परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 62
न देखूँ तुझे, तो क्या करूँ,
तू सुन्दर जो इतना ।
पास आसमां जो चाँद है,
न सुन्दर वो इतना ।।
चेहरे-तिल,
ऐसा दरिया-दिल, है और कहाँ ।
न समुन्दर बस,
समाया सारा जिसमें जहाँ ।।स्थापना।।
अयस् न, पंक जिसे कर देता,
है खोटा ।
स्वर्ण, पंक कर सका न आज,
तलक टोटा ॥
लागा हाथ प्रमाद !
हाथ लागा बन्धन ।
अवहित बनने नीर लिये,
करता वन्दन ।।जलं।।
मुझे गलाने की सामर्थ न,
पानी में ।
हूँ माध्यस्थ अपर आमद में,
हानी में ॥
राग-द्वेष वायु भव चक्र,
सबल करती ।
भव हरने परिगति चन्दन,
चरणन धरती ।।चन्दनं।।
बेत, वृक्ष ना बाढ़ मिरा क्या,
हर लेगी ।
जागृत, मृत्यु दाढ़ मिरा क्या,
कर लेगी ॥
आप आप खाई मुँह की,
सुध-बुध खोके ।
पद अक्षत पाने लाया,
अक्षत धोके ।।अक्षतं।।
हूँ विभिन्न मन से मनसिज से,
रिश्ता क्या ?
कारण बिन जग होता कारज,
दिखता क्या ।
गहल श्वान सी भजी हन्त ! सिर,
आफत ली ।
भेंटूँ पुष्प न आत्म कहाये,
अब पगली ।।पुष्पं।।
मैं चेतन जाती का जड़,
पुद्-गल माया ।
लोभादिक भावों का न,
मुझपे साया ।
गहल-वानरी भ्रमण कराये,
भव वन में ।
गफलत हनने चरु लाया,
तव चरणन में ।। नेवेद्यं।।
दीपक नहीं, तले जिसके,
अन्धर होता ।
स्व पर प्रकाशक हूँ अन्धर,
जग का खोता ॥
भ्रम वश शलभ भाँति हा,
जलता आया हूँ ।
हर लीजे अज्ञान, दीप-
घृत लाया हूँ ।।दीप॑।।
मुझे छुआ ना रंच कर्म ने,
हूँ पावन ।
जलज भले जल, जल कब छुये,
जलज दामन ॥
पर सावन खोया जड़ पुद्-गल पे,
झुक के ।
धूप भेंटता, सुख-से पल भासें,
दुख के ।।धूपं।।
राज हंस जेती मति धरने,
वाला हूँ ।
सहजानंद स्वभावी शान्त,
निराला हूँ ।।
घर की भटका राह पाप,
चुंगुल फँस के ।
लाया फल विहँसें अघ जो,
कीने हँस के ।।फलं।।
कभी न पतझड़ आये मेरे,
जीवन में ।
हूँ प्रसन्न मैं रहूँ भले,
उपवन, वन में ॥
खेल खेल में दीप बुझा,
लीना श्वासन ।
अरघ भेंटता निज सा कर,
लीजे स्वामिन् ।।अर्घं।।
“दोहा”
जिन सा त्रिजग न दीखता,
कलि करुणा अवतार ।
गुरु विद्या सविनय तिन्हें,
वन्दन बारम्बार ॥
“जयमाला”
श्री गुरु ज्ञान सिन्धु जिनके,
देवों में आते हैं ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु तिन्हें हम,
शीश नवाते हैं ॥
ग्राम सदलगा माटी जिनने,
छूँ कीनी चन्दन ।
श्रीमती माँ श्री पिता मलप्पा,
जी के जो नन्दन ।।
दूजी ही कक्षा के जो पाठी,
कहलाते हैं ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु तिन्हें हम,
शीश नवाते हैं ॥
श्रमण देश भूषण जी से,
व्रत ब्रह्मचर्य लीना ।
पाने ज्ञान समर्पण श्री गुरु,
ज्ञान चरण कीना ॥
पंच महाव्रत समिति गुप्ति त्रय,
जिन्हें लुभाते हैं ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु तिन्हें हम,
शीश नवाते हैं ॥
माँ जिन श्रुत का वरद हस्त,
जिनका मस्तक चूमे ।
पा जिनका हस्तावलम्ब ध्वज,
जैन धर्म झूमे ॥
पाने पद तीर्थेश भावना,
सोलह भाते हैं ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु तिन्हें हम,
शीश नवाते हैं ॥
जिनके बिन किनको है चिन्ता,
कृष्णन गायों की ।
आज हो रहे जर्जर संस्कृत,
भरतन पायों की ।।
भक्तन मन कल्याण मित्र से,
हृदय समाते हैं ॥
श्री गुरु विद्या सिन्धु तिन्हें हम,
शीश नवाते हैं ॥
जिनकी लेखनी सचमुच,
चमत्कार सा करती है ।
मति मराल जिनकी गागर में,
सागर भरती है ।।
सुर गुरु भी जिनका गुण कीर्तन,
कर नहीं पाते हैं ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु तिन्हें हम,
शीश नवाते हैं ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
भक्त हृदय संस्थित अहो,
अमिट अनादि ज्योत ।
भव जल पतितन हम हमें,
लो बैठा शिव पोत ॥
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