परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 43
दिश् पूरब सूरज जनती ।
कुछ-कुछ यूँ माँ श्रीमन्ती ।।
धन ! बालक विद्याधर पा ।
हो चली अखर जश किरपा ।।स्थापना।।
जिन्हें निरखते ही,
आशा होती पूरी ।
आप आप शिव पुर से,
कम होवे दूरी ॥
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर पतितन ,
तारण तरणा ।।जलं।।
जादू सा है जिनके,
आशीर्वादों में ।
जो कब दृष्टिगोचर हुये,
विवादों में ।
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर,
पतितन तारण तरणा ।। चन्दनं।।
जिनकी मुस्काहट का जगत् ,
दिवाना है ।
ठाना जिनने अब शिव नार,
रिझाना है ।।
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर पतितन,
तारण तरणा ।।अक्षतं।।
मति मराल सँग जिनने ,
व्याह रचाया है।
धवल कीर्ति सुत को,
जिन्होंने जाया है ।।
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर ,
पतितन तारण तरणा ।। पुष्पं।।
त्रिभुवन क्या मीठा है ,
जिनके वचनों से ।
जिन्हें जान से ज्यादा नेह,
त्रिरतनों से ।।
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर पतितन,
तारण तरणा ।। नैवेद्यं।।
जो निजात्म बगिया में करें,
विहार सदा ।
इक पल भी गुरु भक्ति से ,
ना रहे जुदा ॥
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर पतितन,
तारण तरणा।। दीपं।।
सत्ता जिनके पास कहाँ,
अतिचारों की ।
कहाँ स्वैरता जिनके पास,
विचारों की ॥
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर पतितन,
तारण तरणा।।धूपं।।
किया स्व-पर को कब ,
हतोत्साहित जिनने ।
ध्यान कृपाण लिया जिनने ,
वसु अरि हनने ॥
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर पतितन,
तारण तरणा।।फलं।।
जिन जैसा है कौन फरिश्ता,
त्रिभुवन में,
कर सहाय न रखे अपेक्षा,
जो मन में ॥
छोटे बाबा,
गुरु विद्या सागर चरणा ।
कलि जुग भव सागर पतितन,
तारण तरणा ।।अर्घं।।
*दोहा*
मिलने मुश्किल सन्त है,
जिन जैसे निष्काम ।
श्रीगुरु विद्या वे तिन्हें,
अविरल नम्र प्रणाम ।
*जयमाला*
मिरे आदर्श बना चाहूँ अब,
तिरे जैसा ।
गिरि चारित्र चढ़ा चाहूँ अब,
तिरे जैसा ।।
किया उपकरणों का है ढ़ेर ,
आज तक मैंने ।
हुई न कब सुबह ‘कि देर ,
आज तक मैंने ।
असि खर-धार चला चाहूँ अब,
तिरे जैसा ।
गिरि चारित्र चढ़ा चाहूँ अब,
तिरे जैसा ।।
कीनि ताड़ित हा ! हन्त ! श्वान के ,
जैसे लकड़ी ।
बुना जो जाल तिस फँसा फँसे ,
जैसे मकड़ी ।
नादि उन्माद दला चाहूँ अब,
तिरे जैसा ।
गिरि चारित्र चढ़ा चाहूँ अब,
तिरे जैसा ||
तौल करता रहा हूँ हाय ! हा !
मण्डूकों की ।
हाय ! आता रहा हूँ टोलियों में,
झूठों की ।।
दृढ़ विश्वास जना चाहूँ अब,
तिरे जैसा ।
गिरि चारित्र चढ़ा चाहूँ अब,
तिरे जैसा ।।
अश्रु झलकाये मैंने हन्त ! हा !
निर्जन वन में ।
किया ना आज तक, ‘जु’ करना था ,
बालक-पन में ।।
वस-विध विधी हना चाहूँ अब ,
तिरे जैसा ।
गिरि चारित्र चढ़ा चाहूँ अब,
तिरे जैसा ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
*दोहा*
भूल गया हूँ राह मैं,
जाना है शिव गाँव ।
सँग अपने कर लीजिये,
ओ भावी शिव-राव ॥
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