‘नवग्रह विधान’
*समर्पण भावना*
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
*विनय-पाठ*
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अरिहन्त, सिद्ध, आचारज ।
उवझाय, साधु चरणा-रज ।।
दैगम्बर-प्रतिमा अ-प्रतिम ।
जिन भवन किर-तिमा किर-तिम ।।
नभ-चुम्बी, शिखर-जिनालय ।
पच-रंगी, ध्वज, ग्रन्थालय ।।
समशरण, जिनागम-धारा ।
जिन-धर्म-अहिंसा न्यारा ।।
कल्याण-धरा-रत्नत्रय ।
जिन-सिद्ध-क्षेत्र-‘धर’-अतिशय ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
जिन-वृषभ, अजित, सम्भव-जिन ।
अभि-नन्दन सम्बल दुर्दिन ।।
जिन-सुमति, पदम-प्रभ पाँवन ।
जिन-सुपार्श्व प्रभ-शशि आनन ।।
जिन-पुष्प-दन्त ‘मत’ शीतल ।
जिन-श्रेय-पूज्य बल-निर्बल ।।
जिन-विमल, नन्त-जिन वन्दन ।
जिन-धर्म, शान्ति सुर-नन्दन ।।
जिन-अरह, मल्ल, मुनि-सुव्रत ।
नमि, नेम, पार्श्व, प्रद-सन्मत ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
गुरु गौतम अपूर्व गणधर ।
धर-सेन अंग-पूरब-धर ।।
युग आद-पुराण-प्रणेता ।
पाहुड अध्यात्म रचेता ।।
मत अनेकांत संपोषक ।
सिद्धान्त जैन उद्घोषक ।।
व्यवहार लोक व्याख्याता ।
अनुशासन शब्द विधाता ।।
जित-प्रवाद, ऊरध-रेता ।
पाहुड़-वैद्यिक, अध्येता ।।
कर्तार गणित जैनागम ।
कर्त्ता अगणित जैनागम ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अथ अर्हत् पूजा-प्रतिज्ञायां
पूर्वा-चार्या नुक्रमेण
सकल-कर्म-क्षयार्थं
भावपूजा वन्दनास्तव-समेतं
पंच-महागुरु भक्ति
कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।।
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
ॐ
जय-जय-जय
नमोऽतु-नमोऽतु-नमोऽतु
सब अरिहन्तों को नमस्कार ।
सारे सिद्धों को नमस्कार ।।
आचार्य-वन्दना-उपाध्याय ।
नुति-साध-‘साध’ मन वचन काय ।।
ॐ ह्रीं अनादि-मूल-मंत्रेभ्यो नमः
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
मंगल जग चार, प्रथम अरिहन ।
मंगल शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त मंगल ।
इक दया प्रधान पन्थ मंगल ।।
उत्तम जग चार, प्रथम अरिहन ।
उत्तम शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त उत्तम ।
इक दया प्रधान पन्थ उत्तम ।।
शरणा जग चार, प्रथम अरिहन ।
शरणा शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर साधु-सन्त शरणा ।
इक दया प्रधान पन्थ शरणा ।।
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
थिर-अथिर अपावन पावन भी ।
कारण वशि-भूत अकारण ही ।।
नवकार मंत्र जो ध्याता है ।
कालिख चिर पाप मिटाता है ।।
दे… खो क्रन्दन, भीतर आया ।
देखो अंजन भी’तर’ आया ।।
भा-परमातम सुमरण करता ।
आखिर आतम सु-मरण करता ।।
नवकार मन्त्र यह नमस्कार ।
करता पापों को छार-छार ।।
अपराजित मंत्र यही विरला ।
सब मंगल में मंगल पहला ।।
आ-रती प्रथम अरिहन्तों की ।
आ-रती दूसरी सिद्धों की ।।
आचार्य आ-रति उपाध्याय ।
आ-रती पाँचवी सन्तों की ।।
बीजाक्षर ‘अ’ अरिहन्तों का ।
बीजाक्षर ‘सि’ श्री सिद्धों का ।।
आचारज ‘अ’-‘उ’ उपाध्याय ।
नुति बीजाक्षर ‘सा’ सन्तों का ।।
प्रकटाये आठ शगुन विराट ।
जिनने विघटाये कर्म-आठ ।।
इक वर्तमान वधु-मुक्ति कन्त ।
वे सिद्ध तिन्हें वन्दन अनन्त ।।
*दोहा*
करते ही जिन अर्चना,
भक्ति-भाव भरपूर ।
भीति शाकिनी-डाकिनी,
सर्पादिक विष दूर ।।
‘पुष्पांजलिं क्षिपामि’
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
*पंचकल्याणक अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
भगवज्-जिनेन्द्र कल्याण पञ्च ।
नहिं रहें दूर कल्याण रञ्च ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवतो
गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण पंच-कल्याण-केभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पंच परमेष्ठी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
परमेष्ठि पञ्च गुरु पाद-मूल ।
करने अब तक के पाप धूल ।।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत-सिद्धा-चार्यो
पाध्याय सर्व-साधुभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*श्री जिन-सहस्र-नाम का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिनवर इक हजार आठ नाम ।
रत ‘सु-मरण’ गुजरें तीन शाम ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिन-
अष्टकाधिक सहस्र नामेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*जिनवाणी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिन-देव मुखोद्-भूत माता ।
दो जोड़ ज्ञान-केवल नाता ।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि तत्त्वार्थ-सूत्र-दशाध्याय
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*आचार्य श्री जी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
निर्ग्रन्थ तीन कम नव करोड़ ।
दो सुख अबाध से डोर जोड़ ।।
ॐ ह्रीं आचार्य श्रीविद्यासागरादि-
त्रिन्यून-नव-कोटी मुनि-वरेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पूजा-प्रतिज्ञा-पाठ*
अभ्यर्चित मूल संघ जैसी ।
विधि पूजन अपनाऊँ वैसी ।।
अरिहन्त सिद्ध आचार-वन्त ।
करके वन्दन उवझाय सन्त ।।
नित करें जगत् गुरुवर मंगल ।
नित करें जगत पल-पल मंगल ।।
नित करें चतुष्क-नन्त मंगल ।
नित करें चतुष्क-वन्त मंगल ।।
नित करें वंश-मति-हर मंगल ।
नित करें हंस-मति-धर मंगल ।।
नित करें विपद्-मोचन मंगल ।
नित करें जगत्-लोचन मंगल ।।
इक आप जितेन्द्रिय मैं दूजा ।
हो सकूँ, आप ठानूँ पूजा ।।
आठों द्रव्यों को लिये हाथ ।
भावों की शुचिता लिये साथ ।।
संचित अब-तलक पुण्य अपना ।
तुम केवल-ज्ञान रूप अगना ।।
जो, उसमें करता आज होम ।
बन साध, साध लूँ जाप ओम् ।।
ॐ ह्रीं विधि-यज्ञ-प्रतिज्ञानाय
जिन-प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*स्वस्ति-मंगल-पाठ*
वृषभ स्वस्ति ।
अजित स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सम्भव जिन ।
स्वस्ति-स्वस्ति अभिनन्दन ।
सुमत स्वस्ति ।
पदम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सुपार्श्व धन ।
स्वस्ति-स्वस्ति चन्द्र-लखन ।
सुविध स्वस्ति ।
शीतल स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति श्रेयस् दूज ।
स्वस्ति-स्वस्ति वासव-पूज ।
विमल स्वस्ति ।
अनन्त स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति नाथ-धरम ।
स्वस्ति-स्वस्ति शान्त-परम ।
कुन्थ स्वस्ति ।
अरह स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति मल्ल-जगत ।
स्वस्ति-स्वस्ति मुनि-सुव्रत ।
नमि स्वस्ति ।
नेम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति पार्श्व-गभीर ।
स्वस्ति-स्वस्ति सन्मत-वीर ।
इति श्री-चतु-र्विंशति-तीर्थंकर
स्वस्ति मंगल-विधानं
पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*परमर्षि-स्वस्ति-पाठ*
धन ! केवल-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।
मन-पर्यय-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।।
धर-अवधि-ज्ञान जागृत पल-पल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर ऋद्धि एक कोष्-ठस्थ नाम ।
इक बीज पदनु-सारिणि प्रणाम ।।
धर सम्-भिन्-नन, सन्-श्रोतृ, सकल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
संस्पर्श, श्रवण, दूरास्वादन ।
धर-ऋद्धि दूरतः अवलोकन ।।
धर-दूर-घ्राण जल-भिन्न-कमल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
दश-चार ‘पूर्व’ दश बुध-प्रतेक ।
बुध-महा-निमित-अष्टांग एक ।।
धर-प्रज्ञा-श्रमण प्रवादि अचल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल।।
धर-जंघा-चारण, तन्तु, अगन ।
बीजांकुर-चारण, पुष्प-गगन ।।
पर्वत, श्रेणी ‘चारण’ जल-फल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-अणिमा, महिमा ऋद्धि एक ।
धर-गरिमा, लघिमा ऋद्धि नेक ।।
धर-ऋद्धि वचन, काया, मन, बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
वशि अन्तर्-धानिक काम-रूप ।
अप्-प्रती-घात आप्तिक अनूप ।।
प्राकाम्य-ऋद्धि-धर, नैन-सजल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-दीप्त, तप्त, ब्रम-चर्य-घोर ।
मह-दुग्र, घोर, धर-वर्य-घोर ।।
थित-घोर-पराक्रम बल-निर्बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
आमर्ष सर्व-विष आशि-अविष ।
औषध-क्ष्वेल, विष-दृष्टि-अविष ।।
विड्-औषध, औषध-जल्लरु-मल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
अक्षीण-महानस, घृत-स्रावी ।
अक्षीण-संवास, अमृत-स्रावी ।।
इक ‘सहज-निराकुल’ हृदय-सरल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
इति परमर्षि स्वस्ति-मंगल-विधान
पुष्पांजलि
‘पूजन’
एक बस तू हमारा है ।
तभी मैंने पुकारा है ।।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।
किसी का डर नहीं मुझको,
मुझे तेरा सहारा है ।।
जरूरत जब पड़ी तेरी,
तुझे मैंने पुकारा है ।
काम सब छोड़ कर तूने,
मुसीबत से उबारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति-तीर्थंकराः !
अत्र अवतर ! अवतर ! संवौषट् !
(इति आह्वाननम्)
अत्र तिष्ठ ! तिष्ठ ! ठ:! ठ: !
(इति स्थापनम्) !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् !
(इति सन्निधिकरणम्)
चढ़ाया सीता ने दृग जल,
तीज त्यौहार न, रोजाना ।
कहाँ किस्सा इस सा दूजा,
आग का पानी हो जाना ।।
बस यही सोच कर मैंने,
तुझे भेंटी जल धारा है ।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।1।।
चढ़ाया चन्दन ने चन्दन,
तीज त्यौहार न, रोजाना ।
कहाँ किस्सा इस सा दूजा,
बेढ़ियाँ कंगन हो जाना ।।
बस यही सोच कर मैंने,
भिंटाया चन्दन प्याला है ।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
संसारताप विनाशनाय
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।।2।।
देव ‘पत’ ‘खेव’ धान भेंटी,
तीज त्यौहार न, रोजाना ।
कहाँ किस्सा इस सा दूजा,
ज्वार का मोती हो जाना ।।
बस यही सोच कर मैंने,
भिंटाया धान पिटारा है ।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अक्षय पद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।3।।
अंजना भेंट पुष्प लाई,
तीज त्यौहार न, रोजाना ।
कहाँ किस्सा इस सा दूजा,
चूर शिल, वज्जर हनुमाना ।।
बस यही सोच कर मैंने,
भिंटाया पुष्प निराला है ।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।4।।
भेंट चरु सेठ सुदर्शन की,
तीज त्यौहार न, रोजाना ।
कहाँ किस्सा इस सा दूजा,
शूल, सिंहासन हो जाना ।।
बस यही सोच कर मैंने,
भिंटाया चरु घृत वाला है ।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।5।।
भिंटाया दीप धनंजय ने,
तीज त्यौहार न, रोजाना ।
कहाँ किस्सा इस सा दूजा,
सर्प विष, अमरित हो जाना ।।
बस यही सोच कर मैंने,
भिंटाई दीपक माला है ।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।6।।
धूप होमा है, सोमा ने,
तीज त्यौहार न, रोजाना ।
कहाँ किस्सा इस सा दूजा,
नाग का माला हो जाना ।।
बस यही सोच कर मैंने,
भिंटाया अगरु काला है ।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।7।।
द्रौपदी ने भेंटा श्रीफल,
तीज त्यौहार न, रोजाना ।
कहाँ किस्सा इस सा दूजा,
चीर ‘फिर’ बढ़ते ही जाना ।।
बस यही सोच कर मैंने,
भिंटाया श्री-फल न्यारा है ।
रूठ जाये भले दुनिया,
बन्द कब तेरा द्वारा है ।।
एक बस तू हमारा है ।
मुझे तेरा सहारा है ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।8।।
भर भर आती है, आँख हमारी ।
डाली नवग्रह ने हा ! दृष्टि काली ।।
आया दर-दर भटक ।
तेरे चरणन निकट ।।
लाया जल-क्षीर घट ।
लाया घिस गन्ध घट ।।
लाया धाँ शालि सित ।
लाया गुल सर्व-ऋत ।।
लाया चरु-चारु घृत ।
लाया दीपक घिरत ।।
लाया दश गंध-घट ।
लाया फल सर्व-ऋत ।।
लाया दिव द्रव्य अठ ।
आया दर-दर भटक ।।
बड़ा पुण्य उदय मेरा आया ।
मिल चला मुझको साँचा दुवारा ।।
सिवा तेरे न कोई हमारा ।
लें नवग्रह समेट अपनी माया ।
मुझे बस एक तेरा सहारा ।।
मेंटो मेंटो जी संकट हमारा ।।
ॐ ह्रीं सर्वग्रह-अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।9।।
*अरिष्ट निवारक नवार्घ*
कहे भक्तों का ताता ।
तुझे दुख सुनना आता ।।
भक्त के होते आँसू ।
भिंजोता हैं आँखें तू ।।१।।
चीर द्रोपद बढ़ चाला ।
था तुहीं तो रखवाला ।।
आग पानी में बदली ।
कृपा तेरी है विरली ।।२।।
मुझे ‘ग्रह-सूर’ सताये ।
तरेरे आँख, रुलाये ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
छुपा क्या तुमसे स्वामी ।
नाम तुम अन्तर्जामी ।।
थाम लो मेरी छिंगरी ।
बना दो कृपया बिगड़ी ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-सूर’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।५।।
ॐ ह्रीं रवि-अरिष्ट निवारक
श्री पद्म प्रभ जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।1।।
भक्त के वंश में रहते तुम ।
भक्त जो कहते, करते तुम ।।
लाज भक्तों की तुम रखते ।
भक्त दृग् नम न देख सकते ।।१।।
घड़े थे नाग, हार निसरे ।
भक्त क्यों-कर तुमको विसरे ।।
पाँव लग खुल्ला दरवाजा ।
शील जयकार गगन गाजा ।।२।।
मुझे ‘ग्रह-सोम’ सताये है ।
खून के आँसु झिराये है ।।
घनेरा स्याही अँधियारा ।
सहारा मुझे सिर्फ थारा ।।३।।
छुपा क्या तुमसे हे ! स्वामी ।
सर्वविद् तुम अन्तर्यामी ।।
नाथ इतनी कर दो करुणा ।
मुझे भी कृपया लो अपना ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-सोम’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।५।।
ॐ ह्रीं चन्द्र-अरिष्ट निवारक
श्री चन्द्र प्रभ जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।2।।
कृपा बरसाते तुम ।
बुलाते, आते तुम ।।
भक्त तुमको प्यारे ।
तुम्हीं जग रखवाले ।।१।।
स्वर्ग मेंढ़क कीना ।
बिना माँगे दीना ।।
शूल की सिंहासन ।
पतित कीने पावन ।।२।।
सताये ‘ग्रह-मंगल’ ।
भरुँ सिसकी पल-पल ।।
घनेरा अँधियारा ।
आसरा इक थारा ।।३।।
छुपाना क्या स्वामी ।
आप अन्तर्यामी ।।
चरण इक दे कोना ।
शरण में रख लो ना ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-भौम’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।५।।
ॐ ह्रीं भौम-अरिष्ट निवारक
श्री वासु पूज्य जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।3।।
तुमसे भक्तों को आश ।
तुम भक्तों के विश्वास ।।
तुम करते पूर्ण मुराद ।
तुम सुनते झट फरियाद ।।१।।
नत अंजन सुत बजरंग ।
तुम भरते जीवन रंग ।।
पंछी जटायु पर सोन ।
तुम बिना सहाई कौन ।।२।।
‘ग्रह-बुध’ ने छीना चैन ।
गीले कर जाता नैन ।।
फैला स्याही अँधियार ।
इक शरणा सिर्फ तिहार ।।३।।
विद् सिन्धु-बिन्दु जल माप ।
इक अन्तर्यामी आप ।।
लो थाम हमारा हाथ ।
‘कर’-जोड़ विनय नत-माथ ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-बुद्ध’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।
ॐ ह्रीं बुध-अरिष्ट निवारक
श्री अष्ट जिनेन्द्रेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।4।।
इक दरद-मन्द तुम ।
छव शरद-चन्द गुम ।।
तुम तारणहारे ।
तुम पालनहारे ।।१।।
स्यंदन ‘नौकारा’ ।
अंजन ‘भौ’-पारा ।।
वीर-द्वार चन्दन ।
क्षार-क्षार बंधन ।।२।।
रुष्ट ‘ग्रह-वृहस्पत’ ।
फिर के खड़ी विपत् ।।
हुई रोशनी गुम ।
किरण-आश इक तुम ।।३।।
पत राखो स्वामी ।
तुम अन्तर्यामी ।।
मुझे न ठुकराओ ।
कृपया अपनाओ ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘गुरु-ग्रीह’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।५।।
ॐ ह्रीं गुरु-अरिष्ट निवारक
श्री अष्ट जिनेन्द्रेभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।5।।
तुम भक्तों की रखते लाज ।
होते कभी न तुम नाराज ।।
आप हमारी माँ, हम-बाल ।
माँ रखती ही शिशु का ख्याल ।।१।।
रातरि-जागर देव-विमान ।
पल सुमरण तुम दे सम्मान ।।
हो’शियार-जल रातरि त्याग ।
नुति पद तुम करके अनुराग ।।२।।
मैं ‘ग्रह-शुक्र’ परेशाँ नाथ ।
झिर-लग नयनन जल बरसात ।।
बरपा चौ-तरफा अँधियार ।
मुझे सहारा सिर्फ तिहार ।।३।।
अपराधी, या मैं निष्पाप ।
स्वामी अन्तर्यामी आप ।।
साधुन रख लो, दुष्ट निकाल ।
करो भक्त इक और निहाल ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-शुक्र’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।५।।
ॐ ह्रीं शुक्र-अरिष्ट निवारक
श्री पुष्प दन्त जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।6।।
भक्त तुम्हारा कभी न हारे ।
भले देर से बाजी मारे ।।
भले राह तूफान निरोधे ।
आसमान छू लेते पौधे ।।१।।
पहली छोड़ मछरिया, देखा ।
धीवर पाँत सु’धीवर लेखा ।।
छोड़ो और, छोड़ पल कागा ।
पुण्य सातिशय भिल्लक जागा ।।२।।
रौब दिखाये ‘शनि-ग्रह’ अपना ।
आँख हमारी गंगा जमुना ।
अँधकार चहु-ओर घनेरा ।
सिर्फ सहारा मुझको तेरा ।।३।।
व्यथा छुपी कब तुमसे स्वामी ।
कौन सिवा तुम अन्तर्यामी ।।
हाथ, हमारे-सिर रख दीजे ।
नाथ ! जरा सी करुणा कीजे ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘शनि-देव’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।५।।
ॐ ह्रीं शनि-अरिष्ट निवारक
श्री मुनि सुव्रत नाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।7।।
तुम भक्त साथ सच रहता है ।
ईमान रगों में बहता है ।।
चूनर तुम भक्त टकें सितार ।
भू खड़े भक्त तुम गगन पार ।।१।।
सिंह महावीर कहलाया है ।
कपि, नाग-नकुल जश पाया है ।।
बन चाला कुन्द-कुन्द ग्वाला ।
‘सुर-वर’ शूकर भोला भाला ।।२।।
‘ग्रह-राहु’ राह में खड़ा आन ।
बन सके, करे हा ! परेशान ।।
विरथा क्या कहूँ, व्यथा स्वामी ।
सर्वज्ञ आप अन्तर्यामी ।।३।।
छाया घन-घोर अंधेरा है ।
बस एक भरोसा तेरा है ।।
ये टूट न पाये आश डोर ।
बस यही प्रार्थना हाथ जोड़ ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-राहु’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।५।।
ॐ ह्रीं राहु-अरिष्ट निवारक
श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।8।।
न्यारा जगत से तुम भक्त ।
अर तुम भक्त, किसका वक्त ।।
महिमा आपकी न्यारी ।
करुणा, दया अवतारी ।।१।।
नागिन-नाग ‘नागन-स्वाम’ ।
स्वर्ण-सुहाग कोढ़िन चाम ।।
धन ! धन ! कूख महतारी ।
शचि भव एक अवतारी ।।२।।
दुठ ‘ग्रह-केतु’ लहरे केत ।
टूटे हहा ! धीरज सेत ।।
मानस रात अँधियारी ।
जुगनू शरण इक थारी ।।३।।
जाने आप-बीति-तमाम ।
हैं ही आप अन्तर्याम ।।
अँगुली थाम लो म्हारी ।
दुनिया ‘स्वा-रथी’ भारी ।।४।।
दोहा-
डाँट-डपट ‘ग्रह-केतु’ को,
कर दीजो अनुकूल ।
शिशु में माफी दो दिला,
अगर बन पड़ी भूल ।।५।।
ॐ ह्रीं केतु-अरिष्ट निवारक
श्री मल्लि नाथ पार्श्वनाथ जिनाभ्यां
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।9।।
‘जयमाला’
‘दोहा’-
अगर अँधेरा मेंटना,
तो लाठी दो फेंक ।
हृदय भक्ति भगवत् ‘दिया’,
बालो पल दो एक ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
सूर्य अरिष्ट निवारण-हारा ।।
पद्मप्रभ भगवान् का ।
करुणा, दया निधान का ।।
चन्द्रप्रभु भगवान् का ।
चन्द्र अरिष्ट निवारण-हारा
जय जय कारा, जय-जयकारा ।।१।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
भौम अरिष्ट निवारण-हारा ।।
वासु-पूज्य भगवान् का ।
वत्सल-भक्त प्रधान का ।
अष्ट-इष्ट भगवान् का ।
बुद्ध अरिष्ट निवारण-हारा ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।।२।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
गुरू अरिष्ट निवारण-हारा ।।
अष्ट-इष्ट भगवान् का ।
भक्तन स्वाभिमान का ।।
पुष्प-दन्त भगवान् का ।
शुक्र अरिष्ट निवारण-हारा ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।।३।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
शनी अरिष्ट निवारण-हारा ।।
मुनि-सुव्रत भगवान् का ।
करुणा, दया निधान का ।।
नेमि-नाथ भगवान् का ।
राहु अरिष्ट निवारण-हारा ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।।४।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।
केतु अरिष्ट निवारण-हारा ।।
मल्ल-पार्श्व भगवान् का ।
वत्सल-भक्त प्रधान का ।
करुणा, दया निधान का ।।
भक्तन स्वाभिमान का ।।
चौबीसों भगवान् का ।
सर्व अरिष्ट निवारण-हारा ।।
जय जय कारा, जय-जयकारा ।।५।।
‘दोहा’-
बाल वैद्य इक साध लो,
खो चालेगी पीर ।
गड्डे इक इक फुट किये,
कब निकला ‘मिठ’ नीर ।।
ॐ ह्रीं सर्व अरिष्ट निवारक
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘विधान-प्रारंभ’
तुम्हें जिसने पुकारा ।
उसे तुमने संभाला ।।
बड़ा रखते हो हिवड़ा ।
मेंट देते हो दुखड़ा ।।१।।
बढ़े दुख ले गति दूनी ।
गोद बहुरानी सूनी ।।
सुबह से संध्या होती ।
ढुला आँखों के मोती ।।२।।
‘जमा…ना’ ताने मारे ।
भटकता द्वारे-द्वारे ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
आप को सर्वग कहते ।
आप जग कहां न रहते ।।
अरे ! बेताबी छू ना ।
बोल दो भी, मैं हूं ना ।।४।।
ॐ ह्रीं अकुटुम्बत् दु:ख निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।1।।
आप बीती तुम सुनते ।
आँख तीती तुम चुनते ।।
मेंट देते कष्टों को ।
भेंटते सुख भक्तों को ।।१।।
ढ़ेर राहों में काँटे ।
घेर ‘शू-साईड’ नाते ।।
मुझे अब और न जीना ।
सब्र ने जबाब दीना ।।२।।
पट्टि मन उलट पढ़ाये ।
डाल बैठे कटवाये ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
तुम्हें मन पढ़ना आया ।
ज्ञान कुछ हटके पाया ।।
कृपा बरसा दो मुझपे ।
बस भरोसा है तुझपे ।।४।।
ॐ ह्रीं अपमृत्यु-अल्पमृत्यु निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।2।।
आप हैं अपने जैसे ।
आप आगे कब पैसे ।।
देख दुखिया ना सकते ।
पीर पर देख सिसकते ।।१।।
मूठ रज-मोहन माया ।
पिशाची काली छाया ।।
ऊपरी बाधा हावी ।
जिन्द-जिद्दी मायावी ।।२।।
दिनाई आद बलाएँ ।
नजरिया स्याही, हायें ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
पता है तुम्हें नहीं क्या ? ।
पता ही, गलत-सही क्या ? ।।
शरण में ले लो अपनी ।
तिरा दो दुख वैतरणी ।।४।।
ॐ ह्रीं व्यन्तरादि बाधा निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।3।।
नाम तुम महा महीमा ।
राम तुम, तुम्हीं रहीमा ।।
वक्त हाथों में तुमरे ।
भक्त लाखों में तुमरे ।।१।।
आँख में गंगा पानी ।
ना चले धंधा-पानी ।।
वहीं पर साँझ दिखाऊँ
बैल-तेली कहलाऊँ ।।२।।
माल बिकता है थोड़ा ।
कर्ज का दौड़े घोड़ा ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
आप से कब छुपता है ।
आप को सब दिखता है ।।
मुझे चरणों में रख लो ।
नाम अपनों में रख लो ।।४।।
ॐ ह्रीं व्यापार बाधा निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।4।।
बहे रग रक्त दूधिया ।।
रखे मां भांत तू जिया ।
भला करना आता है ।
दया करुणा नाता है ।।१।।
कण्ठ सरसुति ना ठहरें ।
सिन्धु मन उठतीं लहरें ।।
रटूँ, रटता ज्यों तोता ।
पलक झपके, सब खोता ।।२।।
‘जमा…ना’ हँसी उड़ाये ।
मार ताने न लजाये ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
आंख तीजी रखते हो ।
जगत युगपत् लखते हो ।।
भक्ति सर अवगाहूॅं मैं ।
साथ तेरा चाहूॅं मैं ।।४।।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री चतुर्विंशति जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।5।।
धूप का, छाते छतरी ।।
गजब महिमा है तुमरी ।
झोलियां भर देते हो ।।
सिसकियां भर लेते हो ।१।।
रोग जाँ-लेवा पीछे ।
कहें, रहिये दृग् मींचे ।।
दर्द रह रह के उठता ।
चैन सुख करार लुटता ।।२।।
फट, फिर पट सीने की ।
आश छोड़ी जीने की ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
आप से छुपता कब है ।
ज्ञान तुम झलका सब है ।।
भेंट इक चरणन कोना ।
मुझे अपना भी लोना ।।४।।
ॐ ह्रीं आधि व्याधि निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।6।।
अनूठी गौरव गरिमा ।।
अनोखी तेरी महिमा ।
फिकर करते हो सबकी ।।
खबर रखते हो सबकी ।।१।।
चोर शातिर दिमाग है ।
न छोड़ा इक सुराख है ।।
चीज थी कीमत वाली ।
छिनी मानो दीवाली ।।२।।
हो गया पागल-सा मैं ।
मुझे आ कोई थामे ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
भांति दर्पण जग झलका ।
आपका ज्ञान न हल्का ।।
तुम्हारा ही, न पराया ।
बनाये रखना छाया ।।४।।
ॐ ह्रीं इष्ट वियोग निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।7।।
कहे इक सुर जग सारा ।
द्वार सांचा इक थारा ।।
हाथ रेखा छिछलाते ।
माथ रेखा विथलाते ।।१।।
बड़ा अपराध, न जबकि ।
गिरा नजरों से सबकी ।।
किन्तु ना समझे कोई ।
रहा समझा जग-दोई ।।२।।
नाक रख रंगीं चश्मा ।
देखता जगत् करिश्मा ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
कहां छुपता है तुमसे ।
किरण इक जीते तम से ।।
करम को चटा धूल दो ।
द्वार यम दिखा, भूल को ।।४।।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।8।।
तुम्हीं से रोशन दुनिया ।
तुम्हारा दिल है दरिया ।।
उड़ा देते पतंग को ।
आप किसके न संग हो ।।१।।
बड़ी महंगी है हल्दी ।
हाथ पीले कब जल्दी ।।
उलझतीं जातीं साँके ।
कर्म दिखलाते आँखें ।।२।।
गुण मिलाये न मिलते ।
पोत लग ‘तीर’ फिसलते ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
बात पढ़ लेते मन की ।
आप जानें त्रिभुवन की ।।
भंवर में नाव हमारी ।
आश बस हमें तुम्हारी ।।४।।
ॐ ह्रीं वैवाहिक बाधा निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।9।।
आप जैसा ना कोई ।
खोज आया जग दोई ।।
और हित मर मिटते हो ।
और हित दृग भरते हो ।।१।।
सभी मद आठों हावी ।
छुये जब-तब बेताबी ।।
जाति ना कुनवा ऊँचा ।।
ऋद्धि, बल, तप न पूजा ।।२।।
नाहिं सुन्दर न ज्ञानी ।
बनूँ, जाने क्यूँ मानी ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
न तुम से छूप रह पाता ।
आप तिहु-जग एक ज्ञाता ।।
नजर इक बार उठा दो ।
चरण में मुझे बिठा लो ।।४।।
ॐ ह्रीं मद मादकता निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।10।।
त्रिजग तुम इक रखवाले ।
भांति मां भोले भाले ।।
नैन गीले आना है ।
रीझ तुझको जाना है ।।१।।
फँसा गोरख-धंधे में ।
मान-माया फन्दे में ।।
बाद पछताना पड़ता ।
क्रोध मन-भर के करता ।।२।।
लोभ का नहीं ठिकाना ।
हुआ कब मन भर पाना ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
छुपाऊॅं क्या ? छुप पाना ।
तुम्हें जो केवल ज्ञाना ।।
जरा सी करुणा कीजे ।
हाथ सर पर रख दीजे ।।४।।
ॐ ह्रीं कषाय भाव निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।11।।
कौन तुम जैसा दूजा ।
स्वर्ग ‘ने की’ आ पूजा ।।
भार सिर ‘पर’ रख लेते ।
कुछ न बदले में लेते ।।१।।
स्वप्न मति-मानस हंसा ।
बचूँ, हो जाती हिंसा ।।
झूठ बेबाक बोलते ।
नैन बस रहें डोलते ।।२।।
करूँ सपने भी चोरी ।
मुड़ी से रखूँ तिजोड़ी ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
ज्ञात नाहीं क्या तुम को ।
ज्ञातृ जग माहीं तुम हो ।।
करो भी इतनी करुणा ।
भक्त में कर लो गणना ।।४।।
ॐ ह्रीं पाप भाव निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।12।।
तुम्हीं से दुनिया सारी ।
जिताते हारी पारी ।।
पार करते हो बेड़ा ।
तभी दिल सभी बसेरा ।।१।।
निकलना चाहूँ घर से ।
बोझ न उतरे सर से ।।
व्यथा भव मनुज गवाऊँ ।
फेंक मणि काग उड़ाऊँ ।।२।।
भूल अपनी ही हमरी ।
फँसा खुद जाले मकरी ।।
घनेरा श्याह अँधेरा ।
आसरा मुझको तेरा ।।३।।
तुम्हें मालूम सरब है ।
ज्ञान मामूली कब है ।।
डगमगे पांव संभालो ।
साथ शिव तक ले चालो ।।४।।
ॐ ह्रीं सिद्ध साक्षि दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।13।।
*नव(ग्)-ग्रह मंत्र*
ॐ ह्रीम् श्री पद्-म(प्)-प्रभवे
ॐ ह्रीम् श्री चन्-द(प्)-प्रभवे
ॐ ह्रीम् श्री पू(ज्)-ज्य(प्)-प्रभवे
नमो नमः नमो नमः
ॐ ह्रीम् श्री शान्ति नाथाय
ॐ ह्रीम् श्री आदि नाथाय
ॐ ह्रीम् श्री सुविधि नाथाय
नमो नमः नमो नमः
ॐ ह्रीम् मुनि-सु(व्)-व्रत नाथाय
ॐ ह्रीम् श्री नेमि नाथाय
ॐ ह्रीम् श्री पार्श्व नाथाय
नमो नमः नमो नमः
मे नव(ग्)-ग्रह शान्-त्यर्-थम्
ते नव(ग्)-ग्रह शान्-त्यर्-थम्
ते मे नव(ग्)-ग्रह शान्-त्यर्-थम्
ओम् शान्ति
शान्ति ओम् शान्ति
( नव बार )
*जयमाला*
==दोहा==
स्वाति बिन्दु चातक चखे,
भखे या ‘कि अंगार ।
सिर अपना ‘सिरि-फल’ नहीं,
चढ़ा दिया हर-द्वार ।।
माँ के जैसे भगवान् ।
रखते भक्तों का ध्यान ।।
रस्ते में काँटे देख ।
लें उठा गोद, अभिलेख ।।१।।
जुग आद ब्रह्म जिन आद ।
जय भक्त हितैष उपाध ।।
आ जाते सुन आवाज ।
अख-अजित अजित जिन राज ।।२।।
जप शम-भव संभव नाम ।
बन चाले बिगड़े काम ।।
राखी पत भक्त सदैव ।
जय अभिनन्दन जिन देव ।।३।।
जय सुमति सुमति दातार ।
तट भक्त पोत, पतवार ।।
भगतन सहाय शिर-मौर ।
जय पद्म पद्म प्रभ और ।।४।।
जय जयतु सुपार्श्व जिनन्द ।
बढ़ मढ़ पारस जश वन्त ।।
गुण शून भक्त तुम अंक ।
जय चन्द्र चन्द्र निकलंक ।।५।।
जय पुष्प दन्त नुति नन्त ।
भवि भक्तन भद्र समन्त ।।
कर्तार भक्त कल्याण ।
जय शीतल शीतल वाण ।।६।।
जय श्रेयस श्रेयस पाथ ।
भवि भक्तन भाग विधात ।।
जयकार धरा-नभ गूँज ।
शशि दूज तनय वसु-पूज ।।७।।
जय विमल विमल परिणाम ।
पत राखत भक्तन शाम ।।
दातार किमिच्छिक दान ।
जय नन्त नन्त गुणवान् ।।८।।
जय धर्म धुरन्धर धीर ।
हरतार भक्त भव-पीर ।।
ऋत-शीत गुनगुनी धूप ।
जय शान्त प्रशान्त अनूप ।।९।।
जय कुन्थ कुन्थ कल सिद्ध ।
सुन धुन भवि हृदय विशुद्ध ।।
दिवि शिविका ‘नव’ भव सिन्ध ।
जय अर अर्हत शत-इन्द ।।१०।।
जय मल्ल दल्ल शल तीन ।
सम-दृष्टि-भक्त ‘धनि-दीन’ ।।
तुम भक्त समेत निहाल ।
जय गुणि मुनि सुव्रत पाल ।।११।।
जय जय नम नम दृग् कोर ।
भवि भक्त व्यूह दुख तोड़ ।।
बिन कारण तारणहार ।
जय नेम क्षेम करतार ।।१२।।
जय पारस नाथ, अनाथ ।
सुख रेख उकेरें हाथ ।।
प्रद भक्तन हंस विवेक ।
जय सन्मत सन्मत एक ।।१३।।
माँ के जैसे भगवान् ।
रखते भक्तों का ध्यान ।।
शिशु ठोकर लागी दीख ।
‘माँ-सहजो’ पड़ती चीख ।।१४।।
==दोहा==
यूँ-हि भक्ति प्रभु आपकी,
रहे निभाती साथ ।
‘सहज-निरा-कुल’ बन सकूँ,
विनय जोड़ जुग हाथ ।।
*शांति पाठ*
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्श्री शांति-भक्ति कायोत्सर्गम् ,
करोम्यहम्
(९ बार णमोकार )
*चौपाई*
दर्शन मात्र मेंटता दुखड़ा ।
भाँत चन्द्रमा सुन्दर मुखड़ा ।।
नासा टिके नैन मनहारी ।
करें वन्दना नाथ ! तुम्हारी ।।
आप चक्रधर-पञ्चम नामी ।
वन्द्य इन्द्र शत, अन्तर्-यामी ।।
प्रभो शान्ति-जिन करके करुणा ।
करो शान्ति ! जश निरखो अपना ।।
छत्र, सिंहासन, वृक्ष-अशोका ।
धुनि, दुन्दुभि, दल-चँवर अनोखा ।।
भा-मण्डल झिर-पुष्प-अनूठी ।
प्रातिहार्य-वसु आप विभूती ।।
अर्चित-जगत् ! शान्ति करतारी ।
ढ़ोक करो स्वीकार हमारी ।।
प्राण-भूत, सत्, जीव समस्ता ।
पायें परिणति शान्त प्रशस्ता ।।
देवों में जो देव बड़े हैं ।
चरणों में हित सेव खड़े हैं ।।
हंस-वंश वे जग उजियारे ।
करें शान्ति मण्डित जग सारे ।।
(निम्न श्लोक को पढ़कर
जल छोड़ना चाहिए)
शान्ति कीजिये गाँव-गाँव में ।
विश्व लीजिये पाँव-छाँव में ।।
डूब ‘साध-जन’ उतरें गहरे ।
लहर लहर-पचरंगा लहरे ।।
नृप धार्मिक बलशाली होवे ।
विकृति-प्रकृति मनमानी खोवे ।।
धर्म-चक्र-जिन सौख्य प्रदाता ।
रहे प्रवाहित यूँ हि विधाता ।।
द्रव्य सुमंगल-कारी होवे ।
क्षेत्र अमंगल-हारी होवे ।।
होवे काल सुमंगल-कारी ।
होवें भाव अमंगल-हारी ।।
कर्मन-घात घात मद सारा ।
सहजो सिद्ध रिद्ध परिवारा ।।
आदि आदि अर्हन् चौबीसा ।
शान्ति प्रदान करें निशि दीसा ।।
*दोहा*
किया शान्ति जिन भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
पाँच सभी कल्याणक धारी ।
आठ प्राति-हारज मन-हारी ।।
अतिशय तीस चार मण्डित हैं ।
अर बत्तीस इन्द्र वन्दित हैं ।।
चौ-विध संघ नखत मानिन्दा ।
राम श्याम चक्री, प्रभु ! चन्दा ।।
‘निलय-विनय’ अन-गिनत गभीरा ।
आद-आद जिन अंतिम वीरा ।।
अर्चन-पूजन-वन्दन करता ।
उनका मैं अभिनन्दन करता ।।
पीड़ा-दुक्ख-दरद-भय खोवे ।
मेरे कर्मों का क्षय होवे ।।
रत्नत्रय का मुझे लाभ हो ।
मेरी ‘गति-पंचम-उपाध’ हो ।।मृत्यु-महोत्सव मना सकूँ मैं ।
जिन-गुण-सम्पद् कमा सकूँ मैं ।।
अथ पौर्वाह-निक (अप-राह-निक)
देव-शास्त्र-गुरु-वन्दना-क्रियायाम्
पूर्वाचार्या-नुक्-क्रमेण,
सकल-कर्मक्-क्षयार्-थम्,
भाव-पूजा-वन्दना-स्तव समेतम्
श्री समाधि-भक्ति कायोत्सर्गम्
करोम्यहम्
(९बार णमोकार )
*चौपाई*
सदा शास्त्र अभ्यास करूँ मैं ।
सन्त समीप निवास करूँ मैं ।।
मौन धरूँ क्यूँ, गुणी दिखाये ।
गौण करूँ, यूँ दोष-पराये ।।
भावन-आत्म तत्व, नम-नयना ।
हित-मित रखूँ मधुरतम वयना ।।
जब तक राधा-मुक्ति रिझाऊँ ।
इन्हें जन्म जन्मान्तर पाऊँ ।।
तारण हारे……शरण सहारे ।
हृदय हमारे….चरण तुम्हारे ।।
चरण तुम्हारे….हृदय हमारा ।
रहे, तलक जब भव-जल-धारा ।।
स्वर-अक्षर पद मात्रा गलती ।
हुईं, चाहते बिन अनगिनती ।।
हो अपराध क्षमा यह मेरा ।
‘जैसा भी’ मैं अपना तेरा ।।
*दोहा*
किया समाधी, भक्ति का,
भगवन् कायोत्सर्ग ।।
करूँ दोष आलोचना,
जो प्रद-स्वर्ग-पवर्ग ।।
*चौपाई*
सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञाना ।
सम्यक्-चारित, ताना-बाना ।।
रूप अनूप ध्यान परमातम ।
बुद्ध-विशुद्ध ज्ञान धर आतम ।।
पूजन नित वन्दन करता हूँ ।
अर्चन अभिनन्दन करता हूँ ।।
क्षय होवें दुख संकट सारे ।
क्षय हो जावें कर्म हमारे ।।
मुझे लाभ रत्नत्रय होवे ।
सुगति गमन, भय-सप्तक खोवे ।।
पाऊँ मरण-समाधी स्वामी ।
बनूँ रतन जिन-गुण आसामी ।।
‘पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्’
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र
पढ़ना चाहिए )
*विसर्जन पाठ*
अंजन को पार किया ।
चंदन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।
अगनी ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।
( निम्न श्लोक पढ़कर
विसर्जन करना चाहिये )
*दोहा*
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
कृपा ‘निराकुल’ आपकी,
बनी रहे निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
आरती तीर्थंकर चौबीस ।
उतारें ग्रह-अरिष्ट निशिदीस ।।
मान के भुवन-भुवन इक ईश ।
प्रफुल्लित रोम-रोम नत शीश ।।
उतारें ग्रह-अरिष्ट निशिदीस ।।
आरती तीर्थंकर चौबीस ।
लिये ‘ग्रह-सूर’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-सोम’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-भौम’ साथ परिवार ।
चला आता साँचे दरबार ।।
बना बाती-कपूर मणि-दीव ।
करे आरति रख भक्ति अतीव ।।
लिये ‘ग्रह-बुद्ध’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-गुरू’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-शुक्र’ साथ परिवार ।
चला आता साँचे दरबार ।।
बना बाती-कपूर मणि-दीव ।
करे आरति रख भक्ति अतीव ।।
लिये ‘ग्रह-शनी’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-राहु’ साथ परिवार ।
लिये ‘ग्रह-केतु’ साथ परिवार ।
चला आता साँचे दरबार ।।
बना बाती-कपूर मणि-दीव ।
करे आरति रख भक्ति अतीव ।।
मान के भुवन-भुवन इक ईश ।
प्रफुल्लित रोम-रोम नत शीश ।।
आरती तीर्थंकर चौबीस ।
उताऊँ मैं भी, हित आशीष ।
Sharing is caring!