परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 17
यही एक भावन संध्याएं,
तव चरणन बीतें मेरीं ।
आत्म भाव बिन पल पल खिरतीं,
घड़ियाँ ना रीतें मेरीं ।।
मरण समय में, समता परिणत,
ले यम घर न डाल डेरा ।
माथ हमारे, उन घड़ियों में,
रहे हाथ गुरुवर तेरा ।। स्थापना।।
सनत चक्री को कुष्ट वेदना,
व्यापी थी सारे तन में ।
धन-धन सहजो सम-रस-सानी,
रखी निराकुलता मन में ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर रोग-जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।। जलं।।
पांव श्यानिती भखे अचल से,
मुनि सुकमाल खड़े, लेखा ।
बड़ी बड़ी थी आंख किन्तु ना,
लाल-लाल करके देखा ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर ! विघ्न जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।चंदन।।
करके गर्म लोह आभूषण,
मुनि-पाण्ड़वन पिना दीने ।
दोष न दे वर्तमाँ निमित कृत,
पूरब कर्म घृणा कीने ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर दुष्ट जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।अक्षतम्।।
श्री मुनि गज कुमार सिर ऊपर,
जलती हुई रखी सिगड़ी ।
लाये शिकन न इक चेहरे पर,
बँध चाली सिरपुर पगड़ी ।।
वर दो सहन करूँ समताधर,
गुरुवर विमुख जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।पुष्पं।।
हुआ समन्त-भद्र मुनि तन में,
भस्मक नाम रोग भारी ।
रख श्रद्धा कृत कर्म नचायें,
सहज रहे, बाधा हारी ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर क्षुधा जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।नैवेद्यं।।
श्रमण सात सौ झुलस चले थे,
बलि आदिक जारी अगनी ।
धीरज धारी सब मुनियों ने,
कह पूरब अपनी करनी ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर ताप जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।दीपं।।
नंग-अनंग-कुमार मुनि पे,
अत्त शत्रुओं ने ढ़ाये ।
नम थे नैन पीर-पर लख, पर,
अश्रु न दृग् बाहर आये ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर शत्रु जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।धूपं।।
बाँध सांकलन मान तुंग मुनि,
था कारागृह में डाला ।
जान विपाक कर्म कृत पूरब,
हँस उपसर्ग सहा सारा ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर विमत जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।फलं।।
कर चाली उपसर्ग घोर हा !
एक रूष्ट व्यन्तर देवी ।
डिगा न पाई श्रमण सुदर्शन,
झिर भीतर अमृत सेवी ।।
वर दो सहन करूँ समता धर,
गुरुवर दैव जनित पीड़ा ।
मरण समाधि होवे मेरा,
ले लो सिर अपने बीड़ा ।।अर्घं।।
दोहा=
कर दो बस इतनी कृपा,
मुनि-दैगम्बर नाथ ।
हो सुमरण अब-तब ‘समै’,
तुम सुमरण के साथ ।।
=जयमाला=
बस एक भावना है ।
दश-एक भाव…ना हैं ।।
सध सका कहाँ सारा ।
लूँ साथ एक न्यारा ।।
मैं नाव लगूॅं खेने ।
यम आये जब लेने ।।
अरिहन्त सिद्ध बोलूॅं ।
परिणाम नित टटोलूॅं ।।
पल पल समाध बोऊॅं ।
पनदश प्रमाद खोऊॅं ।।
बस एक भावना है ।
दश-एक भाव…ना हैं ।।
सध सका कहाँ सारा ।।
लूँ साथ एक न्यारा ।।
मैं नाव लगूॅं खेने ।
यम आये जब लेने ।।
कछु…आ भीतर जाऊँ ।
क…छुआ भीतर गाऊँ ।।
रख नाक, ‘नाक’ पाऊँ ।
दृग् आँख राख पाऊँ ।।
बस एक भावना है ।
दश-एक भाव…ना हैं ।।
सध सका कहाँ सारा ।।
लूँ साथ एक न्यारा ।।
मैं नाव लगूॅं खेने ।
यम आये जब लेने ।।
मन रख पाऊँ कोरा ।
बेदाग रखूँ चोला ।।
हूँ रहूँ निराकुल मैं ।
हूँ कहूँ निरा-कुल में ।।
बस एक भावना है ।
दश-एक भाव…ना हैं ।।
सध सका कहाँ सारा ।
लूँ साथ एक न्यारा ।।
मैं नाव लगूॅं खेने ।
यम आये जब लेने ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं।।
दोहा=
सुनो सुनो कुछ कह रहे,
गुरु जुग चरण सरोज ।
इम्तिहान से मत डरो,
बढ़ते जाओ रोज ।
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