- परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 757
=हाईकू=
दर्शन,
‘आप’
चरणस्-पर्शन,
दे सम्यक्-दर्शन ।।स्थापना।।
सिन्धु भी नहीं आप जैसा गभीर,
सो भेंटूँ नीर ।।जलं।।
कहाँ चन्दन की आप-सी सुगंध,
सो भेंटूँ गन्ध ।।चन्दनं।।
और अक्षत न स्वाभिमान,
भेंटूँ सो शालि-धान ।।अक्षतं।।
कुल-गुरु जो तुम्हारा गुरु-कुल,
सो भेंटूँ गुल ।।पुष्पं।।
रखते तुम माँ जैसा ध्यान,
भेंटूँ सो पकवान ।।नैवेद्यं।।
तुमने कभी तेरा-मेरा न किया,
सो भेंटूँ दीया ।।दीपं।।
तुम राखो न चश्मा नाक पर,
सो भेंटूँ अगर ।।धूपं।।
मेले भी तुम रह होते अकेले,
सो भेंटूँ भेले ।।फलं।।
तुम्हें न भाई श्वान सा मुँ बाऊँ,
सो अर्घ चढ़ाऊँ ।।अर्घ्यं।।
=हाईकू=
‘और’ नाजुक कमल,
गुरु खुद को नारियल
।।जयमाला।।
दूर से ही दृष्टि जो, तुम्हारी पड़ गई
कीमत गुरुदेव जी, हमारी बढ़ गई
जमा विश्वास जमाने का मेरी बातों पर,
बिठाया जमाने ने मुझे सर-आँखों पर
पतंग गुरुदेव जी हमारी उड़ गई
कीमत गुरुदेव जी, हमारी बढ़ गई
दूर से ही दृष्टि जो, तुम्हारी पड़ गई
कीमत गुरुदेव जी, हमारी बढ़ गई
कद हुआ ऊंचा सा, वक्त मेरा बदल गया
छटीं बदलियाँ, ‘के जादू मेरा चल गया
आ गई बहार, रित पतझड़ गई
कीमत गुरुदेव जी, हमारी बढ़ गई
दूर से ही दृष्टि जो, तुम्हारी पड़ गई
कीमत गुरुदेव जी, हमारी बढ़ गई
जमा विश्वास जमाने का मेरी बातों पर,
बिठाया जमाने ने मुझे सर-आँखों पर
पतंग गुरुदेव जी हमारी उड़ गई
कीमत गुरुदेव जी, हमारी बढ़ गई
दूर से ही दृष्टि जो, तुम्हारी पड़ गई
कीमत गुरुदेव जी, हमारी बढ़ गई
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
=हाईकू=
फाँसते नहीं,
गुरु
हाँ…हाँ…
देते तो रास्ते जरूर
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