परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 13
गुरुवर वर दो अन्त समय तक,
भेद ज्ञान आराधूँ मैं |
कहॉं सभी का सभी सध सका,
भन्त ! अन्त इक साधूँ मैं ॥
पर गलियों में भ्रमा अब तलक,
गलि अपनी दृग् रख पाऊॅं ।
ऐसा कुछ कर दो सिद्धों की,
पा कतार में भी जाऊँ ।।स्थापना ।।
ज्ञान स्वभावी हूॅं मैं मेरा,
नाता क्या पर द्रव्यन से ।
हन्त ! प्रमादी बन लेकिन मैं,
रखूॅं अटूट नेह धन से ॥
जड़ कर्मों के वशीभूत यूॅं ,
हा ! स्वतंत्रता खो दीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी॥जलं॥
हूँ अनन्त आनन्द स्वरूपी,
दुख से ना नाता मेरा ।
बन गाफिल हा ! बना हुआ हूँ ,
हाय ! पाप पंचक चेरा ||
पा निमित्त बन क्रोधी मैंने,
श्वान वृत्ति आश्रय दीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥ चंदन॥
सिद्धों की जाति का हूँ मैं,
मुझमें ना विकार स्वामी ।
हन्त ! कुमति वश आठ मदों का,
बना हुआ हूँ आसामी ॥
विसर अछत पद क्षत-विक्षत पद,
जे उन पर दृष्टि दीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥ अक्षतम्॥
दर्शन ज्ञान स्वभाव मिरा मैं,
कहाँ रंच उससे रीता ।
फिर भी हन्त ! हन्त ! धन कंचन,
कामिनी ने मुझको जीता ॥
काम भाँति ना मादकता है,
और तदपि चाही पीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥ पुष्पं॥
अरस अरूपी अस्पर्शी मैं ,
जड़ की ना सत्ता मुझमें ।
मगर तड़फ जाये मन मेरा,
हाय ! लीन होने उसमें ।।
क्षुधा वेदना हरने मैंने,
भक्ष्या भक्ष्य नजर कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥ नैवेद्यं॥
वीतराग चैतन्य पिण्ड मैं,
मुझमें कहाँ मोह माया ।
मगर हाय ! मिथ्या श्रद्धा ने,
मुझे जगत् बिच भरमाया ।।
मैंने बन मायावी हा ! हा !
पाप तरफ दृष्टि कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब ,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥ दीपं॥
कर्मों से संबंध न मेरा,
हूॅं अखण्ड इक अविनाशी ।
झुक पुद्गल पर हुई दशा मनु ,
पानी में मछली प्यासी ।।
हिंसादिक पन पापन की इमि,
गठरी सिर अपने कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥ धूपं॥
शुद्ध-बुद्ध हूॅं , हूॅं मैं ज्ञायक,
मैं हूॅं कहाँ बड़ा छोटा ।
काला-गोरा,हल्का-भारी-
कहॉं,कहॉं दुबला-मोटा ॥
हा ! विमोह वश फिर भी मैंने,
इन सबकी चिंता कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥ फलं॥
अमृत आत्म निज निर्झर भीतर,
कोने-कोने से फूटें ।
अन्दर लखना शुरु करूँ क्या,
भव-बन्धन तड़-तड़ टूटें ॥
हा ! बाहर लख सुखाभास चख,
अपने सिर आफत कीनी ।
अन्त समाधि मरण हेत अब,
श्री गुरु चरण शरण लीनी ॥ अर्घं॥
दोहा
श्री गुरु सी करुणा नहीं,
निरखे तीनों धाम ।
लगे हाथ चाहा हुआ,
गुरु जपते ही नाम ।।
॥ जयमाला ॥
गुरु आशीष शीश जिसके वह,
जगत तीन इक बड़भागी ।
सम्यक् दृष्टि नहिं उस जैसा,
कलि वो घर में वैरागी ॥
क्योंकि सप्त व्यसनों से उसने,
अबकी किया किनारा है ।
“जीव सहोदर सबसे वत्सल”
राखो उसका नारा है ॥
अष्ट-मूल गुण सब के सब ही,
उसे प्राण से प्यारे हैं ।
वीतराग भगवन्त सन्त सब,
उसके तारण हारे हैं ॥
माँ जिनवाणी शिक्षा सीधे,
उसके हृदय समाती है ।
देख-देख साधर्मी परिणति,
मॉं गौ भांति रभाँती है ॥
हिंसा से वो कोश दूर है,
वचन न इसके झूठे हैं ।
चोरी विरहित,शीलवान यह,
इसके नियम अनूठे हैं ।।
कब आवश्यकता से ज्यादा,
है उसने परिग्रह चाहा ।
पल-पल समय बता दो वो जब,
उसने ना निज अवगाहा ||
चउ आराधन से उसका कब,
हृदय रहा बोलो रीता ।
मरण समाधि भावन से वो,
कहो न है कब कब तीता ॥
आत्म प्रशंसा,पर निन्दा में,
बतला दो कब रुचि लीनी ।
दुर्जन सँग माध्यस्थ भावना,
कब कब ना स्वीकृत कीनी ॥
गुणवानों को देखे ज्यों ही,
उर पुलकित हो जाता है ।
दीनों का क्रन्दन सुन करके,
उर से सुख खो जाता है ॥
साधु की सेवा श्रुषुसा ही,
मानो है उसका गहना ।
उसके है आदर्श सुदर्शन-
सेठ,और-तिय माँ बहना ॥
विकथाओं में समय कभी वो,
अपना कहाँ गवाता है ।
सम रस रसिया न्याय-नीति से,
बनता द्रव्य कमाता है ।।
कब अज्ञानी बन क्रोधित हो,
पीछे वो पछताया है ।
मान ‘विगत’ माया उर उसके,
रंच न लोभ समाया है ॥
रत्नत्रय धारण करने की,
है उत्कट इच्छा मन में ।
‘सहज निराकुल’ और नहीं है,
उसके जैसा त्रिभुवन में ॥
महिमा गुरु आशीर्वाद की,
अरे ! कहाँ तक बतलाऊँ ।
जाते जाते एक यही वर,
मागूँ सन्मृत्यु पाऊँ ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
दोहा
गुरु दयाल करते दया,
निशि दिन आठों याम ।
सिर्फ समर्पण की कमी,
पाने में शिव धाम ॥
Sharing is caring!