परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 24
पूरण अरमाँ हैं ।
गुरु पूरण माँ हैं ।।
और क्या यही तो बोले,
राज मुख अपने खोले
गुरु पूर्णिमा हैं।। स्थापना।।
क्षमा मांगते ही जो,
दे देते माफी ।
भव जल तरने, नाम मात्र,
जिनका काफी ॥
जिन्हें लुभाये ज्ञान सिन्धु,
गुरु जयकारा ।
शरण मुझे श्री विद्या-सागर
गुरु-द्वारा ।।जलं।।
निरतिचार व्रत से जिनका,
अन्तस् तीता ।
जिन्होंने पन इन्द्रिय विषयन,
गढ़ जीता ॥
शरण न पर घर, निज घर रमण,
जिन्हें प्यारा ।
शरण मुझे श्री विद्या-सागर
गुरु-द्वारा ।। चंदन।।
जिन सा कहाँ सजग पहरी,
कलि जुग-भाई ।
जिनका दर्श भवातप-हर,
शिव-सुख-दाई ||
बिन वैशाखी गमन,
जिन्होंने स्वीकारा ।
शरण मुझे श्री विद्या सागर
गुरु-द्वारा ।।अक्षतम्।।
कुन्द-कुन्द गुरु सी प्रांजल,
चर्या जिनकी ।
जिनकी विरदावलियाँ ना,
जीवन किनकी ॥
मन्मथ शस्त्र सुसज्जित भी,
जिनसे हारा ।
शरण मुझे श्री विद्या सागर
गुरु-द्वारा ।।पुष्पं।।
इक होकर भी जो रहते,
सबके मन में ।
नगन किन्तु जिन सा दाता न,
त्रिभुवन में ।।
धर्म अहिंसा आज जिन्होंने,
विस्तारा ।
शरण मुझे श्री विद्या सागर
गुरु-द्वारा ।।नैवेद्यं।।
जिनके हृदय न कब फूँटीं,
सम रस झड़ियाँ ।
कब प्रमाद से भीगीं,
सामायिक घड़ियाँ ॥
गुरु आज्ञा तीता जिनका,
जीवन सारा ।
शरण मुझे श्री विद्या सागर
गुरु-द्वारा ।।दीपं।।
जिन्हें निरखते ही सवाल,
सुलझें सारे ।
दीन बन्धु ! जो आशुतोष !
तारण हारे ।।
कलि हितु ध्यान विपाक-विचय,
जिनका नारा ।
शरण मुझे श्री विद्या सागर
गुरु-द्वारा ।।धूपं।।
जिनके भक्तों के सिर कब,
आई बाधा ।
कोश दूर जिनसे अब कहाँ,
मुकति राधा ||
जिन्हें ध्यान चिन्मय-मृणमय,
न्यारा न्यारा ।
शरण मुझे श्री विद्या सागर
गुरु-द्वारा ।।फलं।।
कब कषाय से कसी,
आत्मा जिनहोंने ।
कब प्रयत्न न किया ज्ञान,
गुरु सा होने ॥
कर्त्तव्यों से जिनने,
जीवन श्रृंगारा ।
शरण मुझे श्री विद्या सागर
गुरु-द्वारा।। अर्घं।।
“दोहा”
दूजी शाला में पढ़े,
जो दूजा ही पाठ ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु की,
करुणा बड़ी विराट ॥
॥ जयमाला ॥
आया कोई भले द्वार,
झोली खाली ।
जाते-जाते हाथ लग चले,
दीवाली ।।
इनकी दृष्टि से जो भी,
छूँ जाता है ।
मन उसका मुनि मन सी ,
खुशबू पाता है ॥
इनके हाथ पिच्छिका जिनने,
स्वीकारी ।
शिव शिविका आ हाथ लगी,
अतिशय कारी ॥
आशीर्वाद जिन्हें इनका,
मिल जाता है ।
जिन गुण सम्पद् से जुड़ चलता,
नाता है ॥
जो जल भरने गया कमण्डल-
में इनके ।
उसके बीत गये विकार ,
अन्तर्-मन के ॥
भू अंजली इन ग्रास एक भी,
बोया हो ।
झूठ-मूठ भी सुना न,
भूखा सोया वो ॥
की इनकी वैयावृत्ति,
जिनने मन से ।
किया सफाया रोगों का,
उनने तन से ॥
पड़गाहन जिस रोज किया,
इनका जिनने ।
धन्य पात्र ! धन दाता !
कहा सभी दिश ने ॥
दिव्य देशना जो भी इनकी,
सुन लेता ।
पैसा फिर, पय पानी विवेक
चुन लेता ॥
कहें कहाँ तक अन्त न,
महिमा का आता ।
तारे गिन पाने से है,
किसका नाता ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
गुरु चरणोदक से किया,
जिसने मंडित माथ ।
विपद् विनश सम्पद् लगे,
‘सहज-निराकुल’ हाथ ॥
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