परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 173
हैं पाबन्द समय के बचपन से ।
जिन्हें ‘निराकुल है’ न सुना किनसे ।।
नियम लगे नहिं जिन्हें कभी बन्धन ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु तिन्हें वन्दन ।। स्थापना।।
प्रासुक जल के भर लाये कलशे ।
पा पाहन पथ पे, होने जल से ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। जलं ।।
लाये घिस कर हाथों में चन्दन ।
फिरूँ न हित कस्तूरी मृग बन वन ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। चंदनं ।।
अछत-अछत से भर लाये थाली ।
मन जाये कच्छप सी दीवाली ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। अक्षतम् ।।
चुन-चुन पुष्प थाल हैं भर लाये ।
भेद भ्रमर मन नेह कमल पाये ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। पुष्पं ।।
ले आये नीके व्यंजन घी के ।
आने ‘ही’ से कुछ करीब ‘भी’ के ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। नैवेद्यं ।।
घृत दीपों की लिये खड़े माला ।
बदलूँ चाबी खुले न गर ताला ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। दीपं ।।
धूप सुगन्धित लाये मनहारी ।
स्वानुभूति गुल महके हिय क्यारी ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। धूपं ।।
ऋतु फल मीठे-मीठे ले आया ।
विहँसे आप आप वानरि-माया ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। फलं ।।
कर मिश्रण ले आठ दरब आये ।
खो श्वानी इस बार गहल जाये ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। अर्घं।।
==दोहा==
गुरु गुण कीर्तन से बड़ा,
आमद पुण्य न स्रोत ।
आ पल दो पल के लिये,
बालें उर गुरु ज्योत ।।
॥ जयमाला ॥
ओ खिवैय्या,
मेरी नैय्या ।
दो लगा उस पार,
गुरु जय-जयकार ।।
था निगोद, इक श्वास भी,
नहीं ले पाता था ।
अठ-दश बार जनम-यम,
आ देता न्यौता था ।।
बड़े जतन से किया हाथ में,
था फिर त्रस-परिवार ।
ओ खिवैय्या,
मेरी नैय्या ।
दो लगा उस पार,
गुरु जय-जयकार ।।
नरक में सभी जात-भ्रात,
निशि-जागर घाई ।।
मार झपट्टे भूस-भूस,
थे करें लड़ाई ।।
बड़े जतन से था पाया,
जोनि तिर्यंच का द्वार ।
ओ खिवैय्या,
मेरी नैय्या ।
दो लगा उस पार,
गुरु जय-जयकार ।।
यहाँ हाथ बदले इक और,
पाँव की जोड़ी ।
पर वश जिये, जिये क्या,
घुट-घुट के दम तोड़ी ।।
पुण्य उदय से देवों में जा,
था लीना अवतार ।
ओ खिवैय्या,
मेरी नैय्या ।
दो लगा उस पार,
गुरु जय-जयकार ।
वही घड़ी आहिस्ता,
कभी भागती लगती ।
उड़ था खूब चुका आकाश,
पड़ा फिर धरती ।।
पता क्या हुआ ?
फीका पड़ने लगा गले का हार ।
ओ खिवैय्या,
मेरी नैय्या ।
दो लगा उस पार,
गुरु जय-जयकार ।।
मिला मनुज भव,
हा ! जाता विषयों में यूँ ही ।
तारण-तरण दिखे न और,
दिखे इक तू ही ।।
बहुत खा चुका मुँह की,
मुझे न खानी अब की बार ।
ओ खिवैय्या,
मेरी नैय्या ।
दो लगा उस पार,
गुरु जय-जयकार ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
यही विनय अनुनय यही,
धर्म अहिंसा दीप ।
स्वाति बिन्दु इक ही सही,
पाये ये शिशु सीप ॥
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