‘वर्धमान मंत्र’
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*समर्पण भावना*
टूट चली चिर निद्रा,
जुड़ चली अपूर्व जाग ।
चीर घना अंधकार,
एक जग उठा चिराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
हाथ लगी कस्तूरी,
दूर दिखी दौड़-भाग ।
यादें अवशेष द्वेष,
चित् खाने चार राग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
भँवरे-सा पहर-पहर,
पिऊँ स्वानुभव पराग ।
अहा ! साँझ से पहले,
प्रकट हो चला विराग ।
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
‘धन्य घड़ी, धन्य भाग’
*विनय-पाठ*
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
अरिहन्त, सिद्ध, आचारज ।
उवझाय, साधु चरणा-रज ।।
दैगम्बर-प्रतिमा अ-प्रतिम ।
जिन भवन किर-तिमा किर-तिम ।।
नभ-चुम्बी, शिखर-जिनालय ।
पच-रंगी, ध्वज, ग्रन्थालय ।।
समशरण, जिनागम-धारा ।
जिन-धर्म-अहिंसा न्यारा ।।
कल्याण-धरा-रत्नत्रय ।
जिन-सिद्ध-क्षेत्र-‘धर’-अतिशय ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
जिन-वृषभ, अजित, सम्भव-जिन ।
अभि-नन्दन सम्बल दुर्दिन ।।
जिन-सुमति, पदम-प्रभ पाँवन ।
जिन-सुपार्श्व प्रभ-शशि आनन ।।
जिन-पुष्प-दन्त ‘मत’ शीतल ।
जिन-श्रेय-पूज्य बल-निर्बल ।।
जिन-विमल, नन्त-जिन वन्दन ।
जिन-धर्म, शान्ति सुर-नन्दन ।।
जिन-अरह, मल्ल, मुनि-सुव्रत ।
नमि, नेम, पार्श्व, प्रद-सन्मत ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
गुरु गौतम अपूर्व गणधर ।
धर-सेन अंग-पूरब-धर ।।
युग आद-पुराण-प्रणेता ।
पाहुड अध्यात्म रचेता ।।
मत अनेकांत संपोषक ।
सिद्धान्त जैन उद्घोषक ।।
व्यवहार लोक व्याख्याता ।
अनुशासन शब्द विधाता ।।
जित-प्रवाद, ऊरध-रेता ।
पाहुड़-वैद्यिक, अध्येता ।।
कर्तार गणित जैनागम ।
कर्त्ता अगणित जैनागम ।।
बिन तेरे कौन हमारा ।
इक तेरा सिर्फ सहारा ।।
“पुष्पांजलिं क्षिपामि”
अथ अर्हत् पूजा-प्रतिज्ञायां
पूर्वा-चार्या नुक्रमेण
सकल-कर्म-क्षयार्थं
भावपूजा वन्दनास्तव-समेतं
पंच-महागुरु भक्ति
कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।।
ॐ
जय-जय-जय
नमोऽतु-नमोऽतु-नमोऽतु
सब अरिहन्तों को नमस्कार ।
सारे सिद्धों को नमस्कार ।।
आचार्य-वन्दना-उपाध्याय ।
नुति-साध-‘साध’ मन वचन काय ।।
ॐ ह्रीं अनादि-मूल-मंत्रेभ्यो नमः
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
मंगल जग चार, प्रथम अरिहन ।
मंगल शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त मंगल ।
इक दया प्रधान पन्थ मंगल ।।
उत्तम जग चार, प्रथम अरिहन ।
उत्तम शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर-साधु-सन्त उत्तम ।
इक दया प्रधान पन्थ उत्तम ।।
शरणा जग चार, प्रथम अरिहन ।
शरणा शशि-दूज सिद्ध-भगवन् ।।
दैगम्बर साधु-सन्त शरणा ।
इक दया प्रधान पन्थ शरणा ।।
ॐ नमोऽर्हते स्वाहा
पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
थिर-अथिर अपावन पावन भी ।
कारण वशि-भूत अकारण ही ।।
नवकार मंत्र जो ध्याता है ।
कालिख चिर पाप मिटाता है ।।
दे… खो क्रन्दन, भीतर आया ।
देखो अंजन भी’तर’ आया ।।
भा-परमातम सुमरण करता ।
आखिर आतम सु-मरण करता ।।
नवकार मन्त्र यह नमस्कार ।
करता पापों को छार-छार ।।
अपराजित मंत्र यही विरला ।
सब मंगल में मंगल पहला ।।
आ-रती प्रथम अरिहन्तों की ।
आ-रती दूसरी सिद्धों की ।।
आचार्य आ-रति उपाध्याय ।
आ-रती पाँचवी सन्तों की ।।
बीजाक्षर ‘अ’ अरिहन्तों का ।
बीजाक्षर ‘सि’ श्री सिद्धों का ।।
आचारज ‘अ’-‘उ’ उपाध्याय ।
नुति बीजाक्षर ‘सा’ सन्तों का ।।
प्रकटाये आठ शगुन विराट ।
जिनने विघटाये कर्म-आठ ।।
इक वर्तमान वधु-मुक्ति कन्त ।
वे सिद्ध तिन्हें वन्दन अनन्त ।।
*दोहा*
करते ही जिन अर्चना,
भक्ति-भाव भरपूर ।
भीति शाकिनी-डाकिनी,
सर्पादिक विष दूर ।।
‘पुष्पांजलिं क्षिपामि’
( पुष्पांजलि क्षेपण करें )
*पंचकल्याणक अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
भगवज्-जिनेन्द्र कल्याण पञ्च ।
नहिं रहें दूर कल्याण रञ्च ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवतो
गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण पंच-कल्याण-केभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पंच परमेष्ठी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
परमेष्ठि पञ्च गुरु पाद-मूल ।
करने अब तक के पाप धूल ।।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत-सिद्धा-चार्यो
पाध्याय सर्व-साधुभ्यो
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*श्री जिन-सहस्र-नाम का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिनवर इक हजार आठ नाम ।
रत ‘सु-मरण’ गुजरें तीन शाम ।।
ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिन-
अष्टकाधिक सहस्र नामेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*जिनवाणी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
जिन-देव मुखोद्-भूत माता ।
दो जोड़ ज्ञान-केवल नाता ।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि तत्त्वार्थ-सूत्र-दशाध्याय
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*आचार्य श्री जी का अर्घ्य*
जल, फल, धाँ-शालि, पुष्प, चन्दन ।
चरु, दीप, धूप भेंटूँ चरणन ।।
निर्ग्रन्थ तीन कम नव करोड़ ।
दो सुख अबाध से डोर जोड़ ।।
ॐ ह्रीं आचार्य श्रीविद्यासागरादि-
त्रिन्यून-नव-कोटी मुनि-वरेभ्यो
अर्घ्यं निर्व-पामीति स्वाहा ।।
*पूजा-प्रतिज्ञा-पाठ*
अभ्यर्चित मूल संघ जैसी ।
विधि पूजन अपनाऊँ वैसी ।।
अरिहन्त सिद्ध आचार-वन्त ।
करके वन्दन उवझाय सन्त ।।
नित करें जगत् गुरुवर मंगल ।
नित करें जगत पल-पल मंगल ।।
नित करें चतुष्क-नन्त मंगल ।
नित करें चतुष्क-वन्त मंगल ।।
नित करें वंश-मति-हर मंगल ।
नित करें हंस-मति-धर मंगल ।।
नित करें विपद्-मोचन मंगल ।
नित करें जगत्-लोचन मंगल ।।
इक आप जितेन्द्रिय मैं दूजा ।
हो सकूँ, आप ठानूँ पूजा ।।
आठों द्रव्यों को लिये हाथ ।
भावों की शुचिता लिये साथ ।।
संचित अब-तलक पुण्य अपना ।
तुम केवल-ज्ञान रूप अगना ।।
जो, उसमें करता आज होम ।
बन साध, साध लूँ जाप ओम् ।।
ॐ ह्रीं विधि-यज्ञ-प्रतिज्ञानाय
जिन-प्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*स्वस्ति-मंगल-पाठ*
वृषभ स्वस्ति ।
अजित स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सम्भव जिन ।
स्वस्ति-स्वस्ति अभिनन्दन ।
सुमत स्वस्ति ।
पदम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति सुपार्श्व धन ।
स्वस्ति-स्वस्ति चन्द्र-लखन ।
सुविध स्वस्ति ।
शीतल स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति श्रेयस् दूज ।
स्वस्ति-स्वस्ति वासव-पूज ।
विमल स्वस्ति ।
अनन्त स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति नाथ-धरम ।
स्वस्ति-स्वस्ति शान्त-परम ।
कुन्थ स्वस्ति ।
अरह स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति मल्ल-जगत ।
स्वस्ति-स्वस्ति मुनि-सुव्रत ।
नमि स्वस्ति ।
नेम स्वस्ति ।
स्वस्ति-स्वस्ति पार्श्व-गभीर ।
स्वस्ति-स्वस्ति सन्मत-वीर ।
इति श्री-चतु-र्विंशति-तीर्थंकर
स्वस्ति मंगल-विधानं
पुष्पांजलिं क्षिपामि ।।
*परमर्षि-स्वस्ति-पाठ*
धन ! केवल-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।
मन-पर्यय-ज्ञान ऋद्धि-धारी ।।
धर-अवधि-ज्ञान जागृत पल-पल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर ऋद्धि एक कोष्-ठस्थ नाम ।
इक बीज पदनु-सारिणि प्रणाम ।।
धर सम्-भिन्-नन, सन्-श्रोतृ, सकल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
संस्पर्श, श्रवण, दूरास्वादन ।
धर-ऋद्धि दूरतः अवलोकन ।।
धर-दूर-घ्राण जल-भिन्न-कमल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
दश-चार ‘पूर्व’ दश बुध-प्रतेक ।
बुध-महा-निमित-अष्टांग एक ।।
धर-प्रज्ञा-श्रमण प्रवादि अचल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल।।
धर-जंघा-चारण, तन्तु, अगन ।
बीजांकुर-चारण, पुष्प-गगन ।।
पर्वत, श्रेणी ‘चारण’ जल-फल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-अणिमा, महिमा ऋद्धि एक ।
धर-गरिमा, लघिमा ऋद्धि नेक ।।
धर-ऋद्धि वचन, काया, मन, बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
वशि अन्तर्-धानिक काम-रूप ।
अप्-प्रती-घात आप्तिक अनूप ।।
प्राकाम्य-ऋद्धि-धर, नैन-सजल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
धर-दीप्त, तप्त, ब्रम-चर्य-घोर ।
मह-दुग्र, घोर, धर-वर्य-घोर ।।
थित-घोर-पराक्रम बल-निर्बल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
आमर्ष सर्व-विष आशि-अविष ।
औषध-क्ष्वेल, विष-दृष्टि-अविष ।।
विड्-औषध, औषध-जल्लरु-मल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
अक्षीण-महानस, घृत-स्रावी ।
अक्षीण-संवास, अमृत-स्रावी ।।
इक ‘सहज-निराकुल’ हृदय-सरल ।
ऋषि करें हमारा नित मंगल ।।
इति परमर्षि स्वस्ति-मंगल-विधान
पुष्पांजलि
‘पूजन’
मंगल कार, अमंगल हार ।
जय-जय जयतु, जयतु जयकार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
साध-समाध, आद-अवतार ।
घात अघात, हाथ भव पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
आये द्वार लिये दृग् धार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाये द्वार गंध घट न्यार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाये द्वार धान मनहार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अक्षयपद प्राप्तये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाये द्वार पुष्प दिव क्यार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
कामबाण-विध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाये द्वार चारु चरु थार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
क्षुधारोग-विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाये द्वार दीप रतनार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाये द्वार सुगन्ध अपार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अष्टकर्म-दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाये द्वार बदाम, अनार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
मोक्षफल-प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लाये द्वार द्रव्य जुग चार ।
नौ-मँझधार लगा दो पार ।।
नन्दा नन्द, सुनन्दा नन्द ।
आद जिनन्द, वन्दना नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयमाला लघु चालीसा
‘दोहा’
सुमरण सु-मरण सा कहा,
आ लें दो पल साध ।
हो चाले यूँ ही नहीं,
मरण अखीर समाध ।।
मन से था किया बस याद ।
मन की हुई पूर्ण मुराद ।।
करुणा दया अवतारी ।
महिमा प्रभु पुरु न्यारी ।।१।।
बदली सरोवर में आग ।
सुलटा भाग निशि जल त्याग ।।
सर्वग काल-कलि ग्वाला ।
हितु रघु सोन पर वाला ।।२।।
मन से था किया बस याद ।
मन की हुई पूर्ण मुराद ।।
करुणा दया अवतारी ।
महिमा प्रभु पुरु न्यारी ।।३।।
लग पग खुले वज्र कपाट ।
मेंढ़क स्वर्ग सुर सम्राट ।।
धागे चीर नभ आगे ।
अहि, कपि, नकुल तट लागे ।।४।।
मन से था किया बस याद ।
मन की हुई पूर्ण मुराद ।।
करुणा दया अवतारी ।
महिमा प्रभु पुरु न्यारी ।।५।।
अन्जन बाल वज्जर अंग ।
बन्धन बाल चन्दन भंग ।।
अंजन चोर नभ गामी ।
नागिन नाग जग स्वामी ।।६।।
मन से था किया बस याद ।
मन की हुई पूर्ण मुराद ।।
करुणा दया अवतारी ।
महिमा प्रभु पुरु न्यारी ।।७।।
बदली सिंहासन में शूल ।
थे घट नाग, निकले फूल ।।
धी’वर त्याग इक मछरी ।
केशर भाग दधि मिसरी ।।८।।
मन से था किया बस याद ।
मन की हुई पूर्ण मुराद ।।
करुणा दया अवतारी ।
महिमा प्रभु पुरु न्यारी ।।९।।
मैं भी हाय ! दुखिया एक ।
जोडूँ हाथ मत्था टेक ।।
मुझको बना तो अपना ।
सहजो निरा’कुल सपना ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘दोहा’
मेरे अपने आप हैं,
और न आप सिवाय ।
साँझ तलक कृपया कृपा,
रखिये नाथ बनाय ।।
‘परि पुष्पांजलिं क्षिपामि’
‘विधान प्रारंभ’
राज तज, भज वन, वस्त्र उतार ।
साक्ष सिध दीक्षित, केश उखाड़ ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्र !
अत्र अवतर अवतर संवौषट्
(इति आह्वानन)
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्र !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:
(इति स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्र !
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्
(इति सन्निधिकरणम्)
‘बीजाक्षर नवार्घ’
जयतु जय-जय, जय-जय अरिहन्त ।
जयतु जय-जय, जय सिद्ध अनन्त ।।
जयतु जय सूर, जयतु उवझाय ।
जयतु जय नूर-जगत मुनिराय ।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ ॡ
अक्षर असिआ उसा नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम मंगलमय श्री अरिहन्त ।
द्वितिय मंगलमय सिद्ध अनन्त ।।
तृृतिय मंगल मुनि विद् धुनि मर्म ।
तुुरिय मंगलम् अहिंसा धर्म ।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं ए ऐ ओ औ अं अः
अक्षर चतुर्विध मंगलाय नमः
पूर्व-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम परमोत्तम श्री अरिहन्त ।
द्वितिय परमोत्तम सिद्ध अनन्त ।।
तृृतिय उत्तम मुनि विद् धुनि मर्म ।
तुुरिय उत्तमम् दयामय धर्म ।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं क ख ग घ ङ
अक्षर चतुर्विध लोकोत्तमाय नमः
आग्नेय-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम शरणम् श्री जी अरिहन्त ।
द्वितिय शरणम् श्री सिद्ध अनन्त ।।
तृृतिय शरणम् मुनि विद् धुनि मर्म ।
तुुरिय शरणम् करुणामय धर्म ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं च छ ज झ ञ
अक्षर चतुर्विध शरणाय नमः
दक्षिण-दिशि अर्घ निर्वापमिति स्वाहा ।।
हाथ लग चाला दर्शन नन्त ।
साथ लग चाला ज्ञान अनन्त ।।
पड़ चला झोली अनन्त सौख ।
नन्त बलवाँ प्रत्याशी मोख ।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं ट ठ ड ढ ण
अक्षर आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय नमः नैऋत्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिव्य धुन, बरषा पुष्प अमोल ।
छत्र, भामण्डल, दुन्दुभि बोल ।।
सिंंहासन, चामर, वृक्ष अशोक ।
आद, सुत-आद बाहुबल ढ़ोक ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं त थ द ध न
अक्षर आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय नमः
पश्चिम-दिशि अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।।
सुगन्धित देह, दिव्य संस्थान ।
लखन नाना, बल अतुलित वाण ।।
नूप संहनन, निर्मल, निश्वेद ।
रूप सुन्दर, रग-रग लहु श्वेत ।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं प फ ब भ म
अक्षर आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय नमः
वायव्य-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुभिख, करुणा, माया मुख चार ।
अभुक्, बिन छाया गगन विहार ।।
विगत-उपसर्ग, अगत नख-केश ।
सर्व विद्या अधिपति, अनिमेष ।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं य र ल व
अक्षर आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय नमः
उत्तर-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘मित्र’ ‘सुर’ ‘ऋत-ऋत’ ‘पुष्प’ वताश ।
स्वच्छ दिश्, भाँत शरद आकाश ।।
सुमंगल, धर्म चक्र, दिव पन्थ ।
भूम दर्प’ण सुभाष जल-गन्ध ।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह
अक्षर आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय नमः
ईशान-दिशि अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रथम वलय पूजन विधान की जय
*अनन्त चतुष्टय*
देखते एक साथ जग तीन ।
दर्श प्रकटित, अरि-दर्श विलीन ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१।।
ॐ ह्रीं अनन्त-दर्शन मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जानते एक साथ जग तीन ।
सर्व विद् ज्ञानावरण विहीन ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।२।।
ॐ ह्रीं अनन्त-ज्ञान मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कर्म मोहन इक सर्व विनाश ।
हाथ स्वयमेव नन्त सुख राश ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।३।।
ॐ ह्रीं अनन्त सुख मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बना, उतना अपना तप त्याग ।
लब्ध वीरज अनन्त फल जाग ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।४।।
ॐ ह्रीं अनन्त वीर्य मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हाथ लग चाला दर्शन नन्त ।
साथ लग चाला ज्ञान अनन्त ।।
पड़ चला झोली अनन्त सौख ।
नन्त बलवाँ प्रत्याशी मोख ।
ॐ ह्रीं अनन्त-चतुष्टय मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
द्वितीय वलय पूजन विधान की जय
*अष्ट प्रातिहार्य*
घड़ी छह-छह खिर चाली शाम ।
दिव्य धुन करे मोक्ष शिव नाम ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१।।
ॐ ह्रीं दिव्य-ध्वनि-मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पुष्प बरसात नन्द-दिव क्यार ।
न यदवा-तदवा, बाँध कतार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।२।।
ॐ ह्रीं पुष्प-वृष्टि-मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रूप रख तीन, समेत सितार ।
छत्र मिस सेवक चन्द्र-कुमार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।३।।
ॐ ह्रीं छत्र-त्रय-मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेज इतना, जितना लख भान ।
सौम्य भामण्डल सोम समान ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।४।।
ॐ ह्रीं भामण्डल-मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तुही तू ही तुरही इक नाद ।
सभी बाजे बाजे इक साथ ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।५।।
ॐ ह्रीं देवदुन्दुभि-मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
खचित मण-रत्न, विनिर्मित सोन ।
सिंहासन और न ऐसा भौन ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।६।।
ॐ ह्रीं सिंहासन-मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हो चली चाँदी-चाँदी देव ।
ले चँवर चाँदी साधी सेव ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।७।।
ॐ ह्रीं चामर मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सार्थ संज्ञा धर विरख अशोक ।
नाथ पा…तर दे चरणन ढ़ोक ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।८।।
ॐ ह्रीं वृक्ष अशोक, मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिव्य धुन, बरषा पुष्प अमोल ।
छत्र, भामण्डल, दुन्दुभि बोल ।।
सिंंहासन, चामर, वृक्ष अशोक ।
आद, सुत-आद बाहुबल ढ़ोक ।।
ॐ ह्रीं अष्ट-प्रातिहार्य-मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तृतीय वलय पूजन विधान की जय
*जन्मातिशय*
‘इतर’ तन शरमाये कस्तूर ।
देख मद चन्दन-चूरी-चूर ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१।।
ॐ ह्रीं सौरभ गौरव मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अंग संरचना शास्त्र प्रमाण ।
दिव्य सम चतु रस्रिक संस्थान ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।२।।
ॐ ह्रीं छटा संस्थाँ मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पद्म, कलशा, मन्दिर, ध्वज, शंख ।
सहस उपलक्षण चिन्ह असंख ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।३।।
ॐ ह्रीं ‘लाखन’ गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फूँकते ही ‘गिर’ सार्थक नाम ।
देख भट-कोट ओट यम धाम ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।४।।
ॐ ह्रीं संबल मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कहे मन सुन के फिर इक बार ।
बोल अमरित परिमित हितकार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।५।।
ॐ ह्रीं बोल अमोल मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
छटा संहनन वज वृषभ नराच ।
दूर जा दीखे संहनन काँच ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।६।।
ॐ ह्रीं धन ! संहनन मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
महा पुरुषों की महिमा धन्य ।
विनिर्मल देह सातिशय पुण्य ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।७।।
ॐ ह्रीं निर्मल गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देव आगे-पीछे हित सेव ।
बिन्दु श्रम माथ न हाथ पसेव ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।८।।
ॐ ह्रीं हीन पसीन गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दाग शशि हिस्से चन्दन नाग ।
सत्य, शिव, सुन्दर तुम बड़भाग ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।९।।
ॐ ह्रीं सुन्दर, तन मन्दर मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
क्षमा करुणा के आप निधान ।
न अचरज, शोणित दुग्ध समान ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१०।।
ॐ ह्रीं सित शोणित मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुगन्धित देह, दिव्य संस्थान ।
लखन नाना, बल अतुलित वाण ।।
नूप संहनन, निर्मल, निश्वेद ।
रूप सुन्दर, रग-रग लहु श्वेत ।।
ॐ ह्रीं दश-जन्मातिशय मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चतुर्थ वलय पूजन विधान की जय
*केवल-ज्ञानातिशय*
नत-विनत ईति-भीति सर टके ।
सुभिख योजन शतेक अभिलेख ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१।।
ॐ ह्रीं इक सुभिख गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सम शरण साधें पर हितकार ।
धन ! दया, दयावान जयकार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।२।।
ॐ ह्रीं ‘मा-हन्त’ गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चतुर्मुख प्रतिभा एक निशान ।
चार मुख अतिशय केवल ज्ञान ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्मुख प्रतिभा गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अपूरब फूटी अमरित धार ।
कहो फिर, क्यों कर कवलाहार ?
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।४।।
ॐ ह्रीं अन अनशन गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेज तुम, तुम सा निस्सन्देह ।
पड़े फिर क्यों कर छाया देह ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।५।।
ॐ ह्रीं छाया माया गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
उठ चले ‘भू से’ अंगुल चार ।
निरा’कुल सहजो गगन विहार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।६।।
ॐ ह्रीं ‘गगन-चरन’ गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुम कहीं हो चाले उपसर्ग ।
होड़ चुक चाली जो तिय-वर्ग ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।७।।
ॐ ह्रीं ‘हन विघन’ गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दूर से दिखने लगा स्वदेश ।
वृद्धि रुक चाली लो नख-केश ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।८।।
ॐ ह्रीं नग केश-नख गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नेक तज, साधा इक इस बार ।
रीझ चाला विद्या परिवार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।९।।
ॐ ह्रीं ‘विद्यालय’ गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दूर जा खड़ी पलक टिमकार ।
हुई क्या स्वात्म झलक दृग् चार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१०।।
ॐ ह्रीं झलक अपलक गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुभिख, करुणा, माया मुख चार ।
अभुक्, बिन छाया गगन विहार ।।
विगत-उपसर्ग, अगत नख-केश ।
सर्व विद्या अधिपति, अनिमेष ।।
ॐ ह्रीं दश केवल-ज्ञानातिशय मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पंचम वलय पूजन विधान की जय
*देव-कृतातिशय*
नाक पर रखा न कोई भार ।
प्रीति गो-वत्स एक संचार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१।।
ॐ ह्रीं साध आह्लाद गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
एक-सुर साधें सुर, सुर-लोग ।
समशरण धुन मण-कांचन-योग ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।२।।
ॐ ह्रीं स्वर सुर गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
डाल पे लें ऋत-ऋत फल झूल ।
डाल पे झूलें ऋत-ऋत फूल ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।३।।
ॐ ह्रीं ऋत-ऋत गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पद्म शत जुग ऊपर पच्चीस ।
रचें सुर पल विहार जगदीश ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।४।।
ॐ ह्रीं पद पद्म गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुगन्धी महके आप समान ।
बह चले मन्द-मन्द पवमान ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।५।।
ॐ ह्रीं ह-वा…वा-ह गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दूर तक कहीं न दीखे धूम ।
शरद वत् दिश् मयूर मन झूम ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।६।।
ॐ ह्रीं ‘दिशा’ गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मेघ जा यम घर करें निवास ।
स्वच्छ ऋत शारद सा आकाश ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।७।।
ॐ ह्रीं मगन गगन गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देव गन्धर्व पढ़े जश-गाथ ।
देविंयाँ लिये सुमंगल आठ ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।८।।
ॐ ह्रीं वस मंगल गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
देख मिथ्या तम भागे दौड़ ।
प्रभावी धर्म चक्र शिर-मौर ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।९।।
ॐ ह्रीं अग्र धर्मचक्र गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धूल ना नामो-निशाँ न शूल ।
नाम सार्थक मा…रग अनुकूल ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१०।।
ॐ ह्रीं ‘मा-रग’ गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भूम दर्पण मानो आदर्श ।
डूब भीतर लग चले सहर्ष ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।११।।
ॐ ह्रीं फर्श आदर्श गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भावना वसुधा कुटुम्ब न्यार ।
खोल रक्खे सब ने उर द्वार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१२।।
ॐ ह्रीं ‘मै-त्र’ ‘गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अर्ध मागध इक भाष समृद्ध ।
समझ आ चले जुवाँ, शिश, वृद्ध ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१३।।
ॐ ह्रीं भाष अध-मागध गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लगा झिर मनहर गन्ध फुहार ।
बटोरें सुर-गण पुण्य अपार ।।
आद, सुत-आद, सुनन्दा नन्द !
साध व्रत, हित समाध, नुत नन्त ।।१४।।
ॐ ह्रीं मोहक गन्धोदक गुण मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘मित्र’ ‘सुर’ ‘ऋत-ऋत’ ‘पुष्प’ वताश ।
स्वच्छ दिश्, भाँत शरद् आकाश ।।
सुमंगल, धर्म चक्र, दिव पन्थ ।
भूम दर्प’ण सुभाष जल-गन्ध ।।
ॐ ह्रीं चतुर्दश देव-कृतातिशय मण्डिताय
श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
…जयमाला…
‘दोहा’
कोहनूर मत खोजिये,
रख अमोल अभिलाष ।
बेशकीमती क्षण सखे !
जो गुजरे प्रभु पास ।।
‘आद जयमाला’
पुरु देव नमः, पुरु देव नम:
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
सोलह सपने अपने मात
धार लगा रत्नन बरसात
लाये भव-भव पुण्य कमा
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
पुरु देव नमः, पुरु देव नम:
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
उतरा धरा स्वर्ग अभिलेख
सागर क्षीर मेर अभिषेक
नृत ताण्डव रत सौधर्मा
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
पुरु देव नमः, पुरु देव नम:
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
मुुष्ठी-पंच उखाड़े केश
वस्त्र उतार दिगम्बर भेष
रीझी केवल ज्ञान रमा
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
पुरु देव नमः, पुरु देव नम:
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
सभा समशरण स्वयं समान
मिल सिंह हिरण अमृत रसपान
दूज दया करुणा प्रतिमा
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
पुरु देव नमः, पुरु देव नम:
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
याद शेष जब कर्म अशेष
समय लगा जा लगे स्वदेश
तिथि कृष्णा कार्तिकी अमा
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
पुरु देव नमः, पुरु देव नम:
अवतार क्षमा, पुरु देव नमः
‘सुत आद जयमाला’
भरत घर में वैरागी
हंस मत जागी-जागी
पंक भी पड़ देखो ना
जंग न खाये सोना
वचन श्रुत बँधता रागी
हंस मत जागी-जागी
भरत घर में वैरागी
हंस मत जागी-जागी
भले पंकज कहलाता
हृदय कब पंक बसाता
सुरत आतम से लागी
हंस मत जागी-जागी
भरत घर में वैरागी
हंस मत जागी-जागी
सहस्र छियानव रानी
प्रीत पुर-नार बखानी
एक ‘भी’तर बड़भागी
हंस मत जागी-जागी
भरत घर में वैरागी
हंस मत जागी-जागी
‘विश्रुत सुत आद जयमाला’
बाहुबल, बाहुबल, बाहुबल
हिले नहीं, डुले नहीं
थे खड़े, खड़े वहीं
एक वर्ष तक अचल
बाहुबल, बाहुबल, बाहुबल
सूर क्रूर बन चला
फिर झला, गिर झला
खाय ठण्ड़, ठण्ड़ पल
बाहुबल, बाहुबल, बाहुबल
हिले नहीं, डुले नहीं
थे खड़े, खड़े वहीं
एक वर्ष तक अचल
बाहुबल, बाहुबल, बाहुबल
बेल चढ़ीं देह पे
देह तुम विदेह पै
अय ! ‘सहज निरा’कुल’
बाहुबल, बाहुबल, बाहुबल
हिले नहीं, डुले नहीं
थे खड़े, खड़े वहीं
एक वर्ष तक अचल
बाहुबल, बाहुबल, बाहुबल
ॐ ह्रीं श्री आद, भरत, बाहुबल जिनेन्द्राय
अनर्घ्यपद-प्राप्तये
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘दोहा’
आस पास रख लीजिये,
भुला हमारी भूल
घनी घनी ‘के पा सकूँ,
आप चरण की धूल ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
‘दोहा’
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ,भरत,बाहुबली जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
आरती
आद आद सुत, बाहुबली की
आओ आरती उतारो
आओ आरती उतारो
सोने का दीप बुला लो
करपूरी बाती बालो
आओ आरती उतारो
आओ आरती उतारो
आद साध इक कर्म दली की
आद आद सुत, बाहुबली की
आओ आरती उतारो
आओ आरती उतारो
प्रथम आरती सम्यक् दर्शन
कुछ हट अभूत-पूरब पर्शन
भीतर बाहर निर्मल दर्पण
द्वितिय आरती सम्यक् ज्ञाना
उपादेय क्या हेय पिछाना
हंस मानसी मोति दिवाना
तृतिय आरती सम्यक् चारित
पाप त्याग अनुमत कृत कारित
‘भीतर कछु’आ व्रत संस्कारित
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