परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 27
चप्पे-चप्पे गूँजे ।
विद्या-सागर दूजे ।।
सन्त हैं,
निर्ग्रन्थ हैं,
भावी भगवन्त हैं,
तभी जा रहे पूजे ।। स्थापना।।
करतल-पगतल अहा गुलाबी,
शत-दल कमल प्रसून से ।
जनमे ही दिन शरद पूर्णिमा,
बेशक चन्दा पून से ।।
बिन वैशाखी चलना जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज मैं,
विद्या गुरु गुणगान से ।। जलं।।
भान भाँति तेजस्वी उन्नत,
जिनका अनुपम माथ है ।
पाप ग्रीष्म ऋतु घनी छाँव के,
तरु सा जिनका साथ है ।
आत्म सदन बिच रहना जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज मैं,
विद्या गुरु गुणगान से ।।चंदन।।
लम्बे-लम्बे हाथ दिव्य दो,
भव सागर पतवार से ।
त्रिभुवन मनहारी पन-इन्द्रिय,
भोग जिन्हें खर-खार से ।
निरख उठाना धरना जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज मैं,
विद्या गुरु गुणगान से ।।अक्षतम्।।
कन्धे दो उत्तुङ्ग शिखर से,
जिनके दिव्य ललाम हैं ।
सत्य अहिंसादिक व्रत के जो,
जगत् दूसरे नाम हैं ॥
विकथाएँ विसराना जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज मैं,
विद्या गुरु गुणगान से ।।पुष्पं।।
नर्तन करते आ काँधे तक,
ऐसे अद्भुत कान हैं ।
बींध सकें कब कहाँ मदन के,
जिन्हें एक भी बाण हैं ।
ज्ञान, ध्यान आदरना जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज मैं,
विद्या गुरु गुणगान से ।।नैवेद्यं।।
अहा ! नासिका जिनकी चम्पक,
नामा पुष्प समान है ।
जिन्हें भावि शिव-वधु वर बनना,
ऐसा अटल विधान है ।।
धरना सुख दुख समता जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज मैं,
विद्या गुरु गुणगान से ।।दीपं।।
जिनके नैन दीन क्रन्दन सुन,
झिर चलते जल धार से ।
अपने दुश्मन को भी वश में,
कर लेते जो प्यार से ।।
हंस विवेक राखना जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज मैं,
विद्या गुरु गुणगान से ।।धूपं।।
जिनका कंठ शंख के जैसा,
मन-हरिया तिहु लोक का ।
हाथ न अपने किया जिन्होंने,
श्यामल दामन शोक का ॥
पर हित अश्रु बहाना जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज तिन,
विद्या गुरु गुणगान से ।।फलं।।
दुख आताप विहरने वाला,
मुख-प्रसाद शश दूज सा ।
व्रत अतिचार देवता चरणा,
मन इनका कब पूजता ।।
सहज-निराकुल रहना जिनने,
सीखा श्री गुरु ज्ञान से ।
मन मुनि मन सा करूँ आज मैं,
विद्या गुरु गुणगान से ।।अर्घं।।
“दोहा”
ग्राम सदलगा में लिया,
जिन्होंने अवतार ।
शिष्य ज्ञान-गुरु वे तिन्हें,
वन्दन बारम्बार ।।
॥ जयमाला ॥
स्वर्ग मोक्ष ले चलने वाली,
कलि शत-जुगीन पालकी ।
गाऊँ गाथा पिता मल्लप्पा,
श्री मति माँ के लाल की ॥
ग्राम सदलगा छुआ जिन्होंने,
शरद पूर्णिमा रात को ।
देख चन्द्रमा मुखड़ा जग ने,
दी बधाईं माँ-तात को ॥
पुरजन-परिजन आनंदित लख,
क्रीड़ाएँ जिन बाल की ।
गाऊँ गाथा पिता मल्लप्पा,
श्री मति माँ के लाल की ॥
कन्नड़ भाषा में पढ़ राखी,
सविनय कक्षा आठवीं ।
इन्हें रोक न पाया हरगिज,
इन्द्रिय विषयन ठाठ भी ॥
जिनने श्रमण देश भूषण थुति,
बनने व्रति नत भाल की ।
गाऊँ गाथा पिता मल्लप्पा,
श्री मति माँ के लाल की ॥
हुई ज्ञान गुरु पाद मूल में,
जिन दीक्षा अजमेर में ।
पद आचार्य संभाला जिनने,
रखा किसे फिर गैर में ॥
काल चतुर्थ भाँति चर्या भवि,
अति-क्रम व्यति-क्रम टाल की ।
गाऊँ गाथा पिता मल्लप्पा,
श्री मति माँ के लाल की ॥
अग्नि परीक्षा लेकर जिनने,
दी दीक्षा सद्पात्र को ।
मति-मराल अनवरत लखें जो,
भिन्न आत्मा-गात्र को ॥
संघ विरचना गुरुकुल जैसी,
श्री गुरु आज्ञा पाल की ।
गाऊँ गाथा पिता मल्लप्पा,
श्री मति माँ के लाल की ॥
जिनकी मूकमाटी कृति अद्भुत,
छुपा मर्म सद्-धर्म का ।
विरचीं कविताएँ थुति जिनने,
पथ जिनमें शिव-शर्म का ॥
जिन-हित जारी संस्थाएँ जग,
थाती अमिट कमाल की ।
गाऊँ गाथा पिता मल्लप्पा,
श्री मति माँ के लाल की ॥
कहूँ कहाँ तक चरित आपका,
धन ! धन ! अगम सुरेश से ।
कौन कर सका चलित मेरु गिरि,
अटूट भी निज केश से ॥
फिर भी कही तोतली गिर् ये,
संस्तुति शामत काल की ।
गाऊँ गाथा पिता मल्लप्पा,
श्री मति माँ के लाल की ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
दोहा=
किरपा श्री गुरुदेव की,
रहती जिनके साथ।
सुख सम्पति ऐश्वर्य क्या,
दिव-शिव उनके हाथ ॥
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