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श्री गुरु विधान

11. विधान- अद्भुत श्री गुरु

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

हाई-को ?
क्या आता जादू-टोना ?
जो खिंचा चला आता जमाना,
जादू से दूर हैं ।
गुरु जादूगर मशहूर हैं ।।

*पूजन*
छव जिसकी बिलकुल,
भगवन् से मिलती ।
हटके सुखी एक,
दर्शन से मिलती ।।
आओ आके देखो जरा ।
लिया किसी ने चित् मेरा चुरा
अभी अभी मुस्कुरा,
है जिसका मुखड़ा
चाँद का टुकड़ा
पा झलक जिसकी
पल-पलक न ठहरे दुखड़ा ।
अपनी इक नजर उठा ।
लिया किसी ने चित् मेरा चुरा ।
हैं जिसके बोल,
मिसरी के घोल ।
गुजारे साथ में पल वे अनमोल ।।
सबसे अलग है, वो सबसे जुदा ।।स्थापना।।

तूने रोशनी,
हर खुशी,
कर दी मेरे संग है ।
तूने जीवन में मेरे,
भर दिया रंग है ।।
करुणा तेरी तारीफे काबिल है ।
करता तेरी तारीफें मेरा दिल है ।
तूने मेरे जीवन का
सूना सूनापन,
अधूरापन कर दिया छू है ।
तूने मेरे जीवन में,
भर दी खुशबू है ।
इक अजनबी को दी,
शरणा तेरी तारीफे काबिल है ।
करता तेरी तारीफें मेरा दिल है ।।जलं।।

काँव काँव कागा-ए-मन शरारत
तनाव ये ताव करना नदारत
दूर ‘फिर न’ ज्यादा
आ बैठ श्री गुरु नाव
दूर फिर न ज्यादा शिव गाँव
अय ! दिले नाँदां
पहिन उगलती अग्नि जेवर ।
दिखा रही हा ! गर्मी तेवर ।।
ऐसी सूरत में श्री गुरु के पाँव
घनी बरगदी छाँव
भाग हाथ कुछ उखड़ा-उखड़ा ।
मार कुण्डली बैठा दुखड़ा ।।
ऐसी सूरत में श्री गुरु के पाँव
माँ के आँचल वाली छाँव ।।चन्दनं।।

कलदार थे खोटे, कुछ हटके चल गये ।
थे बढ़ते हुए दीवा, ‘के फिर से जल गये ।
थे मुदने को गुल, ‘के खुल के खिल गये ।
तुम जो मिल गये ।
‘कि हम संभल गये ।।अक्षतं।।

दयाल-धन ! हाथों से,
गुरु भगवन् आंखों से,
जिनको राह मिल जाती
पतंग उनकी उड़ जाती
दीवाली लगती हाथ फुल झड़ी
पिचकारी, लगती हाथ रंग-भरी
क्या रात-रात में,
‘जि बात-बात में,
बन जाती बिगड़ी
सावन पाती जिन्दड़ी
बजाने लगती दश-दश घड़ी
हाथ लग चलती जादुई छड़ी
तरु सघन छाँवों में,
गुरु भगवन् पाँवों में,
जिन्हें पनाह मिल जाती ।।पुष्पं।।

नूरानी चेहरा ।
सिन्धु ज्ञान गहरा ।
जश दिश्-दश बिखरा ।
शिव राधा सेहरा ।
सिर्फ तुमने पाया ।
न हाथ और आया ।
श्री गुरु विद्या मुनि राया ।।नैवेद्यं।।

मन मानस काले-काले
आ लहरों ने धो डाले
मत मराल कर दिया
निहाल कर दिया
पहुंचा के अपनी लहर
विद्या सागर ने घर-घर
कमाल कर दिया
परचम गर्मी भीतर था
की लहरों ने शीतलता
हृदय विशाल कर दिया ।।दीपं।।

कषाय तेरी होने लगी शमन ।
किसी से तुझे होती नहीं जलन ।
दे…बता जरा क्या नुस्खा है ।
क्यूँ आता तुझे न गुस्सा है ।
दया से तेरे भींगे रहते नयना ।
दुआ से तेरे भींगे रहते वयना ।
दुखड़ा हर किसी का लेते सुन ।
तुम मोह, हर किसी का लेते मन ।।
देवता क्या राज इसका है ।।धूपं।।

दरद मन्द का
कृपा वन्त का
सुत श्री-मन्त का
डंका बाज रहा
छव गुरु कुन्द-कुन्द झलकी
करुणा आँखों से छलकी
शिल्प गुरु ज्ञान सिन्ध का
दया पन्थ का
डंका बाज रहा
स्वर्ग अन्त तक
दिग्-दिगन्त तक गाज रहा
बाँहें रहती हैं फैली
सभी मण रत्न एक थैली
ज्योति इक जुदा दीपिका
परणत देख दुखी रो दी
बच्चों पे कुरबां गोदी
मोति समर्पण सीप का
डंका बाज रहा ।।फलं।।

वन्दनम् वन्दनम्
गुरुवरम् वन्दनम्
मन तराने तेरे गुनगुनाये रात-दिन
बिना देखे तुझे न चैन पाते नयन
आँसुओं से पखाऊँ मैं तेरे चरण
मेरे भगवन्, मुझे ले लो अपनी शरण
सदलगा गौरवम्
शरद पूनम जनम
श्री मन्त नन्दनम्
वन्दनम् वन्दनम् ।।अर्घ्यं।।

=विधान प्रारंभ=
(१)
स्वर्ण के लेकर के कलशे
लबालब भर करके जल से
हाथ से अपने घिस कर के
लिये घट रस चन्दन भर के
शालि धाँ ‘धाँ-कटोर’ वाली
लिये मण-रत्न खचित थाली
नाम सुन्दर, नमेर, नाना
लिये गुल नन्दन बागाना
चारु चरु अठपहरी घी के
लिये मिसरी खुद सारीख
स्वर्ण थाली छव संजीवा
लिये घृत बात रत्न दीवा
गंध हटके बगान नन्दन
लिये घट धूप चूर-चन्दन
निराली अलकापुर क्यारी
लिये फल थाली रतनारी
गंध, जल, फल, गुल, धाँ-शाली
लिये चरु सुगंध दीपाली
चले आते हैं, दर पर तेरे
अय ! ईश्वर मेरे
रोजाना लिये अपनी निगाह नम
चाहते हैं तेरी पनाह हम ।। अर्घ्यं ।।
(२)
दया तेरी विरली
भेंटते जल गगरी
गंध निरी
धाँ सुधरी
पुष्प लरी
चरु मिसरी
ज्योत जगी
सुर सुर’भी
फल गठरी
भेंटते द्रव सबरी
दया तेरी विरली
तुम कृपा बरसाते
पुकारा आ जाते
कब लगाते देरी
आँख नमतर तेरी ।।अर्घ्यं।।
(३)
झीनी-झीनी संग अबीर
भेटूॅं गंगा-सिन्धु नीर
भेटूॅं चन्दन मलया-गीर
भेटूॅं धां छव गन्ध गभीर
भेटूॅं शत-दल विभिन्न नीर
भेटूॅं चरु घृत गायन गीर
भेटूॅं दीवा अगम समीर
भेटूॅं गन्ध पसन्द अमीर
भेटूॅं फल तरु बैठे ‘कीर’
भेटूॅं जल, फल, द्रव्य अखीर
झीनी-झीनी संग अबीर
क्योंकि है तुझ जैसा बस तू
गुरु ज्ञान-सिन्ध उपवन
पा विद्या-सिन्ध सुमन
छाया सुर्ख़ियों में
चूँकि छू रहा गगन
लगा पंख खुशबू
जय-विद्या जय जयतू ।।अर्घं।।
(४)
सिन्ध क्षीर
भेंट नीर
हित अखीर
हट सुगन्ध
भेंट गन्ध
हेत पन्थ
खुद समान
भेंट धान
हित विमान
छव अमूल
भेंट फूल
हेत कूल
चरु परात
भेंट ख्यात
हित समाध
मण अजीब
भेंट दीव
हित सजीव
घट अनूप
भेंट धूप
हित स्वरूप
फल पिटार
भेंट न्यार
हित किनार
थाल स्वर्ण
भेंट अर्घ
हित पवर्ग
महिमा अपार गुरु उपकार की
दया मयी
क्षमा मयी
करुणा मयी
अपने ही जैसी अहिंसा मूरत गढ़ दी
नज़र पारखी
गुरु ज्ञान सिन्ध की
नज़र पारखी ।।अर्घं।।
(५)
कलि प्रत्याशी शिव-नगरी !
लाये कंचन जल गगरी
लाये चन्दन मलय गिरी
लाये धाँ अखण्ड विरली
लाये पुष्प सुरग नगरी
लाये चरु घृत अठपहरी
लाये ज्योत ऊर्ध्व लहरी
लाये नन्दन गन्ध निरी
लाये ऋत-ऋत फल मिसरी
लाये दिव्य द्रव्य शबरी
कलि प्रत्याशी शिव-नगरी !
छोटे बाबा हमारे
गुरु कुन्द-कुन्द बगिया के फूल हैं
छोटे बाबा हमारे
और हम उनके चरणों की धूल हैं
हैं हमें प्राणों से प्यारे
छोटे बाबा हमारे
सारी दुनिया से न्यारे
हैं हमें प्राणों से प्यारे
छोटे बाबा हमारे ।।अर्घं।।
(६)
भिंटाओ गुरु चरणन सादर
आओ लाओ जल गागर
लाओ चन्दन मलयागर
लाओ अक्षत मण पातर
लाओ पुष्प दिव मँगाकर
लाओ नेवज मनवाहर
लाओ लौं अबुझ जगाकर
लाओ सुगन्ध जग-जाहर
लाओ थाल फल सँजाकर
लाओ द्रव्य सब मिलाकर
भिंटाओ गुरु चरणन सादर
श्री गुरु कृपा थोड़ी भी
थोड़े से थोड़ी भी
श्री गुरु कृपा कम नहीं होती
विद्या सागर मोती
सीप ज्ञान सागर
विद्या सागर मोती ।।अर्घं।।
(७)
लाकर जल गंगा वाला
करते गुरु चरणन धारा
लाकर चन्दन मलयागर
रखते गुरु चरणन सादर
थाली मरकत अक्षत धाँ
रखते श्री गुरु चरणन ला
पुष्प मँगाकर वन गगना
लाकर रखते गुरु चरणा
मण पातर, मनहर व्यंजन
रखते लाकर गुरु चरणन
दीप अंधेरे अपहरते
ला गुरु चरणों में धरते
गंध महकती दिशा-दिशा
गुरु चरणों में रखते ला
रित-रित फल श्रीफल भेला
रखते गुरु चरणों में ला
लाकर द्रव्य सभी दृग्-नम
गुरु चरणों में रखते हम
आ मनुआ
‘रे आ मनुआ
गुरु चरणों में रखते हैं, अपना माथा
जोड़ने भगवन् से अपना,
अटूट नाता ।।अर्घ्यं।।
(८)
गंगा जल
जल संदल
धाँ उज्ज्वल
नवल कँवल
चरु दिव-थल
लौं अविचल
गन्ध अनल
मिसरी फल
द्रव्य सकल
क्यूँ न चढ़ाऊँगा
मैं तो चढ़ाऊँगा दृग् सजल
द्रव्य सकल
गैरों में किसी को भी, रखते ही नहीं
मेरे गुरु जी
रोते किसी को भी,
देख सकते ही नहीं ।।अर्घ्यं।।
(९)
चलो चढ़ा आते जल स्वर्ण घड़े
घट गंध भरे
धाँ शालि निरे
गुल नन्द खिले
नैवेद्य नये
घृत दीप जगे
दश गंध घड़े
फल स्वर्ग फरे
चलो चढ़ा आते सब दरब मिले
अपनाने,
जिस किसी को भी अपनाने,
बाँहें फैलाकर खड़े
श्री गुरु विद्या सागर जी दयालु बड़े
‘रे ! बहना…ओ ! भाई
ऐसी अलख जगाई
श्री गुरु विद्या सागर जी ने
ऐसी अलख जगाई
पीछे-पीछे,
सारी दुनिया, भागी-भागी आई ।।अर्घ्यं।।
(१०)
ले हाथों में जल कलश
मलय-रस
‘अछत’ जश
दल-सहस
छहों-रस
गत-तमस्
गंध-दश
फल सरस
ले हाथों में दरब वस
क्यूँ न झुक झूमूँ, मैं हरष-हरष
दया पन्थ का, डंका बाज रहा
दरद-मन्द का
कृपा वन्त का
सुत श्रीमन्त का, डंका बाज रहा
स्वर्ग अन्त तक
दिग्-दिगन्त तक
गाज रहा
दया पन्थ का, डंका बाज रहा ।।अर्घ्यं।।
(११)
न यूँ ही चढ़ा रहा,
मैं गंगा-जल
गंध अमल
धान धवल
पुष्प कँवल
चरु श्रृंखल
ज्योत अचल
घट परिमल
परात फल
द्रव्य सकल
मुझे तुमने अपना
मेरा भव-मानव किया सफल
चलते-फिरते ग्रन्थ तुम
निर्ग्रन्थ तुम
जिनमें गुरु कुन्द-कुन्द झलके
वो सन्त तुम
कल के अरिहन्त तुम ।।अर्घ्यं।।
(१२)
आओ आओ चढ़ायें हम
जल कलश स्वर्णिम
माथ मलय कुमकुम
धाँ न अर भुवि खम्
वन नन्दन कुसुम
चरु चारु मधुरिम
दिया बात अगम
अन सुगन्ध सुरम
फल नन्द वन द्रुम
दरब सरब, न कम
दृग्-नम
विद्या-सागर
सन्त बड़े अलबेले हैं
सदलगा की माटी में खेले हैं ।।अर्घ्यं।।
(१३)
कंचन गागर
सुदूर सागर
गंध गुणाकर
गिर मलयागर
कान्त सुधाकर
धाँ खलिहां अर
सरोज जो वर
मान-सरोवर
नेवज घी गुड़
व्रज अलकापुर
ज्योत जगाकर
घी गैय्या गिर
सुगंध आगर
वन गंधा ‘तर’
फल मनवाहर
दिव बागातर
जल, फल पातर
सुर सौदागर
जाकर लाकर
भेंटूँ समेत श्रद्धा
सुनते हैं, आकर देवों ने पूजा
सन्त न विद्या सागर सा दूजा
सन्मत हंसा
पूरण मंशा
केत अहिंसा
सन्त न दूजा विद्या सागर सा ।।अर्घ्यं।।
(१४)
साथ श्रद्धा सुमन
जल गगरी कंचन
मण गगरी चन्दन
धाँ गठरी रतनन
पुष्प लरी उपवन
चरु विरली छप्पन
अन लहरी लौं धन !
धूप निरी नन्दन
द्रव सबरी सुरगन
भेंटूँ नैन नम
जय विद्या-सागरम्
तेरे थे, तेरे हैं, तेरे ही रहेंगें हम
उम्र भर
जन्म हर
कहते थे, कहते हैं, कहते ही रहेंगें हम
जय विद्या-सागरम् ।।अर्घ्यं।।
(१५)
आओ चढ़ाते हैं दृग्-जल
गंध नवल
धाँ पोटल
पुष्प कँवल
गरि नरियल
रोशन पल
घट परिमल
नव श्रीफल
आओ चढ़ाते है जल फल
करने भव-मानव सफल
दस्तक दे करके, आता है यम नहीं
छींटे भी, केशरिया रंग के, कम नहीं
सत्संग के,
पल दो पल भी
कम नहीं ।।अर्घ्यं।।
(१६)
श्री गुरु चरण शरण आओ
आओ जल गगरी लाओ
चन्दन मलय-गिरी लाओ
अक्षत धाँ विरली लाओ
नन्दन पुष्प लरी लाओ
चरु घृत अठ-पहरी लाओ
माला दीपक घी लाओ
अर चन्दन चूरी लाओ
ऋत ऋत फल मिसरी लाओ
जल-फल द्रव शबरी लाओ
सुनते हैं बन चालें बिगड़े काम
करते ही गुरु विद्या सिन्ध प्रणाम
दरद-मन्द हैं
दया-वन्त हैं
शिरोमण सन्त हैं
जिनकी भींगी सुमरण से हर शाम
आचार्य श्री विद्या सिन्ध प्रणाम
लेखनी गुरु कुन्द-कुन्द दूसरे नाम
आचार्य श्री विद्या सिन्ध प्रणाम ।।अर्घ्यं।।
(१७)
धोने काले-काले मन
आओ लाओ जल कंचन
घट चन्दन
अक्षत कण
नन्द सुमन
घृत व्यंजन
दीप रतन
सुगंध अन
फल नन्दन
द्रव सुरगन
भेंटें गुरु चरणन सादर
पहुँचा के अपनी लहर
विद्या सागर ने घर घर
पहुँचा के अपनी लहर
निहाल कर दिया
कमाल कर दिया ।।अर्घ्यं।।
(१८)
आना गुरु चरणों में रोजाना
रोज भाँति जल मण-गगरी लाना
चन्दन गगरी लाना
अक्षत विरली लाना
दिव पुष्प लरी लाना
व्यंजन मिसरी लाना
लौं अबुझ निरी लाना
चन्दन चूरी लाना
फल स्वर्गपुरी लाना
दिव द्रव शबरी लाना
और चढ़ाना, बन के दीवाना
आना गुरु चरणों में रोजाना
गुरु भक्ति धारा में वहना है
जैसे राखें वैसे रहना है
जय विद्या, जय विद्या कहना है
गुरु भक्ति धारा में वहना है ।।अर्घ्यं।।
(१९)
रोज की तरह मैं आज भी आया
कलश जल से भर के लाया
मलय गिर से चन्दन लाया
अछत धाँ शाल थाल लाया
सहस-दल कँवल नवल लाया
गाय ‘गिर घृत’ व्यंजन लाया
अबुझ मण खचित दीप लाया
धूप दश गंध नन्द लाया
थाल फल वन नन्दन लाया
गंध, जल, गुल, तण्डुल लाया
और लाया भींगे-दृग् साथ
सहज लग चला हमारे हाथ
श्री गुरु आशीर्वाद
बाकी न और मुराद
थी यही, एक फरियाद
सहज लग चला हमारे हाथ
जो श्री गुरु आशीर्वाद ।।अर्घ्यं।।
(२०)
जल गगरी लाया
गन्ध निरी लाया
धाँ विरली लाया
पुष्प लरी लाया
चरु मिसरी लाया
दीवा घी लाया
दिव सुर’भी’ लाया
फल गठरी लाया
द्रव सबरी लाया
दुनिया धूप खरी
गुरु-कृपा घनी छाया
बस सुनी चला आया
लिये भींगे नयन
साथ श्रद्धा सुमन
सिन्ध विद्या नमन
सिन्ध विद्या नमन ।।अर्घ्यं।।
(२१)
लाये जल गागर
सपना शिव-नागर
लाये गंध मलय
सपना सदय हृदय
लाये धाँ शालिक
सपना अपना इक
लाये दिव्य कुसुम
सपना विश्व कुटुम
लाये घृत व्यंजन
सपना मद भंजन
लाये दीवा घी
सपना दीवाली
लाये धूप अगर
सपना नूप डगर
लाये प्राकृत फल
सपना जागृति पल
लाये गुल तण्डुल
सपना तुम गुरुकुल
अपने रँग में रँगा लो
रंग केशरिया लगा दो
अपने रँग में रँगा लो
गौरवम् सदलगा ओ ।।अर्घ्यं।।
(२२)
मैं लाया हूँ जल गंगा
घट गंधा
अक्षत धाँ
निशि-गंधा
घृत पकवाँ
घृत दीवा
दश-गंधा
फल नन्दा
मैं लाया हूँ जल गंधा
जगा के मन में, सच्ची श्रद्धा
जयतु जय जय, जय विद्या
तेरी किरपा
यूँ ही बरसती रहे उम्र भर
जन्म हर
तेरी किरपा
अय ! मेरे गुरु सा ।।अर्घ्यं।।
(२३)
आ मनुआ
‘रे आ मनुआ
गुरु चरणों में हम
चढ़ाते हैं जल गंगा दृग्-नम
घट गंधा स्वर्णिम
शालिक धाँ धवलिम
वन नन्दा कुसुमम्
घृत पकवाँ मधुरिम
ज्योत जगा अरुणिम
धूप प्रभा कुमकुम
फल नन्दा दिव द्रुम
चढ़ाते हैं छव चन्दा द्रव्यम्
गुरु पूजन करने से
इक खुशी अलग ही मिलती है
मुरझाई मन कली खिलती है
आ मनुआ
‘रे आ मनुआ
गुरु जी की, हम मिलके,
करते हैं पूजन
सुनते हैं, प्रभु जी आ करके,
देते हैं दर्शन ।।अर्घ्यं।।
(२४)
अब तक चढ़ाया
चढ़ाऊँगा आगे भी गंगा जल
सगंध जल
धाँ उज्ज्वल
धवल कँवल
चरु अरु थल
लौं अविचल
गंध नवल
मिसरी फल
द्रव्य सकल
‘जि गुरु जी,
आगे भी, मैं चढ़ाऊँगा द्रव्य सकल
दिखने लगी मुझे जो अपनी मंजिल
मुझे सब कुछ मिल गया है
“मत डर
ये डर
तुझे पायेगा छू ना
मैं हूँ ना”
ऐसा गुरु जी ने जबसे कहा है
मुझे सब कुछ मिल गया है ।।अर्घ्यं।।
(२५)
भेंट जल गंग घट
हेत जल जन्म तट
भेंट चन्दन कलश
हेत सम्यक्-दरश
भेंट अक्षत सुरम
हेतु अख-जित जनम
भेंट जल-जात अन
हेत नव-जात मन
भेंट चरु चारु घृत
हेत पुरु सा चरित
भेंट दीपक रतन
हेत अनबुझ लगन
भेंट घट धूप दश
हेत हट डूब जश
भेंट फल नन्द वन
हेत आनंद वन
भेंट वस द्रव्य सब
हेत जश भव्य भव
गुरु विद्या सागरम्
वन्दनम्, वन्दनम्
मंगलम्, मंगलम्
गुरुवरम्, मंगलम्
वन्दनम्, वन्दनम्
गुरुवरम्, वन्दनम् ।।अर्घ्यं।।
(२६)
सिन्ध क्षीर वाली
लिये नीर झारी
लिये मलय वाला
घट चन्दन न्यारा
अछत धान शाली
लिये रजत थाली
फूटे सुगंध अन
लिये पुष्प नन्दन
चरु घृत अठपहरी
लिये अमृत मिसरी
विहरे तम काला
लिये दीप माला
इह न और वसुधा
लिये धूप दश-धा
वन नन्दन क्पारी
लिये फल पिटारी
दिव्य दिव्य छव ‘री
लिये द्रव्य सबरी
जब से, ‘कि ऐसा सुना
तुम भक्तों की सुनते हो
अपना भक्तों को चुनते हो
जब से, ‘कि ऐसा सुना
मैंने भी तुम्हें चुना ।।अर्घ्यं।।
(२७)
मैं लाया जल गागर
बनने गुण रत्नाकर
लाया चन्दन मलयज
पाने तुम चरणन रज
लाया अक्षत दाने
पदवी शाश्वत पाने
लाया वन नंदन गुल
पाने विद्या गुरुकुल
लाया व्यंजन नाना
हित गत अंजन बाना
मैं लाया दीप रतन
आने समीप सुमरण
लाया सुगंध सोने
सम्यक्त्व बीज बोने
मैं लाया फल नन्दन
विहँसाने भव बंधन
मैं लाया अरघ अलग
रह सकने सहज सजग
अय ! सदन सद्-गुण
लो भक्तों की पुकार सुन
जोड़ भव-भव सातिशय पुन
अय ! सदन सद्-गुण
लो भक्तों की पुकार सुन ।।अर्घ्यं।।
(२८)
क्यूँ न भेंटूँ, भेंटूँगा मैं गंगा-जल
गंध सजल
धान धवल
नवल कँवल
चरु चावल
दीप अचल
गंध सकल
मधुरिम फल
क्यूँ न भेंटूँ, भेंटूँगा मैं द्रव्य अखिल
दिये कीमती मेरे गुरु ने,
मुझको अपने पल
अब क्या ? अब तो,
सुख-साता दिन रात है
मेरा माथा करे गगन से बात है
अब क्या ? अब तो,
सुख-साता दिन रात है
मेरे सर पर, मेरे गुरु का हाथ है ।।अर्घ्यं।।

*जयमाला*
उसने गुरु के चरणों में
प्रकटाया ज्ञान ‘दिया’ ।
जिसने श्री गुरु के हाथों में,
शास्त्र प्रदान किया ।।

शास्त्र-दान ना ऐसा वैसा ।
लगे न आगे रुपया-पैसा ।।
कुन्द-कुन्द भगवन्त बन चला,
एक गुपाल, नाम कोण्ड़ेशा ।।
शास्त्र दान है, अपने जैसा ।

शास्त्र-दान है स्वयं सरीखा ।
माना इसे पाँव-हाथी का ।।
दान-शास्त्र सब दान समाये,
कहना वेद पुरान ऋषी का ।।
शास्त्र-दान सा और न दीखा ।

देखो गवा न देना मौका ।
शास्त्र-दान है सबसे चोखा ।।
हाथ दीजिये, हाथ लीजिये,
प्रतिफल सम्यक् ज्ञान अनोखा ।।
दिया कभी न इसने धोखा ।
जिसने श्री गुरु के हाथों में,
शास्त्र प्रदान किया ।
उसने गुरु के चरणों में
प्रकटाया ज्ञान ‘दिया’ ।।
हाई-को ?
लो लगा मुझे भी पीछे,
सुना बड़े दुखड़े नीचे
।।जयमाला पूर्णार्घं।।

‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।

अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।

धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।

अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।

बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा–
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)

*आरती*

आ-रती आओ उतारें ।
पादुका गुरु शीष धारें ।।

गुरु सुरग, गुरु चार तीरथ ।
मोक्ष गुरु, गुरु शुभ-मुहूरत ।।
फिर न भव मानव संवारे ।
आ-रती आओ उतारें ।
पादुका गुरु शीष धारें ।।१।।

गुरु हि ब्रह्मा, गुरु हि विष्णू ।
रुद्र गुरु, गुरु बुद्ध जिष्णू ।।
सुध धरें अब, कल विसारें ।
आ-रती आओ उतारें ।
पादुका गुरु शीष धारें ।।२।।

जल, पवन, भू, गगन, अगनी ।
मां, पिता, गुरु, भ्रात, भगनी ।।
कष्ट, दुख, आरत संहारे ।
आ-रती आओ उतारें ।
पादुका गुरु शीष धारें ।।३।।

सोम, मंगल, बुध, बृहस्पत ।
शनैश्चर, गुरु, शुक्र, दिनपत
समय हित सु-मरण निकारें ।
आ-रती आओ उतारें ।
पादुका गुरु शीष धारें ।।४।।

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