परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 246
एक तारण तरण ।
एक अकारण शरण ।।
बीच नैय्या भँवर ।
खीच, कर दो उधर ।। स्थापना ।।
हो सकूं निरालस ।
भर नीर के कलश ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। जलं ।।
खो सकूं प्रणय-रस ।
ले कलश मलय-रस ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। चंदनं ।।
खो सकूं कालिमा ।
पय समाँ शालि-धाँ ।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। अक्षतम् ।।
खो सकूं मद-मदन ।
मन लुभावन सुमन ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। पुष्पं ।।
खो सकूं गद-क्षुधा ।
पकवाँ समाँ सुधा ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। नैवेद्यं ।।
हो सकूं ज्ञान वाँ ।
दीव जित-भान भा ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। दीपं ।।
हो सकूं निज निकट ।
ले नूप-धूप घट ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। धूपं ।।
खो सकूं फिकर कल ।
ले सकल सरस फल ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। फलं ।।
खो सकूं लगन अघ ।
ले कुछ अलग-अरघ ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। अर्घं।।
“दोहा”
पता बुजुर्गों से लगा,
साँचा तेरा द्वार ।
भटक-भटक के आ रहा,
कर दो बेड़ा-पार ।।
।। जयमाला ।।
।। नमन नमन ।।
नूर गगन ।
चूर मदन ।।
दीप रतन ।
सीप शगुन ।।
जेय करण ।
ध्येय शरण ।
नगन श्रमण ।
नमन नमन ।।१।।
प्राप्त मगन ।
आप्त यजन ।।
सार्थ सुमन ।
पार्थ लखन ।।
ध्यान विजन ।
ज्ञान मगन ।।
नगन श्रमण ।
नमन नमन ।।२।।
खत्म भ्रमण ।
आत्म रमण ।।
घात विघन ।
आद चरण ।।
सौख्य सदन ।
सौम्य वदन ।।
नगन श्रमण ।
नमन नमन ।।३।।
चित्त हरण ।
नित्य भजन ।।
हाथ सपन ।
नाथ अपन ।।
सतत जतन ।
विरद प्रशन ।।
नगन श्रमण ।
नमन नमन ।।४।।
।। जयमाला पूर्णार्घ्य ।।
“दोहा”
दृग् लाली दृग् को कहाँ,
दिख सकती गुरुदेव ।
दे दीजे इस बार भी,
माफी भाँति सदैव ।।
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