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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 30

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 30

वन्दन-अभिनन्दन ।
माँ श्री-मन्ती नन्दन ।।
तारक गुरु-ज्ञान नयन ।
सति-सन्त शिरोमण, वन्दन-अभिनन्दन ।।
।। स्थापना।।

आँख नाक पर टिका आपने,
इन्द्रिय गर्व मिटा ड़ाला ।
उसने किया इकट्ठा था जो
जग को पिला विषय हाला ॥
लेकिन मेैं मद्मन्त भ्रमर सा,
आसपास मड़राता हूँ ।
बनने इन्द्रिय जयी आप सा,
निर्मल नीर चढ़ाता हूँ ।। जलं।।

देख चुराते निज निधि तुमने,
गुस्से से नाता तोड़ा ।
पय पानीय विवेक हंस मत,
जो उससे नाता जोड़ा ।।
श्वान भाँति पकवान चाख भी,
मल पे लार गिराता हूँ ।
मति मराल तुम जैसी पाने,
चन्दन चरण चढ़ाता हूँ ।। चंदन।।

आठ मदों पर जय श्री पाने,
तुमने नित जागृति राखी ।
कब आकर प्रमाद आंगन में,
की तुमने ताकाँ-झाँकी ।।
लेकिन मैं मद प्रणय गीत सुन,
चंगुल में फँस जाता हूँ ।
मद मर्दन कर पाने तुम सा,
अक्षत धवल चढ़ाता हूँ ।। अक्षतम्।।

सुनते मन्मथ द्वार आपके,
आकर खाली लौट गया ।
देख बाड़-नव संरक्षित तुम,
लगता है खा चोट गया ।।
पुष्प बाण-पन दूर रहें हा !
पा निर्मित्त बौराता हूँ ।
मन तरंग तुम भाँत मारने,
श्रृद्धा सुमन चढ़ाता हूँ ।।पुष्पं।।

कर तर कर कर आना स्वामिन्
तुम्हें न अच्छा लगता है ।
कर पर कर करने को कब ना,
तेरा जिया मचलता है ॥
श्वान समान और मुख तक कर,
अपनी लाज गवाता हूँ ।
बनूँ आत्म निर्भर तुम जैसा,
व्यंजन नवल चढ़ाता हूँ ।।नैवेद्यं।।

तन तन-कृत बंधज अस्थिर सो,
तुमने इनको छोड़ा है ।
संवर निर्जर शिवद जानकर,
नाता इनसे जोड़ा है ।।
भाँत विमूढ़ अथिर थिर करके,
उजला काग बनाता हूँ ।
गत गफलत बन सकूँ आप सा,
मणिमय दीप चढ़ाता हूँ ।। दीपं।।

कंचन भाँत निजातम करने,
अग्नि त्याग तप प्रकटाई ।
रख पाने अनबुझ आगे भी,
ईधन सुमरण लौं लाई ।।
याग त्याग तन शत्रु मान कर,
उससे नजर चुराता हूँ ।
बन सकने तुम भाँत कोटि भट,
सुरभित धूप चढ़ाता हूँ ।। धूपं।।

समय आप कब अपना स्वर्णिम,
खोते चुगली करने में ।
आये कब आनन्द आपको,
निन्दक पन आदरने में ॥
हाय ! धजी का साँप बना मैं,
मन भर पाप कमाता हूँ ।
भाँति आप निष्पाप बन सकूँ,
ऋतु फल सरस चढ़ाता हूँ ।। फलं।।

कुन्द कुन्द गुरु लेखनि के तुम,
हो इक हस्ताक्षर जग में ।
सीख ज्ञानसागर गुरुवर की,
पत्थर-मील मुकति मग में ।।
बन सकने हूबहू आप सा,
चरणन शीश झुकाता हूँ ।
अष्ट द्रव्य का थाल सजाकर
सविनय चरण चढ़ाता हूँ ।।अर्घं।।

“दोहा”
श्रम श्लथ हर लेना जिन्हें,
रुचा न पूर्व मुकाम ।
श्री गुरु विद्या वे तिन्हें,
सन्ध्या तीन प्रणाम ।।

॥ जयमाला ॥
जयवन्तो गुरुदेव हमारे ।
जयवन्तो गुरु ज्ञान दुलारे ।।

जयवन्तो श्री मति माँ नन्दन ।
जयवन्तो भव ताप निकन्दन ॥

जयवन्तो स्वातम रस रसिया ।
जयवन्तो शिष्यन मन वसिया ।।

जयवन्तो रत्नत्रय धारी ।
जयवन्तो त्रिभुवन मनहारी ॥

जयवन्तो विरहित वैशाखी ।
जयवन्तो सत् जुगीय झाँकी ।।

जयवन्तो अघ-नाशन हारे ।
जयवन्तो गुण रतन पिटारे ।।

जयवन्तो अनवरत विहारी ।
जयवन्तो करुणा धन धारी ॥

जयवन्तो अमरित वच स्वामी ।
जयवन्तो भावी शिव गामी ।।

जयवन्तो कलि शिव पथ नेता ।
जयवन्तो पन अक्ष विजेता ॥

जयवन्तो जिन-लिङ्ग प्रदाता ।
जयवन्तो भवि भाग्य विधाता ।।

जयवन्तो शम-यम-दम-दक्षः ।
जयवन्तो गुरुकुल अध्यक्षः ॥

जयवन्तो वसु याम जगैय्या ।
जयवन्तो संरक्षक गैय्या ।।

जयवन्तो शिव वधु अभिलाषी ।
जयवन्तो परमाद विनाशी ॥

जयवन्तो अरि मित्र समाना ।
जयवन्तो विरचक थुति नाना ।।

जयवन्तो कंचन तन धारी ।
जयवन्तो जिन धर्म प्रचारी ॥

जयवन्तो निस्पृह वैरागी ।
जयवन्तो कवि-वर बड़भागी ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।

==दोहा==
कहूँ कहाँ तक आप के,
गुण गुरुदेव अपार ।
कौन पा सका बल-भुजा,
अगाध सागर पार ।।

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