‘वर्धमान मंत्र’
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘पूजन’
नभ जैन जगत् ध्रुव तारे ।
कूर्मोन्-नत पाँव तुम्हारे ।।
तुम कलजुग एक सहारे ।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या सिन्ध !
अत्र अवतर संवौषट इति आवाह्नन ।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या सिन्ध !
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्या सिन्ध !
अत्र मम सन्निहितो
भव भव वषट् सन्निधिकरणम्
बहता आँखों से ‘पानी’ ।
तुमसे कब छुपी कहानी ।।
चूनर झड़ चले सितारे ।
तुम कलजुग एक सहारे ।।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘चन्दन’ ने पाये वीरा ।
अंजन पाया भव तीरा ।।
बहता आँखों से पानी ।
तुमसे कब छुपी कहानी ।।
क्यूँ सोये भाग हमारे ।
तुम कलजुग एक सहारे ।।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
संसार ताप विनाशनाय
चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘अक्षत’, क्षत आना-जाना ।
जन्मा देवों मे श्वाना ।।
बहता आँखों से पानी ।
तुमसे कब छुपी कहानी ।।
मन मेरे क्यूँ अँधियारे ।
तुम कलजुग एक सहारे ।।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
अक्षय पद प्राप्ताये
अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।
जा ‘सुमन’ कतार विराजा ।
लग पाँव खुला दरवाज़ा ।।
बहता आँखों से पानी ।
तुमसे कब छुपी कहानी ।।
क्यूँ हमीं भाग के मारे ।
तुम कलजुग एक सहारे ।।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
काम बाण विनाशनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुर व्यंजन ‘सत्-भंगी’ में ।
सुत-अंजन बजरंगी में ।।
बहता आँखों से पानी ।
तुमसे कब छुपी कहानी ।।
क्यूँ हम ही बाजी हारे ।
तुम कलजुग एक सहारे ।।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
क्षुधारोग विनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अनबुझ कहलाये ज्योती ।
सीपी ने पाये मोती ।।
बहता आँखों से पानी ।
तुमसे कब छुपी कहानी ।।
क्यूँ मोर न बारे न्यारे ।
तुम कलजुग एक सहारे ।।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
मोहांधकार विनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘जी सुर’भी’ स्वर्ण सुगन्धा ।
भवि ! प्रिय ‘लाखन’ दुर्गन्धा ।।
बहता आँखों से पानी ।
तुमसे कब छुपी कहानी ।।
क्यूँ सर मेरे दुख सारे ।
तुम कलजुग एक सहारे ।।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
अष्ट कर्म दहनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जग कीच बीच ‘भी’ भेले ।
श्रेणिक फिर, मेंढ़क पहले ।।
बहता आँखों से पानी ।
तुमसे कब छुपी कहानी ।।
क्यूँ भरूँ पीस मैं पारे ।
तुम कलजुग एक सहारे ।।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
मोक्ष फल प्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जल, गन्ध, अछत, गुल न्यारे ।
चरु, दीप, धूप, फल सारे ।।
मैं भेंट रहा चरणों में ।
‘के आवीची मरणों में,
खोलूँ मैं सु’मरण द्वारे ।।
नभ जैन जगत् ध्रुव तारे ।
कूर्मोन्-नत पाँव तुम्हारे ।।
तुम कलजुग एक सहारे ।
गली-गली इक गूँज तभी,
विद्या गुरु-देव हमारे ।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
अनर्घ पद प्राप्तये
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विधान प्रारंभ*
मन्द-मधुर मुस्कान आपकी,
करती है जादू टोना ।
एक बार जो तुम्हें देख ले,
फिर न कभी चाहे खोना ।।१।।
ॐ ह्रूँ सन्त प्रमुख
प्रसन्न मुख नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
प्रशम-मूर्ति ! छवि आप अनोखी,
चित्त चुराने वाली है ।
नज़र उठा, जिस तरफ आपने,
देखा, मनी दिवाली है ।।२।।
ॐ ह्रूँ अक्षर कीर्ति
दृग्-हर मूर्ति नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तेरी करुणा जिस पे बरसे,
वो निहाल हो जाता है ।
यूॅं ही कब किसके दर लगता,
‘रे भक्तों का ताॅंता है ।।३।।
ॐ ह्रूँ दृग् सजल
भक्त वत्सल नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
यथा-जात दैगम्बर मुद्रा,
आप तीर्थ-कर भावी हो ।
आज सुर्ख़िंयों में छाया तुम,
जैन-अजैन प्रभावी हो ।।४।।
ॐ ह्रूँ निर्ग्रन्थ
भावी अरिहन्त नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
कभी किसी से कुछ न चाहते,
भर-भर हाथ लुटाते हो ।
बिन माँगे भक्तों की झोली,
‘मुख-तक’ भर लौटाते हो ।।५।।
ॐ ह्रूँ निष्काम
कलियुग राम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
निश्चल त्याग तपस्या देखी,
दुनिया तभी दिवानी है ।
सन्त-समाज निरीह-मूर्ति तुम,
निरखत पानी-पानी है ।।६।।
ॐ ह्रूँ नृसिंह
निरीह नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आज अहिंसा-शासन के तुम,
इक तेजश्व दीप न्यारे ।
देखा तुम्हें सुलझ जाते हैं,
उलझे हुये प्रश्न सारे ।।७।।
ॐ ह्रूँ ओजस्वी
तेजस्वी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
निर्ग्रन्थों ने, सद्ग्रन्थों में,
जैसी बतलाई वैसी ।
मूरत आप प्रशान्त हूबहू,
प्रभु भगवन् अरहन् जैसी ।।८।।
ॐ ह्रूँ शान्त
प्रशान्त नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिर्फ नाम है सोम चन्द्रमा,
माथे कलंक टीका है ।
सुभग, सौम्य, निकलंक, आप सो,
त्रिभुवन और न दीखा है ।।९।।
ॐ ह्रूँ सजग
सौम्य सुभग नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पोर खतम, अँगुलिंयाँ भी खतम,
गिनना रोमों की बारी ।।
इक तिहार हामी पर दीक्षित,
हो चाले दुनिया सारी ।।१०।।
ॐ ह्रूँ जगत्त्राता
‘सत’-दीक्षा प्रदाता नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बात कई करते, पर तुम,
शुद्धोपयोग से बतयाते ।
करुणा मोह न चिह्न, दयालु,
सिर्फ एक,’भी’तर आते ।।११।।
ॐ ह्रूँ शुद्धोपयोगी
निजानु-भवोप-भोगी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चर्चित देश-विदेश आप कृति,
मूक-माटि अपने सी है ।
जिसे पढ़े बिन स्वर्ग-मोक्ष की,
यात्रा बस सपने सी है ।।१२।।
ॐ ह्रूँ ज्ञाता दृष्टा
मूकमाटी कर्त्ता नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आप सिर्फ ना दीप दिखाते,
हो चलते आगे आगे ।
हाथ आपके हाथों में दे,
हुये जैन सब बड़भागे ।।१३।।
ॐ ह्रूँ पथप्रदर्शी
भविष्य दर्शी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिल गहरे खरगोश और,
कछुये की कथा समाई है ।
पत्थर मील टिका सिर पल भर,
तभी न आँख लगाई है ।।१४।।
ॐ ह्रूँ पद-यात्रृ
पाणि-पात्रृ नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
तप निधिंयाँ देखीं सागर ने,
मान-हानि ना ठोकी है ।
पल-पल कीमत बढ़ी सिन्ध, सत !
संगत साध अनोखी है ।।१५।।
ॐ ह्रूँ सुविधि
तपोनिधि नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
समता-सामायिक की दूजी,
बने आज तुम परिभाषा ।
तुम पहले विश्वास तुम्हीं हो,
भक्तों की अंतिम आशा ।।१६।।
ॐ ह्रूँ पर्यायवाची
सामायिक साँची नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
क्षितिज छोर कब आने वाला,
तभी न दौड़ लगाई है ।
जोड़ हाथ, सिर झुका आपने,
सरसुति-कृपा रिझाई है ।।१७।।
ॐ ह्रूँ श्रुति पारगामी
व्रति हृदय धामी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रचना तन तुम गुण-मणियों का,
इक अपूर्व ताना-बाना ।
घूमा देश विदेश, कहीं भी,
रूप आप सा दीखा ना ।।१८।।
ॐ ह्रूँ वैदेह
गुणमणि देह नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हवा पश्चिमी पान सुखाये,
अब ‘मोड़ो’ कब मुड़ता है ।
इक भारत-संस्कृति-संरक्षक,
नाम तुम्हारा जुड़ता है ।।१९।।
ॐ ह्रूँ अजित अक्ष
संस्कृति संरक्ष नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जुवाँ वृषभ चालेंगे आगे,
ले ध्वज-माहन अभिलेखा ।
अब तक पढ़ा सुना था, तुम क्या,
जन्में आँखों ने देखा ।।२०।।
ॐ ह्रूँ दिग्गज
धृत धर्म-ध्वज नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
काल बहाने बुध थे बैठे,
राहों पे ले सिरहाना ।
उन्हें धकाया आगे तुमने,
बन पीछे की पवमाना ।।२१।।
ॐ ह्रूँ पाछी वायु
प्रेरक पूर्णायु नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अन्त-अन्त तक पंचम-युग में,
अर्हत्-संस्कृति जीवेगी ।
‘कलि’-अर्हत्-संस्कृति-संवाहक
नाम आप दुनिया लेगी ।।२२।।
ॐ ह्रूँ सत्साधक
सन्मत-संवाहक नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भू-साई जिन-भवन छुवा नभ,
दिया जन्म मानो दूजा ।
इक सुर से तब जिन संस्कृत-
उधारक जयकारा गूँजा ।।२३।।
ॐ ह्रूँ भवोदधि तारक
धरोहर-उद्धारक नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
घोट-घोट यह ज्ञान सिन्धु गुरु,
घुट्टी तुम्हें पिलाई है ।
हैं अनुयोग चार, क्या फेरा,
लेती थकन विदाई है ।।२४।।
ॐ ह्रूँ ‘कल’ ध्याननिरोगी
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
फेर अखर ‘त…प’,’प…त’ रख पाने,
‘सहज-निराकुल’ तप साधा ।
शब्द विषय के बीच हाय ! विष,
जाने फिर क्यों आराधा ।।२५।।
ॐ ह्रूँ मणि पारस
‘युग’ तापस नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सं-रम्भा-दिक, कृत, कारित, अनु-
मत, कषाय मन, वच, काया ।
त्यागे पाप समस्त, ‘एक सौ-
आठ’ नाम आगे आया ।।२६।।
ॐ ह्रूँ पुण्य पण्डित
‘सत’-गुण मण्डित नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिर्फ न दश, बस नन्त धर्म जा,
गहरे हृदय समाये हैं ।
कंगन-हाथ, आरसी क्या फिर ?
भी’तर नैन दिखाये हैं ।२७।।
ॐ ह्रूँ मनमोहन
दश धर्म शोभन नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
छटे-छटाये षट् आवश्यक,
छटे छटाये साधक हैं ।
कलि परिपालन निरतिचार-व्रत,
देव एक आराधक हैं ।।२८।।
ॐ ह्रूँ निर्विकारी
व्रति निरतिचारी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मेर अटल श्रद्धान, ज्ञान अर,
चरित, वीर्य, तप अनमोला ।
ठाना जिन्होंने उतारना,
अबकी ज्यों का त्यों चोला ।।२९।।
ॐ ह्रूँ विरञ्च
आचार पञ्च नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
खूब जानते मारग माँ-रग,
हटते ही बारिस रोना ।
जिन-आज्ञा पालन बिन भटके,
हा ! लख-चौरासी जोना ।।३०।।
ॐ ह्रूँ विद् अक्षर
आ’ज्ञा गुरुवर नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘रसते’ आँख हृदय जाते हैं,
सिर्फ न सुना, चुना तुमने ।
तभी आँख में आँख डाल के,
बतियाना न चुना तुमने ।।३१।।
ॐ ह्रूँ ब्रम्ह निकेता
ऊरध रेता नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चला चलाकर परिषह सहना,
श्री गुरु से अपने सीखा ।
गुरु तो गुरु तुम जैसा शिष्य न,
दुनिया में दूजा दीखा ।।३२।।
ॐ ह्रूँ अहर्निश जागर
भावी शिव नागर नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिर्फ न पड़ते आप कृपा के,
शिष्यों के ऊपर छीटे ।
सराबोर कर देते हो तुम,
आना सिर्फ़ विनय तीते ।।३३।।
ॐ ह्रूँ भविष्य
शिष्य-शिष्य नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुना साँझ हो जाती जल्दी,
सुबह-सुबह घर से निकले ।
आत्म-तत्व-अनवेषण अब ना,
रहा-स्वप्न, इक तुम विरले ।।३४।।
ॐ ह्रूँ हितोपदेशी
आत्मानवेषी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘सुत माँ सरसुत’ अँगुली ऊपर,
सुनते, गिनने में आते ।
उस कतार में आप विराजे,
सर्वप्रथम बुध बतियाते ।।३५।।
ॐ ह्रूँ भास्वत
सारस्वत नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लिया ही नहीं, कभी जायका,
चुगली ऐसे कैसे हो ।
सच दुनिया से हटके हो तुम,
बिलकुल अपने जैसे हो ।।३६।।
ॐ ह्रूँ मौन
निंदा गौण नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गुरुकुल आज, बनाया कुल-गुरु,
कुन्द-कुन्द भगवन् जैसा ।
जिओ और जीने दो सबको,
सार्थक सन्मत-सन्देशा ।।३७।।
ॐ ह्रूँ गुरुकुल
कुल गुरु नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अंधकार ना तले, ‘मत-विमत-
मारुत’ से कब डरते हो ।
ज्ञान दीप तुम ‘सहज-निराकुल’,
दिश्-दश रोशन करते हो ।।३८।।
ॐ ह्रूँ दीवा
संजीवा नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सुन ‘जिनवाण’ सूक्ष्म जीवों को,
‘बाण’ ‘वाण’-हित-मित रखते ।
जुबां प्रदेश हिलें फिर, पहले,
जाकर घी-मिसरी चखते ।।३९।।
ॐ ह्रूँ शब्द
सब… द नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिर्फ़ न चर्चा, आगम चर्या,
पालन करने वाले हैं ।
जैन-गगन में तभी अकेले,
आप एक ध्रुव-तारे हैं ।।४०।।
ॐ ह्रूँ स्वर्ग चर्चित
चर्या अर्चित नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चाले हंस, मोर नच ले, पिक-
बोले गुल अच्छा हँसता ।
पर मनहारी हृदय आपका,
शगुन गुणों का गुलदस्ता ।।४१।।
ॐ ह्रूँ मनहर
गुणधर नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मुक्ति राधिका संध्याओं में,
इन्हें भिजाती ‘पाती’ है ।
सदी-सधी हर किरिया जिनकी,
मोक्ष मार्ग दिखलाती है ।।४२।।
ॐ ह्रूँ आदर्श
चरित्र ज्ञान दर्श नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिर्फ़ न करना अप्रभावना,
यह गुरु मन्त्र सुमरते हैं ।
आप-आप होती प्रभावना,
जगह न एक ठहरते हैं ।।४३।।
ॐ ह्रूँ सत् भावक
अद्वितीय प्रभावक नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
भर कर्णांजुल, दिन-भर गट-गट,
पीते, जिन-श्रुत प्याली हैं ।
‘सहज-निराकुल’ देर-रात फिर,
करते बैठ जुगाली हैं ।।४४।।
ॐ ह्रूँ सत्-चिन्तन
श्रुत मन्थन नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
साधक बड़े-बड़े दैगम्बर,
जिनसे मिलने आते हैं ।
समाधान पा शंकाओं का,
कर्मन धूल चटाते हैं ।।४५।।
ॐ ह्रूँ आसान
समाधान नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सम-दर्शन के आठ अंग मिल,
हृदय समाने आये हैं ।
‘वर्तमान तुम वर्धमान’ ये,
अखर तभी नभ छाये हैं ।।४६।।
ॐ ह्रूँ हृदय सृष्टि
सम्यक् दृष्टि नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
यूँ ही जोड़े-हाथ खड़े ना,
सारे राजे महराजे ।।
सम्यक् ज्ञान सभी अंगों ने,
दी दस्तक तुम दरवाजे ।।४७।।
ॐ ह्रूँ सम्यक् ज्ञान
अलौकिक भान नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विध तेरह सम्यक् चारित के,
सिर्फ न परि-पालक, ज्ञाता ।
एक न जिनकीं समिति-गुप्ति मिल,
पाँच-तीन प्रवचन माता ।।४८।।
ॐ ह्रूँ कल्याण मित्र
सम्यक् चारित्र नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
क्या प्राकृत, क्या संस्कृत, हिन्दी,
सब भाषा में लिखते हैं ।
ज्ञान-तलस्-पर्शी भी’तर कुछ,
हरिक क्षेत्र का रखते हैं ।।४९।।
ॐ ह्रूँ शब्द सम्राट
वैतरण घाट नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिन-सूत्रों के राज विनय लख,
आप-आप खुल पड़ते हैं ।
चला-चला चिन्तन अनचीने,
तुमसे मिलने बढ़ते हैं ।।५०।।
ॐ ह्रूँ सार्थ सूक्ति
सार्थवाह भुक्ति-मुक्ति नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
द्वादशांग-श्रुत, रूप सिन्धु का,
पार जिन्होंने है पाया ।
तभी समेटी आप-आप ही,
माया ने अपनी माया ।।५१।।
ॐ ह्रूँ पार
श्रुत पारावार नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सन्त-सन्त वन चन्दन संस्कृति-
श्रमण आज कहलाई है ।
नहीं और की इसमें मेहनत,
सिर्फ़ आप रॅंग लाई है ।।५२।।
ॐ ह्रूँ सुरति प्रकृति
आधार यति संस्कृति नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
लोकोत्तर साधक उपाध ना,
लगी हाथ यूॅं ही भाई ।
जगत जगत् रहने की शिक्षा,
ज्ञान सिन्धु गुरु से पाई ।।५३।।
ॐ ह्रूँ लोकोत्तर
सत्य शिव सुन्दर नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
खिले कुमुदनी देख चन्द्रमा,
लख रवि खिले ‘पुष्प-पानी’ ।
सब जीवों का हित संपादन
करती एक आप वाणी ।।५४।।
ॐ ह्रूँ सर्व हितैषी
विनिर्गत राग-द्वेषी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘सहज-निराकुल’ देह नगन तुम,
मोक्ष-मार्ग दिखलाती है ।
देखो बेल उठा गर्दन कुछ,
गगन और छू आती है ।।५५।।
ॐ ह्रूँ सुभट सूर
वीर्य अनगूढ़ नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अर-अर-नव चारित-अर्णव तुम,
गहन गभीर निराला है ।
जिसे देख च्युत चरित-जनों ने
चारित आप सँभाला है ।।५६।।
ॐ ह्रूँ मद दर्प’ण
वृत दर्पण नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बहु जन हित संपादित चर्या,
आप अकेली इक थाती ।
धारा-शान्ति गुशाला, करघा,
प्रतिभास्-थलि विरद गाती ।।५७।।
ॐ ह्रूँ बहुजन हितु
भुवन मात पितु नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ओत-प्रोत जिनकीं संध्याएँ,
सिद्ध-बुद्ध के सुमरण से ।
जगत् चला आता करीब जिन,
सन्ध्या जुड़ने सु-मरण से ।।५८।।
ॐ ह्रूँ धन !
सु’मरण नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विकथाओं से मौन मौनि सो,
मुनियों ने कह संबोधा ।
कर्मों से टकराने वाला,
कहाँ आज इन सा जोधा ।।५९।।
ॐ ह्रूँ सूर नभ जैन
नूर चतुरंग सेन नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अंग-अंग संगोप कला यह,
कछुये ने इनसे सीखी ।
कब इनकी परिणति क्षण भर भी,
गुप्ति कोट बाहर दीखी ।।६०।।
ॐ ह्रूँ संगुप्त
समिति ‘त्रि’ गुप्त नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
एक विश्व कल्याण भावना,
इनके चिन्तन की धारा ।
आयुर्वेद प्रकल्प यूँ हि ना,
मर्त्त्य-भूमि ले अवतारा ।।६१।।
ॐ ह्रूँ कलि यान
विश्वकल्याण नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अक्ष-विजेता नाम न केवल,
इन्हें कहा ऊरध-रेता ।
इस मतलबी ‘जहां’ में नाहक,
कौन समय अपना देता ।।६२।।
ॐ ह्रूँ निस्संदेही
निस्पृह स्नेही नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धर्म ध्यान क्या ? और और की,
पीड़ा देख नहीं पाते ।
झिर लग श्रवण,भाद्र-पद जैसे,
दृग् धारा जल बरसाते ।।६३।।
ॐ ह्रूँ सुधा द्रुम
वसुधा कुटुम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रिद्धि, सात, रस गारव विरहित,
गौरव-शाली चरिया है ।
सकारात्मक अपने जैसा
जिनका आज नजरिया है ।।६४।।
ॐ ह्रूँ गारव शून्य
गौरवपूर्ण नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
बढ़ आगे इक सुभट जिन्होंने,
शिव-दर दरवाज़ा खोला ।
इक सुर से जय विद्या सागर,
तब बच्चा-बच्चा बोला ।।६५।।
ॐ ह्रूँ दिव विमान
शिव सोपान नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
स्वपर सभी सिद्धान्त आपके,
हृदय समाये हैं ऐसे ।
खुशबू गुल में, अलि में गुन-गुन,
रंग तितलियों में जैसे ।।६६।।
ॐ ह्रूँ मत मत
विद्वत नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चले सतत स्वाध्याय आपका,
महा-मन्त्र पढ़ते रहते ।
कर समाधि पल-मरणावीची,
नित शिव पथ बढ़ते रहते ।।६७।।
ॐ ह्रूँ अवतार
नवकार नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जितने भाव शगुन-शुभ-मंगल,
उनके आप पिटारे हो ।
बन-कर प्रतिनिधि बेजुबान गो,
बोली आप हमारे हो ।।६८।।
ॐ ह्रूँ मम ‘गल
मंगल नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चन्दा चिट्ठा मठ-पीठों से,
हाथ मिलाते देखा ना ।
देखा और भक्त फुसलाते,
ऐसा भी अभिलेखा ना ।।६९।।
ॐ ह्रूँ परिभाषा
दृष्टि नासा नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
इक मकान इक मशान जिनको,
धूरा इक चन्दन चूरा ।
नहीं अधूरा, जिन्हें प्रशम गुण,
अभि-सेचित माना पूरा ।।७०।।
ॐ ह्रूँ प्रशम
मरहम मर’हम नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ज्ञान ध्यान तप के हस्ताक्षर,
कहता इन्हें जगत् सारा ।
रहता ध्यान सदैव किसलिये,
दैगम्बर वाना धारा ।।७१।।
ॐ ह्रूँ भव विरक्त
ज्ञान ध्यान तपो रक्त नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पलकें पल के लिये खोलना,
एक जिन्हें अच्छा लगता ।
अविरल आत्म तत्त्व चिन्तक इक,
सितार तब चूनर टकता ।।७२।।
ॐ ह्रूँ धी’वर
डूब भी’तर नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ग्राहक नहीं रूठने पाये,
ऐसे अद्भुत आसामी ।
संघ-चार इक-संतुष्टी-कर,
हंस-वंश अन्तर्यामी ।।७३।।
ॐ ह्रूँ व्रत आसामी
भावृत अभिरामी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिनका अंतरंग पहरी सा,
पहर-पहर जागृत रहता ।
सोने वाला राहगीर पथ-
अरि-हत हो कैसे सकता ।।७४।।
ॐ ह्रूँ अन्तरंग
अन’तरंग नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अखर अखर स्पष्ट मधुर है,
पर हित है गुणकारी है ।
तब चकोर सी लगा टकटकी,
निरखे दुनिया सारी है ।।७५।।
ॐ ह्रूँ स्वर
अक्षर नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ढ़ेर शिष्य शिष्याएँ ढ़ेरों,
पर न आप मूर्च्छा रखते ।
गगन भाँत निर्लेप किसी को
कहें, तुम्हें बस कह सकते ।।७६।।
ॐ ह्रूँ गगन निर्लिप्त
भावी जीवन मुक्त नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
धूम उगलता रहता दीपक,
तेल चुके बुझ जाता है ।
अय ! प्रदीप-मण दुनिया रोशन,
करने से तुम नाता है ।।७७।।
ॐ ह्रूँ धन्य सीप
रत्न दीप नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मुट्ठी भर निज दिल नैय्या में,
सब संसार समाया है ।
यूँ ही तुम्हें न दुनिया ने कह,
‘तारण-तरण’ बुलाया है ।।७८।।
ॐ ह्रूँ अकारण शरण
तारण-तरण’ नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
छोटी-मोटी दूर, बड़ी भी,
बात क्षुभित ना कर पाती ।
सच सागर जैसी गभीरता,
कब जन-साधारण थाती ।।७९।।
ॐ ह्रूँ धीर-वीर
गंभीर नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आज यम, नियम, संकल्पों में,
त्रिभुवन कौन आप सानी ।
मेरु भाँत निष्कम्प आपकी,
चर्या किससे अनजानी ।।८०।।
ॐ ह्रूँ विद्यालय
चरित्र हिमालय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आठ-आठ-अरि पीछे हाय ! न,
इनको धूल चटा पाई ।
नया किसे, ले बना शत्रु सो,
क्षमा पृथ्वी सी अपनाई ।।८१।।
ॐ ह्रूँ क्षमावत्
पथिक क्षमा पथ नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गरम हुये, बन भाप उड़े हा !
हाथ राख भी ना लागी ।
अबकी हुये चन्द्रवत् शीतल-
गुण-स्वभाव इक अनुरागी ।।८२।।
ॐ ह्रूँ सहजो सरल
जल भिन्न कमल नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
समन्त-भद्र भावना भावित,
सरल भद्र-परिणामी हैं ।
वृषभ-ककुद काँधे बतलाते,
जो भावी शिव-गामी हैं ।।८३।।
ॐ ह्रूँ अन्तर्यामी
भद्र-परिणामी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दिये दिये भी पीछि-कमण्ड़ल,
शास्त्र एक बस रखते हो ।
सचमुच, आप अकेले गजवत्
स्वाभिमान जश रखते हो ।।८४।।
ॐ ह्रूँ स्व धनिक
आगमिक नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अभिनव-महावीर कह करके,
विद्वानों ने पूजा है ।
सूर्य सरीखे तेजस्वी तुम,
दिशा-दिशा से गूँजा है ।।८५।।
ॐ ह्रूँ वर्तमान
वर्धमान नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दक्षिण गर्भ, जन्म राजस्थाँ,
सींची बुन्देली माटी ।
सिंह सम देख पराक्रम, हतप्रभ
हुई असंयम परिपाटी ।।८६।।
ॐ ह्रूँ केशरी
मुख मन्त्र एकाक्षरी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जिस क्षण से जागे उस क्षण से,
कभी नहीं सोये बनके ।
आप फेरते सोत्साह नित
सूत्र अर्थ भावन मनके ।।८७।।
ॐ ह्रूँ जगत
जगत् नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हेत विशुद्धि आपने पल पल,
आत्म शुद्धि को अपनाया ।
सिर्फ काँचुली सर्प भाँत ना,
विसरी विष भी विसराया ।।८८।।
ॐ ह्रूँ विशुद्धि
आत्म शुद्धि नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जाने कितने छन्द हाईकू,
हृदय समाये मोती से ।
धन ! आदर्श ज्ञान-सागर तुम,
मोह न रखते पोथी से ।।८९।।
ॐ ह्रूँ विश्रुत
श्रुत सुत नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दरद मन्द बन, दरद दन्त-रण,
खेल खेल में जीता है ।
अन्तर्मन एकत्-त्वरु विभक्त,
आत्म भावना तीता है ।।९०।।
ॐ ह्रूँ आसक्त
एकत्व विभक्त नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
सा, रे, गा, मा, पा, धा, नी ‘ई’-
स्वर आनन्द भुलाया है ।
निजानन्द लवलीन आप
ईश्वरा-नन्द मन भाया है ।।९१।।
ॐ ह्रूँ आत्मनिर्भर
परमात्मनिर्भर नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
गर्भ उठाये प्रण की खातिर,
जीवन चूँकि समर्पित है ।
गुण निजात्म अनुराग, आपका,
इन्द्र सभा में चर्चित है ।।९२।।
ॐ ह्रूँ प्राप्त पर्याप्त
ख्याति प्राप्त नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
आज अकेले आप नाम का,
सिक्का चलता दुनिया में ।
एक यशस्वी, चूँकि डालते,
नेकी करके दरिया में ।।९३।।
ॐ ह्रूँ मनस्वी
यशस्वी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘नहीं इन्डिया-भारत बोलो’
जा पहुँचा संसद नारा ।
ओजस्वी वक्त्व्य आपका,
पन-चातुर्य रखे न्यारा ।।९४।।
ॐ ह्रूँ सुर’भी सौरभ
भारत गौरव नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
दो महिने में कच-लुञ्चन् तुम,
कर लेते निज हाथों से ।
दूर जुबां, कह सका न कोई
दिखे माँगते आँखों से ।।९५।।
ॐ ह्रूँ आशुतोष
गुण संतोष नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
ट्रक-ट्रक भले ज्ञान के सागर,
विद्या सागर है लिक्खा ।
वक्त मिले तो, देखो ‘कछु…आ,
आस-पास है क्या रक्खा ।।९६।।
ॐ ह्रूँ अनन्य
आकिंचन्य नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
विद्या-भूषण नाम किसी का,
आज इन्हीं का आता है ।
शील-शिरोमण नाम ऋषि क्या ?
राज ! इन्हीं का नाता है ।।९७।।
ॐ ह्रूँ शील सम्पन्न
श्रुत ज्ञान सिन्ध नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
खेल-खेल में, शब्द खेल में,
निकले सबसे आगे हैं ।
बुद्धि अलौकिक रखने वाले,
स्व-अनुभवि बड़ भागे हैं ।।९८।।
ॐ ह्रूँ प्रत्युत्पन्नमति
जीवन्त गुरु ज्ञान कृति नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मूलाचार पढ़ो या देखो,
रत व्रत समित-गुप्त इनको ।
नासा-दृष्टी, दृष्टि न आशा,
रखी छका पाने मन को ।।९९।।
ॐ ह्रूँ ऋचा वेद चार
जीवन्त मूलाचार नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हुआ रोग हरपीस आपको,
थी पीड़ा सुनते भारी ।
पय-पानीय विवेकी तुमनें,
‘सही’ रह निराकुल सारी ।।१००।।
ॐ ह्रूँ मत हंस
सन्मत वंश नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
अँगुली उठा सका ना कोई,
जीवन ऐसा, सिंह जैसा ।
मन, वच, काय विशुद्ध जिन्हें न
छू पाये रागरु-द्वेषा ।।१०१।।
ॐ ह्रूँ निस्पाप-निष्कषाय
विशुद्ध मन, वच, काय नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जितना शुद्ध विशुद्ध ज्ञान तुम,
उतना दर्श, चरित, तप भी ।
इक मत जुड़ी बड़े-बाबा से
तब छोटे-बाबा जप भी ।।१०२।।
ॐ ह्रूँ छोटे-बाबा
चल काशी काबा नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जो चाहे, उसके हाथों में,
जिन-गुण-सम्पद् रख देते ।
बारी जब आती लेने की,
हाथों का श्री फल लेते ।।१०३।।
ॐ ह्रूँ भा’रत
निस्वारथ नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
हर सवाल का लाजबाब ही,
देखा जवाब देते हैं ।
विरले तो हैं, काकी जैसे,
कोकिल नैय्या खेते हैं ।।१०४।।
ॐ ह्रूँ अनुत्तर
प्रागेव दृष्टोत्तर नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
मूल सुरक्षित वृक्ष फूल-फल,
तब सौरभ मण्डित पाता ।
सहज-निराकुलता खुद कहती,
मूल गुणन गहरा नाता ।।१०५।।
ॐ ह्रूँ शगुन
सार्थ ‘गुन’ नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
चालें निरख, ठहरते ही पर,
दोनों कान पकड़ते हैं ।
बीज अभीक्ष्ण संवे-गिक तब,
भू-रत्नत्रय पड़ते हैं ।।१०६।।
ॐ ह्रूँ पाप भीत
गुण संवेग प्रीत नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
रोजगार बिन थे नाकारा,
वैसे पढ़े-लिखे अच्छे ।
दूरदर्शिता सिर्फ आपकी,
छुयें आसमाँ जो बच्चे ।।१०७।।
ॐ ह्रूँ दूरदर्शी
ज्ञानी तलस्-पर्शी नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
नखत स्वाति पा सीपी शिल्पी,
नेक अवतरे मोती है ।
किन्तु उपाधि ‘सन्त-शिरोमणी’
इनकी सिर्फ बपौती है ।।१०८।।
ॐ ह्रूँ विघ्न विमोचन
सन्त शिरोमण नमः
अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
जयमाला
‘लघु-चालीसा आचार्य श्री’
दोहा-
श्रद्धा से जिसने लिया,
विद्या सागर नाम ।
आँखों देखी कह रहा,
बनता बिगड़ा काम ।।
जयतु जयतु जय विद्या-सागर ।
सन्त शिरोमण ! गुण रत्नाकर ।।
श्री मति सुत मल्लप्पा नन्दन ।
जन्म सदलगा माटी चन्दन ।।१।।
कोमल हृदय ! भद्र-परिणामी ।
पर-हित-आतुर ! अन्तर्जामी ।।
श्री गुरु ज्ञान-सिन्धु मन बसिया ।
कुन्द-कुन्द श्री-गुरु गुण-रसिया ।।२।।
खाते धूप खिलाते छाया ।
माँ किरदार बड़ा मन भाया ।।
इक सुकून मिलता है मन को ।
अपनी व्यथा सुना के इनको ।।३।।
दुखड़ा सबका हर लेते हैं ।
सुखिया सबको कर देते हैं ।।
भर देते हैं झोली खाली ।
बस आ जाये द्वार सवाली ।।४।।
दुखी किसी को देख न पाते ।
झिर लग दृग् पानी बरसाते ।।
हुआ आपका नजर उठाना ।
तम ने यम का घर पहचाना ।।५।।
भले दूर से तुम दिख जाते ।
प्रश्नों के उत्तर मिल जाते ।।
यात्रा थकन, मिटाती सारी ।
मिली एक मुस्कान तुम्हारी ।।६।।
अमरित झिरे चन्द्र मुख ऐसा ।
बूँद खरीद न पाये पैसा ।।
तुम जिससे बतिया लेते हो ।
मन उसका हथिया लेते हो ।।७।।
चरणोदक जिसने तुम पाया ।
सुख-वैकुण्ठ तुरत ठुकराया ।।
स्वर्गों में सुख क्या मिलता है ।
आप करीब ‘निराकुलता’ है ।।८।।
श्वास और निःश्वास सभी के ।
आप एक विश्वास सभी के ।।
तुम्हें छोड़ द्वारे किस जायें ।
तुम्हीं हमारे तभी बुलायें ।।९।।
अश्रु सिवा कुछ पास न मेरे ।
जो चरणों में रख दूँ तेरे ।।
ले भावन, पल-अंतिम सुमरण ।
श्रद्धा सुमन करूँ मैं अर्पण ।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री आचार्य विद्यासागराय
जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।
‘दोहा’
एक दृष्टि बस डाल दो,
साथ मन्द मुस्कान ।
बड़ा और कोई नहीं,
यही एक अरमान ।।
।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
‘दोहा’
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
‘आरती’
आरती उतारो ले दीप, आओ मिल के ।
छोटे-बाबा में, गुरु कुन्द-कुन्द झलके ।।
मनोकामना पूर्ण ! हरतार दुखड़ा ।
निकलंक पूनम शरद् चाँद मुखड़ा ।।
भवि-भागन-वशि आये, दक्षिण से चल के ।
छोटे-बाबा में, गुरु कुन्द-कुन्द झलके ।।१।।
ग्राम ‘सदल-गा’ में अवतार लीनो ।
धन्य मल्लप्पा, माँ श्रीमन्ति कीनो ।।
बचपन से पग अपने, रक्खें सँभल के ।
छोटे-बाबा में, गुरु कुन्द-कुन्द झलके ।।२।।
दिश-भूषण सूरि साक्षि व्रत-ब्रह्मचारी ।
सूरि ज्ञान-सिन्धु साक्षि दीक्षा तुम्हारी ॥
आज सूरि-निर्ग्रन्थ, भगवन्त कल के ।
छोटे-बाबा में, गुरु कुन्द-कुन्द झलके ।।३।।
दीक्षा श्रमण, अर्जिका मॉं बनाईं ।
खोलीं गो-शालाएँ, कविता रचाईं ।।
पर पीड़ा देख बने, नेत्र-स्रोत जल के ।
छोटे-बाबा में, गुरु कुन्द-कुन्द झलके ।।४।।
गुण आप उतने, जितने सितारे ।
देवों के गुरु कहके, दो-शब्द हारे ।।
‘निराकुल’ न पार पारावार बाहु-बल के ।
छोटे-बाबा में, गुरु कुन्द-कुन्द झलके ।।५।।
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