सित शोणित मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
स्वर्ग उतारा ।
छक आहारा ।।
विगत निहारा ।
जय जय कारा ।।८।।
ॐ ह्रीं निर्मल गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बिन्दु पसीना ।
एक कहीं ना ।।
सहजो जीना ।
संध्या तीना ।।९।।
ॐ ह्रीं हीन पसीन गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नन्दन छूटी ।
रह-रह फूटी ।।
चन्दन झूठी ।
गन्ध अनूठी ।।१०।।
ॐ ह्रीं सौरभ गौरव मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अर संस्थाना ।
लाञ्छन नाना ।।
संहनन वाणा ।
छव बलवाना ।।
रुधिर सुफेदा ।
गत-मल-स्वेदा ।।
सुरभित देहा ।
निस्-सन्देह ।।
जल, धाँ-शाली ।
फल, गुल-क्यारी ।।
गन्ध, दिवाली ।
चरु, घृत-वाली ।।
शिव सुख-कारी ।
भव दुख-हारी ।।
भेंटूँ न्यारी ।
दरब पिटारी ।।
ॐ ह्रीं दश-जन्मातिशय मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चतुर्थ वलय पूजन विधान की जय
केवलज्ञानातिशय
जैसा वैसा ।
नख परिवेशा ।।
बढ़े न केशा ।
ज्ञान विशेषा ।।१।।
ॐ ह्रीं नग केश-नख गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
केशर हिरणा ।
अर सम शरणा ।।
अक्षर करुणा ।
ज्ञान अछरणा ।।२।।
ॐ ह्रीं ‘मा-हन्त’ गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
निरखत जग-ती ।
पलक न झपती ।।
आत्म झलकती ।
परिणत जगती ।।३।।
ॐ ह्रीं झलक अपलक गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धवला धारा ।
निज आधारा ।।
क्यों कर यारा ।
कवलाहारा ।।४।।
ॐ ह्रीं अन अनशन गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुम उपसर्गा ।
गुम-सुम स्वर्गा ।।
तिय अपवर्गा ।
थके न गुण गा ।।५।।
ॐ ह्रीं ‘हन विघन’ गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अँखिंयाँ तींजीं ।
अँखिंयाँ भींजीं ।।
निधिंयाँ रीझीं ।
रिधिंयाँ सीझीं ।।६।।
ॐ ह्रीं ‘विद्यालय’ गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ईति न गन्धा ।
भीति न सन्धा ।।
स्वर्ण सुगन्धा ।
परमा-नन्दा ।।७।।
ॐ ह्रीं इक सुभिख गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेज समाया ।
‘खोया’ पाया ।।
काया छाया ।
खोई माया ।।८।।
ॐ ह्रीं छाया माया गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मुख चउ तरफा ।
सुख चउ तरफा ।।
ज्ञान अखर पा ।
जश इक तरफा ।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुख प्रतिभा गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अंगुल चारा ।
गगन विहारा ।।
साँचा द्वारा ।
तारणहारा ।।१०।।
ॐ ह्रीं ‘गगन-चरन’ गुण मण्डिताय
श्री शीत जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थिर नख केशा ।
दय अनिमेषा ।।
क्षुधा न क्लेशा ।
खिल विद्येशा ।।
सुभिख अछाया ।
मुख-चउ माया ।।
गमन बताया ।
‘नभ’ जिनराया ।।
जल, धाँ-शाली ।
फल, गुल-क्यारी ।।
गन्ध, दिवाली ।
चरु, घृत-वाली ।।
शिव सुख-कारी ।
भव दुख-हारी ।।
भेंटूँ न्यारी ।
दरब पिटारी ।।
ॐ ह्रीं दश केवल-ज्ञानातिशय मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पंचम वलय पूजन विधान की जय
‘देवकृतातिशय’
यहाँ पधारे ।
तारणहारे ।।
इक सुर न्यारे ।
गूँजे नारे ।।१।।
ॐ ह्रीं स्वर सुर गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हल्की हल्की ।
बरषा जल की ।।
नासा सुरकी ।
माया सुर की ।।२।।
ॐ ह्रीं मोहक गन्धोदक गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
महक निराली ।
गुल ऋत क्यारी ।।
फल ऋत वाली ।
डाली डाली ।।३।।
ॐ ह्रीं ऋत-ऋत गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रग रग ओ’मा ।
गद-गद रोमा ।।
परणति सौमा ।
उप-क्रम व्योमा ।।४।।
ॐ ह्रीं साध आह्लाद गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दर्पण वसुधा ।
दर्प न बस ध्याँ ।।
गहरी सरधा ।
अतिशय सुर दा ।।५।।
ॐ ह्रीं फर्श आदर्श गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुर गंधर्वा ।
मंगल सर्वा ।।
निर्धन, धनवाँ ।
झूमे मनवा ।।६।।
ॐ ह्रीं वस मंगल गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धूल विलाई ।
शूल बिदाई ।।
स्वर्ग लजाई ।
पथ सुखदाई ।।७।।
ॐ ह्रीं ‘मा-रग’ गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अवसर गमना ।
सुर कृत रचना ।।
नन्दन सुमना ।
वन्दन सु-मना ।।८।।
ॐ ह्रीं पद पद्म गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आगे चाले ।
सुर रखवाले ।।
वृष-वृत न्यारे ।
सहस्र आरे ।।९।।
ॐ ह्रीं अग्र धर्मचक्र गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बिन आयासा ।
सुगम्य आसाँ ।।
शारद भासा ।
मागध भाषा ।।१०।।
ॐ ह्रीं भाष अध-मागध गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अद्भुत झूमा ।
विरहित धूमा ।।
यथा कहूँ ना ।
दिश्-दश घूमा ।।११।।
ॐ ह्रीं ‘दिशा’ गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गत घन श्यामा ।
शारद नामा ।।
निर्मल धामा ।
नभ अभिरामा ।।१२।।
ॐ ह्रीं मगन गगन गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मन्दा मन्दा ।
प्रद आनन्दा ।।
मरुत सुगन्धा ।
जयतु जिनन्दा ।।१३।।
ॐ ह्रीं ह-वा…वा-ह गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिव्य नजारा ।
भाई चारा ।।
भू परिवारा ।
मैत्री धारा ।।१४।।
ॐ ह्रीं ‘मै-त्र’ ‘गुण मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘सुर’ जल गन्धा ।
‘ऋत’ भू-नन्दा ।।
दर्प’ण ‘पन्था’ ।
पद्य सुगन्धा ।।
वृष वृत भाषा ।
दिग् आकाशा ।।
अन वाताशा ।
मैत्री वासा ।।
जल, धाँ-शाली ।
फल, गुल-क्यारी ।।
गन्ध, दिवाली ।
चरु, घृत-वाली ।।
शिव सुख-कारी ।
भव दुख-हारी ।।
भेंटूँ न्यारी ।
दरब पिटारी ।।
ॐ ह्रीं चतुर्दश देव-कृतातिशय मण्डिताय
श्री शीतल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयमाला लघु चालीसा
‘दोहा’
सार्थ नाम ‘रिश्ता’ रखे,
ऐसी ही कब बात ।
एक बार प्रभु हाथ में
देखो देकर हाथ ।।
दया बरसात करते तुम ।
नया वर साथ करते तुम ।।
खाली हाथ न लौटाते ।
पन्ने-पन्ने बतलाते ।।१।।
हो तुम कुछ हटके जग में ।
बहती करुणा रग-रग में ।।
होते भक्त आँख मोती ।
देखा आप आँख रोती ।।२।।
मेंढ़क जन्म विमानों में ।
आया लेख पुराणों में ।।
आया लेख पुराणों में ।
नन्दी राज-घरानों में ।।३।।
दया बरसात करते तुम ।
नया वर साथ करते तुम ।।
खाली हाथ न लौटाते ।
पन्ने-पन्ने बतलाते ।।४।।
हो तुम कुछ हटके जग में ।
बहती करुणा रग-रग में ।।
होते भक्त आँख मोती ।
देखा आप आँख रोती ।।५।।
बदली आगी जल धारा ।
अक्षर लेख वज्र द्वारा ।।
अक्षर लेख वज्र द्वारा ।
बदले नाग सुमन माला ।।६।।
दया बरसात करते तुम ।
नया वर साथ करते तुम ।।
खाली हाथ न लौटाते ।
पन्ने-पन्ने बतलाते ।।७।।
हो तुम कुछ हटके जग में ।
बहती करुणा रग-रग में ।।
होते भक्त आँख मोती ।
देखा आप आँख रोती ।।८।।
चन्दन सब बन्धन टूटे ।
जश अभिलेख अमिट लूटे ।।
जश अभिलेख अमिट लूटे ।
अञ्चन भव बन्धन छूटे ।।९।।
स्वामिन् हूँ मैं भी दुखिया ।
अँखिंयाँ बन चालीं दरिया ।।
सहज निरा’कुल कर लो ना ।
अब दुख-दर्द सहन हो ना ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री शीतल जिनेन्द्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘दोहा’
नाम न यूँ ही चल पड़े,
देखा जाता काम ।
छू पद रज, छू दाह-भौ,
सार्थक शीतल नाम ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
*शांति पाठ*
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्श्री शांति-भक्ति कायोत्सर्गम् ,
करोम्यहम्
(९ बार णमोकार )
*चौपाई*
दर्शन मात्र मेंटता दुखड़ा ।
भाँत चन्द्रमा सुन्दर मुखड़ा ।।
नासा टिके नैन मनहारी ।
करें वन्दना नाथ ! तुम्हारी ।।
आप चक्रधर-पञ्चम नामी ।
वन्द्य इन्द्र शत, अन्तर्-यामी ।।
प्रभो शान्ति-जिन करके करुणा ।
करो शान्ति ! जश निरखो अपना ।।
छत्र, सिंहासन, वृक्ष-अशोका ।
धुनि, दुन्दुभि, दल-चँवर अनोखा ।।
भा-मण्डल झिर-पुष्प-अनूठी ।
प्रातिहार्य-वसु आप विभूती ।।
अर्चित-जगत् ! शान्ति करतारी ।
ढ़ोक करो स्वीकार हमारी ।।
प्राण-भूत, सत्, जीव समस्ता ।
पायें परिणति शान्त प्रशस्ता ।।
देवों में जो देव बड़े हैं ।
चरणों में हित सेव खड़े हैं ।।
हंस-वंश वे जग उजियारे ।
करें शान्ति मण्डित जग सारे ।।
(निम्न श्लोक को पढ़कर
जल छोड़ना चाहिए)
शान्ति कीजिये गाँव-गाँव में ।
विश्व लीजिये पाँव-छाँव में ।।
डूब ‘साध-जन’ उतरें गहरे ।
लहर लहर-पचरंगा लहरे ।।
नृप धार्मिक बलशाली होवे ।
विकृति-प्रकृति मनमानी खोवे ।।
धर्म-चक्र-जिन सौख्य प्रदाता ।
रहे प्रवाहित यूँ हि विधाता ।।
द्रव्य सुमंगल-कारी होवे ।
क्षेत्र अमंगल-हारी होवे ।।
होवे काल सुमंगल-कारी ।
होवें भाव अमंगल-हारी ।।
कर्मन-घात घात मद सारा ।
सहजो सिद्ध रिद्ध परिवारा ।।
आदि आदि अर्हन् चौबीसा ।
शान्ति प्रदान करें निशि दीसा ।।
*दोहा*
किया शान्ति जिन भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
पाँच सभी कल्याणक धारी ।
आठ प्राति-हारज मन-हारी ।।
अतिशय तीस चार मण्डित हैं ।
अर बत्तीस इन्द्र वन्दित हैं ।।
चौ-विध संघ नखत मानिन्दा ।
राम श्याम चक्री, प्रभु ! चन्दा ।।
‘निलय-विनय’ अन-गिनत गभीरा ।
आद-आद जिन अंतिम वीरा ।।
अर्चन-पूजन-वन्दन करता ।
उनका मैं अभिनन्दन करता ।।
पीड़ा-दुक्ख-दरद-भय खोवे ।
मेरे कर्मों का क्षय होवे ।।
रत्नत्रय का मुझे लाभ हो ।
मेरी ‘गति-पंचम-उपाध’ हो ।।मृत्यु-महोत्सव मना सकूँ मैं ।
जिन-गुण-सम्पद् कमा सकूँ मैं ।।
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्
श्री समाधि-भक्ति कायोत्सर्गम्
करोम्यहम्
(९बार णमोकार )
*चौपाई*
सदा शास्त्र अभ्यास करूँ मैं ।
सन्त समीप निवास करूँ मैं ।।
मौन धरूँ क्यूँ, गुणी दिखाये ।
गौण करूँ, यूँ दोष-पराये ।।
भावन-आत्म तत्व, नम-नयना ।
हित-मित रखूँ मधुरतम वयना ।।
जब तक राधा-मुक्ति रिझाऊँ ।
इन्हें जन्म जन्मान्तर पाऊँ ।।
तारण हारे……शरण सहारे ।
हृदय हमारे….चरण तुम्हारे ।।
चरण तुम्हारे….हृदय हमारा ।
रहे, तलक जब भव-जल-धारा ।।
स्वर-अक्षर पद मात्रा गलती ।
हुईं, चाहते बिन अनगिनती ।।
हो अपराध क्षमा यह मेरा ।
‘जैसा भी’ मैं अपना तेरा ।।
*दोहा*
किया समाधी, भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञाना ।
सम्यक्-चारित, ताना-बाना ।।
रूप अनूप ध्यान परमातम ।
बुद्ध-विशुद्ध ज्ञान धर आतम ।।
पूजन नित वन्दन करता हूँ ।
अर्चन अभिनन्दन करता हूँ ।।
क्षय होवें दुख संकट सारे ।
क्षय हो जावें कर्म हमारे ।।
मुझे लाभ रत्नत्रय होवे ।
सुगति गमन, भय-सप्तक खोवे ।।
पाऊँ मरण-समाधी स्वामी ।
बनूँ रतन जिन-गुण आसामी ।।
‘पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्’
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र
पढ़ना चाहिए )
*विसर्जन पाठ*
अंजन को पार किया ।
चंदन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।
अगनी ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।
( निम्न श्लोक पढ़कर
विसर्जन करना चाहिये )
*दोहा*
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
‘आरती’
कर्पूरी बतिया
सोने की थरिया
पून शश उजाला
रतन दीप माला
शीतल प्रभु की आरतिया
मैं तो उतारूँ ‘रे
‘मैं’ को संहारूँ ‘रे
आरतिया पहली
रत्न झिर रुपहली
हुये अपने सपने मैय्या
मैं तो उतारूँ ‘रे
शीतल प्रभु की आरतिया
आरतिया दूजी
किलकारी गूँजी
न्हवन सुमेर शचि साँवरिया
मैं तो उतारूँ ‘रे
शीतल प्रभु की आरतिया
आरतिया तीजी
दृग् भीतर भींजी
हो चले सवार शिव नैय्या
मैं तो उतारूँ ‘रे
शीतल प्रभु की आरतिया
आरतिया चौथी
अबुझ ज्ञान ज्योती
धुनि भव-गद औषध शर्तिया
मैं तो उतारूँ ‘रे
शीतल प्रभु की आरतिया
आरतिया पाँची
पाई निध साँची
सहजो-निरा’कुल सुख रसिया
मैं तो उतारूँ ‘रे
शीतल प्रभु की आरतिया
वृहद चालीसा
दोहा
आ बाहर कभी स्वप्न से,
दे दो आशीर्वाद ।
दूजी और मुराद ना,
ना कोई फरियाद ।।
चौपाई
नगर सुसीमा ‘वत्स’ सनेहा ।
पुष्कर-अर्ध-पूर्व वैदेहा ।।
भव यह पिछला तीजा जानो ।
नाम वहाँ सिद्धार्थ पिछानो ।।१।।
वर्ण, स्वर्ण के जैसा दीखे ।
ग्यारह-अंग इन्होंने सीखे ।।
थे मांडलिक यहाँ पर राजा ।
बाद श्रमण भव-जलधि-जहाजा ।।२।।
शगुन नेक सद्-गुण आभरणा ।
व्रत सिंह निष्क्रीड़ित आचरणा ।।
धन ! प्रायोपगमन सन्यासी ।
इन्द्र, स्वर्ग आरण अधिशासी ।।३।।
‘गर्भ पर्व’ छह महीने पहले ।
रत्न बरसने लगे रुपहले ।।
लिये हाथ में भेंट अनोखी ।
माँ सेविका देवि-देवों की ॥४।।
नृपवर दृढ़रथ आप समाना ।
प्रजा मात-पित दया निधाना ।।
नगर भद्रिला पुर रजधानी ।
नाम सुनन्दा इक पटरानी ।।५ ।।
सपने लगे हुये से अपने ।
देखे माँ ने सोलह सपने ।।
मानो कोई बाल पुकारे ।
“जागो माँ हम आये द्वारे”।।६।।
गर्भ चैत्र कृष्णा दिन आठें ।
रिख पूर्वाषाढ़ा बतला दें ।।
मालव देश स्वर्ग से आये ।
कुल इक्ष्वाकु प्रदीप कहाये ।।७।।
माघ कृष्ण दिन बारस जनमें ।
स्वर्ग उत्तर आया भू छिन में ।।
‘जनमत’ विश्व योग विख्याता ।
जुड़ा राशि इक धनु से नाता ।।८।।
पूर्वाषाढ़ा रिख अवतारी ।
आभा तप्त स्वर्ण मनहारी ।।
शचि आई, बालक को लाई ।
अवतारी भव-एक कहाई ।।९।।
हिवरा फूला नहीं समाया ।
बाल गोद सौधर्म थमाया ।।
पार रुप कब नेत्र सफीने ।
नेत्र हजार इन्द्र ने कीने ।।१०।।
ऐरावत की किस्मत जागी ।
सेवा हाथ भागवत लागी ।।
रच सुमेर अभिषेक अनोखा ।
सुर-गण पुण्य कमाया चोखा ।।११।।
पैर उखड़ते दीखे यम के ।
नृत्य किया ताण्डव फिर जमके ।।
यादगार ये दृश्य अनूठे ।
चीन कल्प तर पाँव अँगूठे ।।१२।।
बढ़ने लगे दूज चन्दा से ।
निष्कलंक शशि पूनम भासे ।।
दर्श मात्र अपहारक-पीडा ।
धनु ‘नव-नाम’ उतुंग शरीरा ।।१३।।
पूर्व सहस पच्चीस कुमारा ।
लाख एक पूरब वय धारा ।।
जय, निमित्त हिम नाश बनाया ।
यह संसार जान के माया ।।१४।।
बारह सभी भावना भाये ।
देव तभी लौकान्तिक आये ।।
”विरला थामे केतु-अहिंसा” ।
लगे बाँधने सेतु-प्रशंसा ।।१५।।
बिन ओड़े दैगम्बर-बाना ।
भ्रम व्रत-मन्दिर कलश चढ़ाना ।।
देव-शास्त्र-गुरु का कहना है ।
संयम भव-मानव गहना है ।।१६।।
केवल नयन न, मन-मन भाई ।
शिविका शुक्र प्रभा दिव आई ।।
शीतल अधिप पधारे आ के ।
हर्षाये सुर-असुर उठा के ।।१७।।
पुर परिजन ने दूर तलक आ ।
किया विदा निज-नैन-उदक ला ।।
नगर भद्रिला जाना माना ।
रम्य सहेतुक तप उद्याना ।।१८।।
मुँह लग वृक्ष गगन बतियाई ।
धनु सहसर अस्सी ऊँचाई ।।
साथ सहस राजे महराजे ।
तर पलाश तर आन विराजे ।।१९।।
‘णमो सव्व सिद्धाणं’ बोला ।
दिया उतार राजसी चोला ।।
पंच मुष्टी लुंचन अपना के ।
खड़े हो गये ध्यान लगा के ।।२०।।
दीक्षा माघ कृष्ण द्वादशमी ।
अपराह्निक छवि रवि खर रश्मी ।।
पूर्वाषाढ़ रिक्ष तप न्यारा ।
षष्टम-भक्त नियम उर-धारा ।।२१।।
विसर पूर्व-भव-तापस शेखी ।
लगा टक-टकी नासा देखी ।।
कर अफसोश दोष-कृत पिछले ।
हरकत बिना तीन दिन निकले ।।२२।।
रखे दर्श-मुनि हित बेशबरी ।
बहु चर्चित अरिष्ट पुर नगरी ।।
हेत पारणा आये स्वामी ।
राजा सहजो-नन्दन नामी ।।२३।।
नवधा भक्ति से पड़गाया ।
गो-क्षीरान्न अहार कराया ।।
पुण्य सातिशय अबकि बोने ।
पञ्चाश्चर्य किये देवों ने ।।२४।।
बीते तीस और छै मासा ।
गले उतार ध्यान परिभाषा ।।
बस अन्तर्मुहूर्त इक लागा ।
सुप्त चतुष्टय-अनन्त जागा ।।२५।।
कृष्णा पौष्य चतुर्दश न्यारी ।
अपराह्निक बेला सुखकारी ।।
नियम धारणा धारी बेला ।
उक्त पूर्व रिख वाली बेला ।।२६।।
विपिन मनोहर छव लासानी ।
बिल्व वृक्ष तर केवल ज्ञानी ।।
ऊँचाई धनु मानस्तंभा ।
सहसर अशीति धुनि जगदम्बा ।।२७।।
कोट उँचाई यही बताई ।
चैत्य ‘वृक्ष’ सिद्धार्थ गुसाईं ।।
गिरि-तोरण भी इतने ऊँचे ।
इतने ऊँचे ध्वज नभ गूँजे ।।२८।।
वेदिस्-तूप न इससे ज्यादा ।
विस्तृत इतने ही प्रासाद ।।
कोट वेदि सम-शरणा साँची ।
पृथु शत-जुग सत्तर धनु वाँची ।।२९।।
बीसर शत-सत धनु गिर चौड़े ।
तूप धनुष नब्बे अर चौड़े ।।
युजन ‘सतर्ध’ प्रमाण सभा का ।
कोस तीस अर-‘मान’ सभा का ।।३०।।
सिंहासन पद्मासन माड़े ।
चौषठ चँवर लिये सुर ठाड़े ।।
छतर तीन सिर-ऊपर डोलें ।
देव-दुन्दुभि मिसरी घोलें ।।३१।।
भामण्डल भव-भव दर्पण है ।
झिर लग गंधोदक बर्सण है ।।
मन्द-मन्द चाले पवमाना ।
पुष्प-वृष्टि नन्दन बागाना ।।३२।।
तर अशोक तर छटा निराली ।
ध्वनि शिव-स्वर्ग भिंटाने वाली ।।
गुण अनुरूप नाम सम शरणा ।
वैर छोड़ बैठे सिंह-हिरणा ।।३३।।
सहज केवली सात हजारा ।
चौदह सौ धर-पूरब-धारा ।।
सहस द्वादश विक्रिय धारी ।
शतक बहत्तर अवधि प्रभारी ।।३४।।
वादि सहस सत्तावन संखा ।
गुरु हजार उनसठ जुग-शतका ।।
गणि इक्यास रसिक दृग् नासा ।
शतक पचत्तर विपुल प्रकाशा ।।३५।।
गणि अनगार घाट वैतरणी ।
प्रमुख धारणा श्री माँ गणनी ।।
फिर लख तिय अस्सी हज्जारा ।
सीमन्दर मुख श्रोतृ पुकारा ।।३६।।
लाख जुगल सुधि श्रावक शोभें ।
चार-लाख श्राविका सुशोभें ।।
ब्रह्मेत्तर ‘यग-यक्ष’ सुनो जी ।
श्री मानवि यक्षिणी चुनो जी ।।३७।।
निस्पृह सिखला आखर-ढ़ाई ।
मास पूर्व ली सभा विदाई ।।
अश्विन शुक्ल अष्टमी मोखा ।
पूर्वाह्निक रिख वहीं अनोखा ।।३८।।
कूट विदुत-प्रभ गिर सम्मेदा । ।
मुद्रा कायोत्सर्ग समेता ।।
जा पहुँचे शिव समय मात्र में ।
ऋषि-गण सिद्ध हजार साथ में ।।३९।।
चौरासी केवली जिन अनबद्धा ।
सहस अशीति शतक षट् सिद्ध ।।
कहूँ कहाँ तक पार न आता ।
‘सहज-निराकुल’ मौन सुहाता ।।४०।।
दोहा
फिर दर्शन की आश ले,
स्वामि करूँ प्रयाण ।
जल्द दूर हों फासले
दे दो बस वरदान ।।
ॐ ह्रीं श्री शीतल-नाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
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