वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘पूजन’
भगवन् अरह तुम हो,
मिरे तुम हो, मिरे तुम हो ।
बिन तुम्हारे कौन है मिरा,
मैं बुलाऊँ जिसको ।।
आ भी जाओ, आ भी जाओ,
आ भी जाओ ।
और मेरे नैन ये अब,
मत भिंजाओ ।।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं श्री अर जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री अर जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री अर जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
छेद जेबों में हुये हैं ।
धरा ने घुटने छुये हैं ।।
दिन गुजरता साथ ‘फाके’ ।
रात गुजरे गम्म खा के ।।
लिये मैं भी अश्रु खारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं दारिद्र निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हाथ पीले कहाँ जल्दी ।
बड़ी मँहगी हहा ! हल्दी ।।
गुण मिलें ना मिलें साँके ।
दिखाते ग्रह-सभी आँखें ।।
लिये मैं भी गन्ध प्याले ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं वैवाहिक बाधा निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बढ़ चली बेरोजगारी ।
जवाँ बेटा फिरे खाली ।।
गूँथ सेहरा पुत्र-बंध्या ।
सुबह से हो चले संध्या ।।
लिये मैं भी धान न्यारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं आजीविका-बाधा निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
कदम ना अपराध मग में ।
हो चली अपकीर्ति जग में ।।
फट न क्यों जाती ‘धरा’ है ।
समाऊँ, क्या अब धरा है ।।
लिये मैं भी गुल सुधारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं अपकीर्ति निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हुये हावी रोग सारे ।
खूब करवा दवा हारे ।।
चैन रैन ‘न’ दिन मिले है ।
दर्द रह-रह बढ़ चले है ।।
लिये मैं भी चरु निराले ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं मारी बीमारी निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रटूँ निशि-भर भाँत तोते ।
पाठ विसरूँ प्रात होते ।।
सूज चाली है हथेली ।
बूझ पाऊँ न पहेली ।।
लिये मैं भी दीप बाले ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं अल्प बुद्धि निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मूठ, मोहन-धूल फेंकी ।
कब सभी के हाथ नेकी ।।
ऊपरी बाधा सताये ।
हाय ! रह रह कर रुलाये ।।
लिये मैं भी इतर पारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं टुष्टविद्या निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धरा लीली, गगन झोली ।
हवाले या हवा हो ली ।।
चीज थी जग से निराली ।
क्या पता किसने चुरा ली ।।
लिये मैं भी फल पिटारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं इष्ट वियोग निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बाँसुरी बन चले लाठी ।
छुऊँ सोना बने माटी ।।
राह में लख जाल-काँटा ।
जुड़ ‘शु-साइड’ चले नाता ।।
लिये मैं भी द्रव्य सारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं अपमृत्यु-अल्पमृत्यु निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘कल्याणक-अर्घ’
हा ! बहुरिया गोद सूनी ।
रो नजरिया-स्याह खूनी ।।
मारता ताने जमाना ।
जा रहा मुझसे सहा ना ।।
गगन झोली चाँद-तारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं फागुन-शुक्ल-तृतीयायां
गर्भ कल्याणक प्राप्ताय
अकुटुम्ब-बाधा निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जन्म मानस हाथ आया ।
कुकृत बगुले ने रिझाया ।।
कम नहीं हैं सुकृत मोती ।
हंस-मत पै कब बपौती ।।
टके चूनर ‘गिर’ सितारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं मार्ग शीर्ष-शुक्ल-चतुर्दश्यां
जन्म कल्याणक प्राप्ताय
मानस विकार निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चाह जल-भिन्नन सरोजा ।
उतरता सिर से न बोझा ।।
जाल-मक्कड़ खुद बुना है ।
काल-कुठ्-ठर खुद चुना है ।।
आ गये, ‘तर’ न्यार बारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं मार्ग शीर्ष-शुक्ल-दशम्यां
दीक्षा कल्याणक प्राप्ताय
सिद्ध साक्षि दीक्षा बाधा निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
काम-धंधा ठप्प मेरा ।
दूर तक दिखता अंधेरा ।।
मिले जुगनू भर न ज्योती ।
सुबह खोती, साँझ होती ।।
सम शरण आहा ! नजारे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं कार्तिक-शुक्ल-द्वादश्यां
ज्ञान कल्याणक प्राप्ताय
व्यापार बाधा निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धका अपने बढूँ कैसे ।
सखा अपने लडूँ कैसे ।।
आँख जब चाहे भिंजो दी ।
वेवजह अपने विरोधी ।।
सुर्ख़िंयों में शिव अहा’रे ।
कब खुलेंगे भाग म्हारे ।
वीर चन्दन घर पधारे ।।
हाय ! अब तक स्वप्न में,
मैंने तेरे चरणा पखारे ।
ॐ ह्रीं चैत्र-कृष्ण-अमावस्यां
मोक्ष कल्याणक प्राप्ताय
बन्धुजन-कृत-बाधा निवारकाय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘विधान-प्रारंभ’
‘त’ तपस्या मन पागा ।
हाथ पद अरहत लागा ।।
कीना सार्थक नाम ।
भगवन् अरह प्रणाम ।।
ॐ ह्रीं श्री अर जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री अर जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री अर जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
‘बीजाक्षर सहित मूल नवार्घ’
सिद्ध अरिहन्त नमस्ते ।
सूरि-निर्ग्रन्थ नमस्ते ।।
उपाध्याय निर्ग्रन्थ ।
नुति निर्ग्रन्थ अनन्त ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ
अक्षर असिआ उसा नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम अरिहन्त मंगलम् ।
सिद्ध, निर्ग्रन्थ मंगलम् ।।
और अहिंसा पाथ ।
मंगल जग विख्यात ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं ए ऐ ओ औ अं अः
अक्षर चतुर्विध मंगलाय नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रथम अरिहन्त उत्तमम् ।
सिद्ध, निर्ग्रन्थ उत्तमम् ।।
और अहिंसा पाथ ।
उत्तम जग विख्यात ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अक्षर चतुर्विध लोकोत्तमाय नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम अरिहन्त सुशरणा ।
सिद्ध, निर्ग्रन्थ सुशरणा ।।
और अहिंसा पाथ ।
शरणा जग विख्यात ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अक्षर चतुर्विध शरणाय नमः
दक्षिण-दिशि अर्घ निर्वापमिति स्वाहा ।।
नन्त-सुख, ज्ञान-अनन्ता ।
नन्त-दर्शन, बल-नन्ता ।।
सिद्ध चतुष्टय नन्त ।
वन्दन अरह जिनन्द ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अक्षर अर जिनेन्द्राय नमः
नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चौंर, छत, भा हर-दीठा ।
तूर, गुल, धुन, तर, पीठा ।।
प्रातिहार्य वस-वन्त ।
वन्दन अरह जिनन्द ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अक्षर अर जिनेन्द्राय नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।।
लखन, निर्मल, नि:श्वेदा ।
सुगन्धित-तन, लहु श्वेता ।।
छव, बल-अतिशय-वाण ।
अर संहनन, संस्थान ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अक्षर अर जिनेन्द्राय नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिन्धु-विद्या, अनिमेषा ।
गगन-नभ, थिर नख-केशा ।।
सुभिख, दया, मुख चार ।
छाँव न विघ्न अहार ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अक्षर अर जिनेन्द्राय नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भूम दर्प’ण मुख पन्था ।
धर्म ‘वृत’, गुल, जल-गंधा ।।
दिश्-नभ ‘अन’ वातास ।
‘सुर’, ‘ऋत’, मैत्री, भाष ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अक्षर अर जिनेन्द्राय नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम वलय पूजन विधान की जय
*अनन्त चतुष्टय*
दर्शनावरण खपाया ।
नन्त दर्शन प्रकटाया ।।
झलकन तीन जहान ।
नमन अरह भगवान् ।।१।।
ॐ ह्रीं अनन्त-दर्शन मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कर्म अन्तराय विघटा ।
सहज बल अनन्त प्रकटा ।।
झलक पड़े जग तीन ।
नुति पद-लाञ्छन मीन ।।२।।
ॐ ह्रीं अनन्त वीर्य मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मोहनी कर्म विधाता ।
जुड़ा सुख अनन्त नाता ।।
झलक त्रिजग इक साथ ।
वन्दन अर जिन नाथ ।।३।।
ॐ ह्रीं अनन्त सुख मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आवरण ज्ञान हटाया ।
ज्ञान इक अनन्त पाया ।।
झलके लोक अलोक ।
जगन्नाथ अर ढ़ोक ।।४।।
ॐ ह्रीं अनन्त-ज्ञान मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नन्त-दर्शन, बल-नन्ता ।
नन्त-सुख, ज्ञान-अनन्ता ।।
सिद्ध चतुष्टय नन्त ।
वन्दन अरह जिनन्द ।।
ॐ ह्रीं अनन्त-चतुष्टय मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
द्वितीय वलय पूजन विधान की जय
*अष्टप्रातिहार्य*
देव दुन्दुभ मनहारी ।
जयतु जिन-अरह तिहारी ।।
दिश् दश गभीर गूँज ।
‘नभ-जैनी’ शश-दूज ।।१।।
ॐ ह्रीं देवदुन्दुभि-मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पुष्प वर्षा दिव-क्यारी ।
जयतु जिन-अरह तिहारी ।।
दृश्य अलौकिक एक ।
वज्रांकित अभिलेख ।।२।।
ॐ ह्रीं पुष्प-वृष्टि-मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिव्य-धुन भव दुख-हारी ।
जयतु जिन-अरह तिहारी ।।
भींजे तीजे नैन ।
तर ‘भी’तर सुख-चैन ।।३।।
ॐ ह्रीं दिव्य-ध्वनि-मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वि’रख’ गुण नाम प्रभारी ।
जयतु जिन-अरह तिहारी ।।
नाम सम-शरण सार्थ ।
साध सहज परमार्थ ।।४।।
ॐ ह्रीं वृक्ष-अशोक-मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
स्वर्ण सिंह-पीठ निराली ।
जयतु जिन-अरह तिहारी ।।
पार्श्व भाग रतनार ।
दर्श मात्र मनहार ।।५।।
ॐ ह्रीं सिंहासन-मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चँवर चौषठ छव न्यारी ।
जयतु जिन-अरह तिहारी ।।
ढ़ोरें सुर ‘दो-तीस’ ।
स्वर्ग विमान अधीश ।।६।।
ॐ ह्रीं चामर मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फबे झालर मण वाली ।
जयतु जिन-अरह तिहारी ।।
छत्र अधर चल तीन ।
त्रिलोकीश इक चीन ।।७।।
ॐ ह्रीं छत्र-त्रय-मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘प्रभा-वृत’ अतिशय कारी ।
जयतु जिन-अरह तिहारी ।।
दर्शन भवि भव-सात ।
निरसन भूलन हाथ ।।८।।
ॐ ह्रीं भामण्डल-मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तूर, गुल, धुन, तर, पीठा ।
चौंर, छत, भा हर-दीठा ।।
प्रातिहार्य वस-वन्त ।
वन्दन अरह जिनन्द ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-प्रातिहार्य मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तृतीय वलय पूजन विधान की जय
*दशजन्मातिशय*
तकी ‘चन्दन’ ने बगलें ।
लगा कस्तूरी भग लें ।।
अद्भुत देह सुगन्ध ।
वन्दन अरह जिनन्द ।।१।।
ॐ ह्रीं सौरभ गौरव मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हृदय बहती इक करुणा ।
बनीं दृग् गंगा-जमुना ।।
किमि अचरज रग क्षीर ।
नुति अर भव-जल तीर ।।२।।
ॐ ह्रीं सित शोणित मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
शंख, ध्वज, पंखा, झारी ।
चक्र, कलशा-रतनारी ।।
लखन सहस अर आठ ।
जयतु अरह जिन नाथ ।।३।।
ॐ ह्रीं ‘लाखन’ गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिव्य दिव-भोग अनूठे ।
झूठ, रहते हैं भूखे ।।
भोजन भस्मीभूत ।
नुति अर विभव विभूत ।।४।।
ॐ ह्रीं निर्मल गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रक्त आरक्त न नैना ।
रहें ‘भी’तर दिन-रैना ।।
क्यों-कर बहे पसेव ।
जयतु अरह जिन देव ।।५।।
ॐ ह्रीं हीन पसीन गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मुक्ति तन नाजुक काँचा ।।
वज्र विरषभ नाराचा ।।
संहनन चरम शरीर ।
नुति अर हृदय-गभीर ।।६।।
ॐ ह्रीं धन ! संहनन मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दूज सामुद्रिक पोथी ।
निधी संस्थान अनोखी ।।
संज्ञा सम चतु रस्र ।
नुति अर कोटि सहस्र ।।७।।
ॐ ह्रीं छटा संस्थाँ मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नेत्र दो कब छक पाया ।
इन्द्र दृग् सहस बनाया ।।
रूप न ऐसा और ।
नुति अर जिन सिर मौर ।।८।।
ॐ ह्रीं सुन्दर, तन मन्दर मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कोटि-भट लगे न आगे ।
बल अपरिमित बड़-भागे ।।
पुण्य-पूर्व परिणाम ।
जयतु अरह जिन स्वाम ।।९।।
ॐ ह्रीं संबल मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कान दे सुनते प्राणी ।
‘कोकिला’ मनहर वाणी ।।
मिसरी घोल अमोल ।
नुति अर चरित अड़ोल ।।१०।।
ॐ ह्रीं बोल अमोल मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुगन्धित-तन, लहु श्वेता ।
लखन, निर्मल, नि:श्वेदा ।।
अर संहनन, संस्थान ।
छव, बल-अतिशय-वाण ।।
ॐ ह्रीं दश-जन्मातिशय मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चतुर्थ वलय पूजन विधान की जय
*केवलज्ञानातिशय*
चार अंगुल उठ चाले ।
‘निराकुल’ भोले-भाले ।।
गगन-गमन खुद भाँत ।
चरणन अर प्रणिपात ।।१।।
ॐ ह्रीं ‘गगन-चरन’ गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
वृद्धि नख-शिख रुक चाली ।
हाँप-मृग थमने वाली ।।
अतिशय ज्ञान अनन्त ।
जयतु अरह भगवन्त ।।२।।
ॐ ह्रीं नग केश-नख गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रिद्धिंयाँ आई हिस्से ।
सिद्धिंयाँ रहीं न किस्से ।।
विद्या-सर्व अधीश ।
जयतु अरह जगदीश ।।३।।
ॐ ह्रीं ‘विद्यालय’ गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
थमा पलकों का झपना ।
रमा-कैवल्य न सपना ।।
टिकी दृष्टि नासाग्र ।
नुति अर ‘सहजे-काग्र’ ।।४।।
ॐ ह्रीं झलक अपलक गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देह की पड़े न छाया ।
तेज रवि कोटि समाया ।।
जग इक ज्योति स्वरूप ।
जयतु अरह जिन भूप ।।५।।
ॐ ह्रीं छाया माया गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लगे उपसर्ग किनारे ।
हाथ गुण नन्त पिटारे ।।
केवल ज्ञान प्रभाव ।
जयन्त अरह जिन राव ।।६।।
ॐ ह्रीं ‘हन विघन’ गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
निजामृत झरना फूटा ।
‘ग्रास’ से पीछा छूटा ।।
क्यों-कर कवलाहार ।
वन्दन अर शत बार ।।७।।
ॐ ह्रीं अन अनशन गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
समेटी किल्विष माया ।
सुभिख शत योजन छाया ।।
ईति-भीति छव क्षीण ।
नुति अर साँझन तीन ।।८।।
ॐ ह्रीं इक सुभिख गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बाद दीक्षा कब बोला ।
मौन इक पर हित खोला ।।
करुणा दया निधान ।
नुति अर पुरुष-पुराण ।।९।।
ॐ ह्रीं ‘मा-हन्त’ गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चार मुख दिखने लागे ।
दिखा के पीठ न भागे ।।
इक भव-जलधि जहाज ।
जयतु अरह जिन राज ।।१०।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुख प्रतिभा गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गगन-नभ, थिर नख-केशा ।
सिन्धु-विद्या, अनिमेषा ।
छाँव न विघ्न अहार ।
सुभिख दया मुख चार ।।
ॐ ह्रीं दश केवल-ज्ञानातिशय मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पंचम वलय पूजन विधान की जय
*देवकृतातिशय*
आठ अर सहस्र आरे ।
देव जिसके रखवाले ।।
धर्म चक्र गतिमान ।
नुति अर कोटि प्रमाण ।।१।।
ॐ ह्रीं अग्र धर्मचक्र गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पद्म जुग शतक पचीसा ।
देव विरचें नत शीषा ।।
अवसर पाय विहार ।
नुति अर बारम्बार ।।२।।
ॐ ह्रीं पद पद्म गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
झिरायें झीनीं-झीनीं ।
बूँद पानी अनचीनीं ।।
मिलके सुर अर नाग ।।
नुति अर वशि अनुराग ।।३।।
ॐ ह्रीं मोहक गन्धोदक गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अलौकिक आप सरीखी ।
भूमि दर्पण सी दीखी ।।
जन त्रिभुवन चित्-चोर ।
नुति अर नम दृग् कोर ।।४।।
ॐ ह्रीं फर्श आदर्श गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मोर मन भाव विभोरा ।
झूम-झुक थोड़ा-थोड़ा ।।
सहज डूब ले साध ।
नुति अर श्री फल हाथ ।।५।।
ॐ ह्रीं साध आह्लाद गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पाठ मंगल सुर न्यारे ।
आठ मंगल सिर धारे ।।
नार देव गन्धर्व ।
नुति अर प्रद शिव स्वर्ग ।।६।।
ॐ ह्रीं वस मंगल गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
शूल कर चुके प्रयाणा ।
धूल न नाम निशाना ।।
स्वच्छ विनिर्मल पन्थ ।
जयतु अरह जगवृन्द ।।७।।
ॐ ह्रीं ‘मा-रग’ गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
द्वार भगवान् पधारे ।
लगा के जय-जयकारे ।।
कहे जगत् से देव ।
नुति जिन-अरह सदैव ।।८।।
ॐ ह्रीं स्वर सुर गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फूल फल डाली डाली ।
ऋत न किस मनी दिवाली ।।
माया देव अचिन्त ।
नुति अर भद्र-समन्त ।।९।।
ॐ ह्रीं ऋत-ऋत गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मित्र से अम्बर धरती ।
कहे ‘गलती’ मैं गलती ।।
शिक्षा-कक्षा दूज ।
नुति अर त्रिभुवन पूज ।।१०।।
ॐ ह्रीं ‘मै-त्र’ ‘गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सहज समझें सब प्राणी ।
यदपि अनक्षरी वाणी ।।
अर्ध-मागधी भाष ।
जय जय अर गुण राश ।।११।।
ॐ ह्रीं भाष अध-मागध गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जहाँ तक नजरें जातीं ।
कहीं भी धूम न पातीं ।।
दिग्-दिगन्त अमलान ।
नुति पूरण-अरमान ।।१२।।
ॐ ह्रीं ‘दिशा’ गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मेघ न नाम निशाना ।
स्वच्छ नभ शरद् समाना ।।
महिमा देव अनन्य ।
आराधक अर धन्य ।।१३।।
ॐ ह्रीं मगन गगन गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
करे नित आना-आना ।
मन्द, सुरभित पवमाना ।।
झूमे मानस हंस ।
नुति ‘अर’ बासुरी वंश ।।१४।।
ॐ ह्रीं ह-वा…वा-ह गुण मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धर्म ‘वृत’, गुल, जल-गंधा ।
भूम दर्प’ण मुख पन्था ।।
‘सुर’, ‘ऋत’, मैत्री,भाष ।
दिश्-नभ ‘अन’ वाताश ।।
ॐ ह्रीं चतुर्दश देव-कृतातिशय मण्डिताय
श्री अर जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*जयमाला-लघु-चालीसा*
दोहा
जीवन अपना आपने,
पर हित किया निछार ।
भक्तों का ताँता तभी,
ऐसा और न द्वार ।।
तुम भक्तों के एक सहारे ।
तभी एक सुर गये पुकारे ।।
कहो, न किस की मनी दिवाली ।
गई पुकार न अब तक खाली ।।१।।
कमल खिले, सरवर बन चाला ।
जग भखने वाली हा ! ज्वाला ।।
गंग जमुन दृग्-गद-गद वाणी ।
सुन पुकार सति सीता रानी ।।२।।
सुन पुकार सति द्रुपद-दुलारी ।
भाँत-मात मुख चीख निकाली ।।
चीर क्षितिज सरहद उस पारा ।
जीता जिन ‘शासन’ अर हारा ।।३।।
दूर पैर, पड़ते ही छाया ।
पट खुल पड़े बिलाई माया ।।
दी आवाज हृदय इक सच्चे ।
‘सति-नीली’ मुख बच्चे-बच्चे ।।४।।
सति सोमा ने टेर लगाई ।
फिर तुमने कब देर लगाई ।।
जोड़े वाला विषधर काला ।
बन चाला फूलों की माला ।।५।।
बजरंगी वज्रांकित लेखा ।
छार-छार शिल काँपी देखा ।।
हाथ जोड़ कर सिर नाया है ।
सति अंजन तुम जश गाया है ।।६।।
चन्दन-बाला ले नम नयना ।
कुछ कह पाती गद-गद वयना ।।
लिये आखड़ी वीर पधारे ।
बंधन तड़-तड़ टूटे सारे ।।७।।
कामदेव सी सुन्दर काया ।
गलित कोढ़ का तुरत सफाया ।।
मैना सुन्दरी भक्त तिहारी ।
बात गई न उसकी खाली ।।८।।
बात भक्त मुख से क्या निसरी ।
रखा भाँत माँ, मुख दधि-मिसरी ।।
भक्त कहें वैसी कहते हो ।
भक्तों के वश में रहते हो ।।९।।
मैं क्या कहूँ, कहे जग सारा ।
सुन, मैंने तो चित्र उतारा ।।
ओ ठहरे तुम अन्तर्जामी ।
तुम्हें बताना दुख क्या स्वामी ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री अर जिनेन्द्राय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
दोहा
‘सहज निराकुल’ रह सकूँ,
यही भावना एक ।
बड़े और कोई नहीं,
मेरे अरमाँ नेक ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
‘आरती’
भगवन्-अरह, भगवन्-अरह,
भगवन्-अरह मेरे ।
तेरी उताऊँ आरती मैं,
साँझ अर सबेरे ।।
सुन तुम्हें आना गरभ में,
झिर लगा बरसे रतन ।
मित्र-सेना नाम माता,
देखतीं सोलह सुपन ।।
सेव लो स्वीकार माँ,
देविंयाँ खड़ीं घेरे ।
भगवन्-अरह, भगवन्-अरह,
भगवन्-अरह मेरे ।
नृप-सुदर्शन धन्य जिनके,
घर लिया तुमने जनम ।
मेर धन ! धन ! क्षीर-सागर,
न्हवन कर धन ! सौधरम ।।
रूप ऐसा अलौकिक,
मुड़-मुड़ न कौन हेरे ।
भगवन्-अरह,भगवन्-अरह,
भगवन्-अरह मेरे ।
चक्रवर्ती, कामदेवा,
आप अर तीर्थंकरा ।
मोह तोड़ा, राज छोड़ा,
भेष दैगम्बर धरा ।
चुके जोन चुरास-लख,
अर चार-गत फेरे ।
भगवन्-अरह,भगवन्-अरह,
भगवन्-अरह मेरे ।
ज्ञान-दर्शन ‘नन्त’ सुख-बल,
लग चला सम-शरण है ।
जात-वैर विड़ार बैठा,
सिंह वहीं पर हिरण है ।।
बन चली वसुधा कुटुम,
कोई न दृग् तरेरे ।
भगवन्-अरह, भगवन्-अरह,
भगवन्-अरह मेरे ।
जर चले ध्या-नाग्नि में अर,
थे बचे जेते सभी ।
शिव लगे, इक समय में जा,
आप ऋजु-गत से तभी ।।
बनूँ ‘सहजो-निराकुल’,
आखिर समान तेरे ।।
भगवन्-अरह, भगवन्-अरह,
भगवन्-अरह मेरे ।
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