परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 26
महक रहा जीवन चन्दन जैसा ।
चमक रहा ‘री तन कंचन जैसा ।।
क्या बताऊँ सखी ।
सारी दुनिया निरखी ।
मिला न कोई इन जैसा ।।स्थापना।।
मिला ना गुरुवर तुम सा,आईना जग में ।
देख जिसे पग पुन: लौट आते, मग में ।।
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना ।। जलं।।
मैं ना मानूँ कल्प-वृक्ष, तुमसे अच्छा ।
नाम सुमरते ही हो चली, पूर्ण इच्छा ॥
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना ।। चंदन।।
शशि भी बगलें झाँका करता तुम आगे ।
देख तुम्हें मिथ्यातम उलटे, पग भागे ।।
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना ।। अक्षतम्।।
कहाँ बागवानी में और आप सानी ।।
शिष्य आपके आप भाँति, ज्ञानी ध्यानी ॥
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना ।।पुष्पं।।
जगत् आप सा निस्पृह-वैद्य, कहाँ स्वामी ।
जन्म-जरा-मृत हरे, करे जो, शिव-गामी ॥
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना ।। नैवेद्यं।।
आप भाँति ना कुम्भकार भुवनन सारे ।
बना सुराही कर दे जो वारे न्यारे ।।
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना।। दीपं।।
मिलना ना आसाँ तुम सा, खेवनहारा ।
पार कराये जो भव जल, अपरम्पारा ॥
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना ।। धूपं।।
कहाँ आपके भाँति दीप, त्रिभुवन माहीं ।
सूरदास भी ले जिसको, भटके नाहीं ॥
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना ।। फलं।।
कहाँ मत्स्य मुक्ता तुम सा, त्रिभुवन कोई ।
हाथ तिरे भव सिन्ध हाथ, जिसके होई ॥
अपने कूर्मोन्नत पैरों में, इक कोना ।
तेरा ही अपना मैं, दे मुझको दो ना ।। अर्घं।।
दोहा
नैनों में जिन के रहे,
सिन्धु ज्ञान तस्वीर ।
कृपया विद्या-सिन्धु वे,
मेंटे भव-भव पीर ॥
॥ जयमाला ॥
ग्राम सदलगा में जन्में जो,
शरद पूर्णिमा दिन ।
सद्गुरु विद्या सिन्ध,
वर्तमाँ कुन्द-कुन्द भगवन् ।।
पिता मल्लप्पा जिनके,
जिनकी माँ श्रीमति माता ।
महावीर जी नन्त, शान्ति जी,
जिनके त्रय भ्राता ॥
जिनकी ब्रह्म रमण शीला,
शान्ता स्वर्णा बहिनन ।
सद्गुरु विद्या सिन्ध,
वर्तमाँ कुन्द-कुन्द भगवन् ।।
विद्यालय में शिशु ना जिन जैसा,
प्रतिभाशाली ।
पढ़ते जो जिनधर्म समय जब,
मिलता था खाली ॥
जिनकी समकित भू सो झट ,
वैराग्य हुआ प्रकटन ।
सद्गुरु विद्या सिन्ध,
वर्तमाँ कुन्द-कुन्द भगवन् ।।
श्रमण देश भूषण से व्रत,
ब्रह्मचर्य लिया जिनने ।
विद्या अध्ययन ज्ञान गुरु पद,
छाँव किया जिनने ॥
जिन दीक्षा लीनी अजमेर,
नगर गुरु ‘कर’ कमलन ।
सद्गुरु विद्या सिन्ध,
वर्तमाँ कुन्द-कुन्द भगवन् ।।
जिन्हें ज्ञान गुरु ने अपना,
आचारज पद दीना ।
संघ ज्ञान गुरु आज्ञा से,
जिनने गुरुकुल कीना ॥
जिन सा निस्पृह निर्यापक,
मिलना मुश्किल त्रिभुवन ।
सद्गुरु विद्या सिन्ध,
वर्तमाँ कुन्द-कुन्द भगवन् ।।
नाम मूकमाटी कृति जिनकी,
काल-जयी भाई ।
जनहित ढ़ेर प्रकल्प आप,
गौरव गाथा गाई ।।
कहूँ कहाँ तक किसे गम्य,
जिनका महिमा कीर्तन ।
सद्गुरु विद्या सिन्ध,
वर्तमाँ कुन्द-कुन्द भगवन् ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
करूँ प्रार्थना आप से,
हाथ जोड़ कर नाथ ।
बालक भव भयभीत हूँ ,
रख लो अपने साथ ॥
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