परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 178
निराकुल है रोम रोम ।
रहें जपते ओम-ओम ।।
सिन्धु विद्या वे मुनीश ।
दें आशीष निशि-दीस ।। स्थापना ।।
लिये नीर झारिंयाँ ।
रहे हार पारिंयाँ ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
दीजे बना साहसी ।। जलं ।।
लिये मलय नीर हम ।
छूये असह्य पीर गम ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
रहे कोई न दुखी ।। चंदनं।।
लिये अछत थालिंयाँ ।
रहीं छिन दिवालिंयाँ ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
दो सँवार जिन्दगी ।। अक्षतम् ।।
सुमन-ए-पिटारिंयाँ ।
मदने दुश्वारिंयाँ ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
गले गहल श्वान ‘ई’।। पुष्पं ।।
पकवान घृत बने ।
कण-कण अमृत सने ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
पाये हर हर खुशी ।। नैवेद्यं ।।
दीप ले सुहावने ।
छकाया मोह भाव ने ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
चले न अब मोह की ।। दीपं ।।
लिये धूप हाथ में ।
भाव नूप साथ में ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
पा लूँ आठवीं जमीं ।। धूपं ।।
फल सभी ही रसीले ।
दृग् अभी भी पनीले ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
आ भी जाओ इस गली ।। फलं ।।
अरघ ले परात में ।
हूँ अनाथ, नाथ ! मैं ।।
गुरु विद्या सिन्धु जी ।
दास लो बना निजी ।। अर्घं।।
==दोहा==
अजब अनोखे किस्म का,
है गुरु का दरबार ।
नया-नया पाते यहाँ,
आते जितनी बार ॥
॥ जयमाला ॥
चेनो-मन-बरसात ।
गुरु का आशीर्वाद ।।
घृत से मीठा है ।
अमृत सरीखा है ।।
माँ के हाथों सा स्वाद ।
गुरु का आशीर्वाद ।।
सबसे चोखा है ।
स्वर्ण अनोखा है ।।
अभूत पूरब प्रात ।
गुरु का आशीर्वाद ।।
सबसे सुन्दर है,
शीतल चन्दर है ।
पूरण मासी रात ।
गुरु का आशीर्वाद ।।
बहुत खूब सूरत ।
भाँत शुभ मुहूरत ।।
मिसरी दही प्रसाद ।
गुरु का आशीर्वाद।।
सबसे बढ़िया है ।
नदिया रु दिया है ।।
पचपन ‘बचपन’ याद ।
गुरु का आशीर्वाद ।।
चेनो मन बरसात।
गुरु का आशीर्वाद ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
यही विनय अनुनय यहीं,
छोटे बाबा एक ।
नजर उठा करके जरा,
एक बार लो देख ॥
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