परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक -11
बाबा कुण्डलपुर वाले जिनको प्यारे ।
जो गुरु ज्ञान सिन्धु की आखों के तारे ।।
हमें लगन लागी उद्धार वशी जिनसे ।
गुरु विद्या लेवे उबार वे भव वन से।। ।।स्थापना।।
सौख्य स्वरूपी फिर भी झुकता हूँ पर पे ।
तभी विघ्न बाधाएँ मड़राती सर पे ॥
हा ! विषयों में रस मुझको अब तक आया ।
अक्ष-जेय बनने जल गुरु चरणन लाया ।।जलं।।
ज्ञायक सर्वकाल मैं कब कर्ता धरता ।
हा ! निमित्त पा फिर भी श्रद्धा से गिरता ॥
कब क्रोधादिक हुये नहीं मुझपे हावी ।
चन्दन लाया आज सिद्ध होने भावी ।।चन्दनं।।
ज्ञानानन्द स्वभावी है मेरा वाना |
हुआ आज तक गफलत वश आना जाना ॥
हा ! किस मद से अन्तरंग ना तीता है ।
अक्षत ले परिणति अब हुई विनीता है।।अक्षतं।।
मुझे विभावी करने की ताकत किसमें ।
आप-आप ही आदरता विषयन विष मैं ॥
काम बाण पन कौन मुझे जो बीधें ना ।
अब लाया पद पुष्प आत्म बुद्धि देना ।।पुष्पं।।
मरता भले मरे तन मैं मरता नाहीं ।
देव अमर ना, अमर एक मैं जग माहीं ॥
तदपि अन्न को मान प्राण निशि दिन खाया ।
अब मैंटो जी क्षुधा रोग चरणन आया।।नैवेद्यं।।
ज्ञान भान मैं कहाँ तेज से खाली हूँ ।
हन्त ! मना पाया पर कहाँ दिवाली हूँ ॥
मोह तिमिर वश आई भव पद्धति झोली
दीप भेंटता तिमिर मेंट,खेलूँ होली ।।दीपं।।
कहाँ भेद निश्चय से मुझमें सिद्धों में ।
रंच भेद ना मुझमें अवगम-वृद्धों में ॥
तदपि श्वान के जैसा मुख तकता पर का ।
हरषाऊँ ना कंधे धर बोझा सर का।।धूपं।।
अहा ! आत्म-निर्भर मैं कौन म्हार साथी ।
शुद्ध-बुद्ध-चैतन्य मुझे जिन-श्रुति गाती ॥
किन्तु बिना वैशाखी कब बीतीं घड़ियाँ ।
चरण चढ़ाता फल, लागें शम-रस झड़ियाँ ।।फलं।।
शिव राधा दुल्हन थी,है,मेरी होगी ।
आप दया से निरखा निज अब,बन योगी ॥
कर्म खपा सिद्धों की श्रेणी आऊँगा ।
अरघ भेंटता माँ नहिं और रुलाऊँगा ।।अर्घं।।
“दोहा”
जो करता गुरुदेव के,
चरण-कमल सिर-मौर ।
भुक्ति छोड़िए मुक्ति भी,
विनत आ मिले दौड़ ॥
॥ जयमाला ॥
ऐसा दो वरदान मुझे मेरे गुरुवर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
चाह नहीं,ना होवे अन्त समय पीड़ा ।
चाह नहीं,दुख हरने का ले लो बीड़ा ॥
सहन कर सकूँ पीर सिर्फ समता धर कर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
ऐसा दो वरदान मुझे मेरे गुरुवर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
चाह नहीं,सेवक सेवा रत रहें सदा ।
चाह नहीं,आ अन्त समय दें वैद्य दवा | ।
गूॅंजें कानों मैं केवल वाणी जिनवर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
ऐसा दो वरदान मुझे मेरे गुरुवर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
चाह नहीं,मित्रों का हो आना जाना ।
चाह नहीं,पुर-परिजन का आदर पाना ।।
आस-पास हो व्रति वो भी प्रतिमा ब्रम-धर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
ऐसा दो वरदान मुझे मेरे गुरुवर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
चाह नहीं,संयोग अनिष्ट बिछुड़ चालें ।
चाह नहीं,संयोग इष्टतर जुड़ चालें ।।
करें जुबाँ पे नर्तन असि आउसा अखर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
ऐसा दो वरदान मुझे मेरे गुरुवर ।
मरण समाधी हो मेरा तेरे दर पर ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
जिसके सिर गुरु का रहे,
आठ-याम आशीष |
चरणों में आ मृत्यु भी,
रखती अपना शीश ॥
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