वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*पूजन*
हाई-को ?
दृग् रस्ते,
दिल निवसते, जा रहा है जो,
हो तुम वो
जिया मेरा
क्या भक्त मीरा
क्या भक्त शबरी, हर वक्त
सब ही तो कहते हैं ।
दिल की धड़कन में रहते हैं ।
साँस सरकन में रहते हैं ।
भक्तों के मन में रहते है ।
भगवन् !
मेरा मन
क्या चोर अञ्जन
क्या बाला चन्दन,
जन जन तो कहते हैं ।
सपनों में रहते हैं ।
खास अपनों में रहते हैं ।
भक्त-नयनों में रहते हैं ।
भगवन्,
भक्तों के वश में रहते हैं ।।स्थापना।।
जो तुमने पकड़ी
कुछ हटके हो गई वो अंगुली
फूली नहीं समाती है ।
फूलों सा मुस्कुराती है ।।
वो दूजी ही जादुई छड़ी
कुछ हटके, हो गई वो अंगुली
हुई मीरा की साथी है ।
प्रीत के गीत गुनगुनाती है ।
अमोल शुभ शगुन घड़ी
खुश इतनी ‘कि रोये जाती है ।
भीतर-भीतर ही खोये जाती है ।
हँसती हँसाती फुल झड़ी ।।जलं।।
छा गये, निष्पाप मग
पा गये जो आप-पग
आ गये लो आप घर
पा गये जो आप ‘कर’
जाँ गये खो श्राप-मृग
पा गये जो आप दृग्
भा गये जो आपको
पा गये जो आपको
दौलते दो जहान मिल गई
मेरी तो दुनिया ही बदल गई ।।चन्दनं।।
तू मुझसे जुदा हो सकता नहीं हैं ।
क्योंकि मेरे दिल से निकलने का,
कोई रस्ता नहीं है ।
तू दिल गहरे
समाया है ऐसे
है समाया, मेरे दिल में तू ऐसे
गुल में समाई है खुशबू जैसे
मेरी दिले-धड़कन तेरा नाम जपती है
न सिर्फ सुबहो-शाम,
आठों याम जपती है ।
ए मेरे गुरु सा !
मेरी पलक सिर्फ तेरे लिये झपती है
मेरी पलक सिर्फ तेरे लिये खुलती है
न मेरा कोई और तेरे सिवा ।।अक्षतं।।
मिल जाता सुकूँ
मेरे नयन
तेरे चरण
लेते जो छू
दिल पाता खुशबू
भले ही पल पलक
भाँति बिजली चमक
‘के मुस्कुराये तू,
भले ही पल पलक
भाँति बदली झलक
‘के नजर उठाये तू,
भले ही पल पलक
भाँति बुद-बुद उदक
‘के अमृत झिराये तू
मिल जाता सुकूँ ।।पुष्पं।।
‘री पवन ! सुनते तू दौड़-दौड़ जाती है ।
ए ! बता ले जायेगी क्या ?
नाम गुरुदेव के इक पाती है ।।
तू दूर-दूर जाती है ।
क्या लिक्खा जो पूँछती इस पाती में ।
तो आ, पास आ, पढ़ सुनाता तुम्हें ।।
बहुत आती है याद तुम्हारी ।
दृग् भिजा जाती है ।
मृग सा भ्रमाती है, याद तुम्हारी ।।
सुध-बुध गवाती है ।
अद्भुत सी थाती है, याद तुम्हारी ।।
छाया सी साथी है ।
मँगाती ‘पाती’ है, याद तुम्हारी ।।नैवेद्यं।।
लगा ली लगन
मैंने लगा ली लगन
गुरुदेव श्री चरण
घटा छाई, सुन धरा-क्रन्दन |
वीर को पा गई जब चन्दन ।।
फिर मैं, न क्यूँ पाऊँगा शरण ।।
पा गई मीरा साथ किशन |
पा गई शबरी भ्रात लखन ।।
फिर मैं, न क्यूँ पाऊँगा शरण ।।
माटी गगरिया है गई बन ।
लाठी मुरलिया है गई बन ।
फिर मैं, न क्यूँ पाऊँगा शरण ।।दीपं।।
मीरा प्रभु पाई ।
शबरी रघुराई ॥
दृग् दूर, कण्ठ भी,
रह-रह भर आई ।
आ दरश दिखा दो ।
दृग् तरश गये दो ॥
चन्दन जिन-पाई ।
गौतम जिन-राई ॥
दृग् दूर कण्ठ भी,
रह-रह भर आई ।
पंकज रवि पाई ।
कागज कवि स्याही ।।
दृग् दूर कण्ठ भी,
रह-रह भर आई ।
दृग् तरश गये दो ।।धूपं।।
करता ना तेरा-मेरा ।
बढ़ता सा हाथ-तेरा ।।
पा यहीं जहां-दो गये
जाने कहाँ खो गये
देखते ही बस, हम तेरे हो गये
भले-दिल समाँ-ए-मुष्टि |
पै अखिल समाएँ-सृष्टि ।।
अश्के खुशी दृग् भिंजो गये ।
जाने कहाँ खो गये
देखते ही बस, हम तेरे हो गये ।।फलं।।
लम्बी भले डगर,
लगता नहीं है डर,
चलने में रात में,
हों गुरुजी जो साथ में,
आ तो गये हैं ‘पर’,
न उड़ पा रहा मगर,
है ना माँ चिड़िया,
क्यूँ कर बच्चे को करना फिकर
भले मुश्किलों से भरा सफर
तेज हवा पश्चिमी,
थर-थर काँपे आसमाँ जमीं,
है ना आस-पास बागवाँ
क्यूँ कर पौधे को करना फिकर
ढाये तूफाँ कहर,
जा छुये आसमाँ लहर
है ना छैय्या खिवैय्या
क्यूँ कर नैय्या को करना फिकर ।।अर्घ्यं।।
(१)
हाई-को ?
हूँ परेशाँ, दो सुलझा-उलझन ।
मेरे भगवन् ।
लिये जल की झारी ।
ओ ! बदले, ‘कि दुनिया म्हारी ।
‘कि उड़ सके, पतंग म्हारी ।
लिये चन्दन झारी ।
लिये तण्डुल थाली ।
जड़े तारे, ‘कि चूनर म्हारी ।
हो मुनि-सी, ‘कि दृष्टि अविकारी ।
लिये पुष्प पिटारी ।
लिये पकवा थाली ।
ओ ! जाये खो, ‘कि खुद क्षुध् म्हारी ।
कि हो गिनती, ‘धी-हंस’ म्हारी ।
लिये घृत दीपाली ।
लिये धूप निराली ।
आ पड़े चाँद, ‘कि झोली म्हारी ।
‘कि हो, नगरी द्यु-शिव म्हारी ।
लिये श्री फल थाली ।
लिये है द्रव्य सारी ।
‘कि अखीर, हो समाधि म्हारी ।।अर्घ्यं।।
(२)
हाई-को ?
घना अंधेरा ।
न और कोई मेरा, सहारा तेरा ।
ओ ! अपना लो ।
दृग् जल लाये ।
सच्चे मन से आये ।
गद-गद गिर् आये ।
चन्दन, अक्षत लाये ।
भींजे नयना आये ।
भर श्रद्धा से आये ।
पुष्प व व्यंजन लाये ।
भक्ति से भर आये ।
झुक झूमते आये ।
दीपक व धूप लाये ।
लिये उम्मीदें आये ।
निजी जान के आये ।
श्रीफल, अरघ लाये ।
बड़ी दूर से आये ।।अर्घ्यं।।
(३)
हाई-को ?
सिवा थारे ।
न दूँगा दस्तक मैं, जाके और द्वारे ।
जल, चन्दन
अक्षत, सुमन
चरु, दीप रतन
धूप, फल चमन
अष्ट द्रव्य हमार, कीजे स्वीकार ।
हृदय गद-गद, नम नयन
रख विश्वास, प्रफुल्ल मन
ले करताल, तोतले वचन
रोमाञ्च साथ श्रृद्धा सुमन
लिये दृग् धार, आये द्वार ।।अर्घं ।।
(४)
हाई-को ?
आ गुरु जी को मनाते ।
मुहँ मांगा देते, बताते ।
स्वीकारो ढ़ोक फरसी ।
पा न पाया, जल कलशी ।
पा न पाया, रस चन्दन ।
स्वीकारो अश्रु नयन ।
स्वीकारो विनत भाल ।
पा न पाया, अक्षत थाल ।
पा न पाया, थाल सुमन ।
स्वीकारो बाल सा मन ।
स्वीकारो माँ सिखायें गान ।
पा न पाया, पकवान ।
पा न पाया, दीवाली ।
स्वीकारो जै-कार ताली ।
स्वीकारो भक्ति अमन्द ।
पा न पाया, घट सुगन्ध ।
पा न पाया, फल परात ।
स्वीकारो जुड़े दो हाथ ।
स्वीकारो श्रद्धा हमारी ।
पा न पाया, अर्घ पिटारी ।।अर्घ्यं।।
(५)
हाई-को ?
जिसे देखते ही, गम हों गुम
हो वो सिर्फ तुम ।
सगरी, सोन गगरी भरूँ ।
जल ‘चन्दन’ अर्पण करूँ ।
‘अक्षत’ अर्पण करूँ ।
चुन साबुत थाली भरूँ ।
‘आन-बागान’ पिटारी भरूँ ।
‘पुष्प’ अर्पण करूँ ।
‘चरु’ अर्पण करूँ ।
थाली पकवाँ गो-घृत भरूँ ।
अठ-पहरी गो घृत भरूँ ।
‘दीप’ अर्पण करूँ ।
‘धूप’ अर्पण करूँ ।
लबालब द्यु-रु घट भरूँ ।
द्यु सुनहरी पिटारी भरूँ ।
‘फल’ अर्पण करूँ ।
अर्घ अर्पण करूँ ।
ढोल मंजीरा संग घूँघरू ।।अर्घ्यं।।
(६)
हाई-को ?
‘भेंटी फूलों को मुस्कान ।
कर मेरा भी दो कल्याण ।
भेंटूँ जल,
‘कि मेंट सकूँ वानरी गहल ।
‘कि मगरमच्छ सा मेंटूँ रुदन ।
भेंटूँ चन्दन ।
भेंटूँ धाँ ।
चालूँ ‘कि गिरगिट सा न गर्दन उठा ।
कोल्हू-बैल सा दिन करूँ न शून ।
भेंटूँ प्रसून ।
भेंटूँ नेवज ।
स्नान फिर मैं, डालूँ न सिर रज ।
घर न कर जाये फिर धी-बक ।
भेंटूँ दीपक ।
भेंटूँ सुगंध,
देवानां-प्रिय न रहूँ धी-मन्द ।
मैं बाँस बनूँ, वंशी न रहूँ अकेला ।
भेंटूँ भेला ।
भेंटूँ अरघ ।
चौकन्ना रहूँ पल-पल सजग ।।अर्घ्यं।।
(७)
हाई-को ?
सुना, भागती आती जीत,
आ जोड़ते गुरु से प्रीत ।
लाये जल,
‘कि ए ! ऋषीश
खो जाये फेर ‘छः तीस’ ।
‘जी’ जाग ले निशि दीस ।
लाये गंध ।
लाये सुधाँ ।
खो जाये टेव कपीश ।
खो जाये काम खबीस ।
लाये पुष्प ।
लाये चरु ।
खो जाये नाहक खीस ।
पा पाये रबर शीश ।
लाये दीप ।
लाये धूप ।
खो जाये मन की टीस ।
पा जायें पंक्ति-चौबीस ।
लाये फल ।
लाये अर्घ्य ।
‘कि ए ! ऋषीश
पा पायें आप आशीष ।।अर्घ्यं।।
(८)
हाई-को ?
जी ऐसे-वैसे-जैसे भी,
तेरे ही है हम गुरु जी ।
लो स्वीकार ये जल ।
आ रहे बड़ी दूर से ‘चल ।
‘कि रास्ते की थके थकन ।
लो स्वीकार ये चन्दन ।
लो स्वीकार ये धान-शाली ।
‘कि मन सके दीवाली ।
हुई कोई, तो दो भूला भूल ।
लो स्वीकार ये फूल ।
लो स्वीकार ये पकवान ।
‘जि कर ‘के अहसान ।
तेरा ही, मेरा है इसमें क्या ।
लो स्वीकार ये ‘दिया’ ।
लो स्वीकार ये धूप ।
‘कि लागे हाथ ‘खोया’ चिद्रूप ।
साथ आँख सजल ।
लो स्वीकार ये परात फल ।
लो स्वीकार ये अर्घ ।
दो लगा हाथ, पद अनर्घ ।।अर्घ्यं।।
(९)
हाई-को ?
कृपा-दृष्टि, पा जाँऊ जो थारी ।
जाऊँ तो बारी-बारी ।
स्वीकारे बेर शबरी ।
दृग्-जल झड़ी, गंध गगरी ।
स्वीकार लो, शाली-धाँ निरी ।
पुष्प टोकरी, चरु दूसरी ।
स्वीकार लो, दीप-आवली ।
धूप विरली, फल-मिसरी ।
स्वीकार लो, द्रव्य सबरी ।।अर्घ्यं।।
(१०)
हाई-को ?
‘तुम्हें, बखूब आई’ ।
करना रिश्तों की तुरपाई ।
मैंने कुछ अपूर्व पाया ।
जल, चन्दन
अक्षत, सुमन
चरु, दीप रतन
धूप, फल चमन
अष्ट द्रव्य शगुन, तुम चरण चढ़ाया ।
सुख-अपूर्व पाया ।
मैंने स्वप्न अपूर्व पाया ।
‘दर्श’-अपूर्व पाया ।
मैंने पता-अपूर्व पाया ।
पुण्य अपूर्व पाया ।
मैंने वर अपूर्व पाया ।
पथ अपूर्व पाया ।
मैंने जुग अपूर्व पाया ।।अर्घ्यं।।
(११)
हाई-को ?
जोड़ना तुझ से निकट का रिश्ता ।
‘दे-बता’ रस्ता ।
लगा अपने पीछे लो ।
मैं आया ‘जि ओ ।
जल, चन्दन लिये ।
मुझे खींचे ले चलो ।
तेरा अपना ही ले चलो ।
धान धन ! पुष्प लिये ।
मुझे धकाते ले चलो ।
पाँव-पाँव ही ले चलो ।
लिये चरु चारु दिये ।
अपने साथ ले चलो ।
बना के शिष्य, ले चलो ।
धूप, श्री फल लिये ।
जा रहे वहाँ, ले चलो ।
जहाँ जा रहे, ले चलो ।
अर्घ लिये मैं आया ‘जि ओ ।।अर्घ्यं।।
(१२)
हाई-को ?
सिर्फेक दिली-तमन्ना ।
गुरु जी लो हमें अपना ।।
आये शरणा
लाये जल,
पाने आपकी करुणा ।
पाने आपकी-शरणा ।
लाये गंध ।
लाये सुधा ।
पाने आप सा सपना ।
पाने आप से नयना ।
लाये पुष्प ।
लाये चरु ।
पाने आप सी रसना ।
पाने आप से वयना ।
लाये दीप ।
लाये धूप ।
पाने आप से करणा ।
पाने आप आचरणा ।
लाये फल ।
लाये अर्घ ।
पाने आपकी तरणा ।
आये शरणा ।।अर्घ्यं।।
(१३)
हाई-को ?
उलझा जिया
सुलझा दिया
गुरुदेव शुक्रिया ।
अपना दृग् जल,
मेरा पूरा सपना किया ।
घिसा चन्दन ।
थाली कहाँ शाली, धाँ खाली ।
भूल-नन्दन ‘फूल’-वन ।
छोड़ अमृत, ‘चरु-घृत’ ।
छोड़ रतन ‘दीप’ मृण ।
अदृश दश गंध ‘धूप’ ।
छोड़ श्रीफल जोड़ हाथ ।
‘छोड़ अनर्घ ‘अर्घ्य-‘मोर’ ।
अपना लिया ।
शुक्रिया ।।अर्घ्यं।।
(१४)
हाई-को ?
बच्चे के मन जैसे सच्चे ।
है आप बहुत अच्छे ।
चढ़ाऊँ नीर ।
मैं न मिटाने लगूँ और लकीर ।
राख के लिये न जला चन्दन दूँ ।
चन्दन भेंटूँ ।
चढ़ाऊँ धाँ ।
केली फरती देख, उखाड़ूँ आम ना ।
धागे के लिये, कण्ठी न तोड़ बैठूँ ।
मैं पुष्प भेंटूँ ।
भेंटूँ नेवज ।
न सुनूँ कभी, ‘लम्बी जुबाँ दो गज’ ।
पाल बाँध खे लूँ अपनी पोत ।
मैं प्रजालूँ ज्योत ।
मैं खेऊँ धूप ।
न सिर चढ़ के बोले पैसा-रूप ।
खो सकूँ साँझ-साँझ श्वानी-गहल ।
भेंटूँ श्री फल ।
भेंटूँ अरघ ।
भेड़ों से चल सकूँ, कुछ अलग ।।अर्घ्यं।।
(१५)
हाई-को ?
भरी रोशनी तारों में ।
खड़े हम भी, कतारों में ।
लेके दृग् नम सहमें आये ।
लेके नगमे भक्ति के आये ।
लेके मन में सपने आये ।
लेकर ‘जी’ में अरमाँ आये ।
लेके रग में उमंगे आये ।
ले पुलकित हृदय आये ।
ले करताल साथ में आये ।
लेके संग में दृग् नम आये ।
लेके दिल में उम्मीदें आये ।
गुरुजी ! अर्घ्य लाये ।।अर्घ्यं।।
(१६)
हाई-को ?
गिनती उसी से हो शुरु ।
जिसकी तरफी गुरु ।
कं कलशियाँ ।
चढ़ाने उठाते ही, गन्ध झारियाँ
भरी झोलियाँ ।
धाँ पिटारियाँ ।
चढ़ाने उठाते ही, पुष्प कलियाँ ।
भरी झोलियाँ ।
चरु थरियाँ ।
चढ़ाने उठाते ही, घी दीपालियाँ ।
भरी झोलियाँ ।
धूप बढ़ियाँ ।
चढ़ाने उठाते ही, फल डलियाँ ।
भरी झोलियाँ ।
चढ़ाने उठाते ही, अर्घ थालियाँ ।।अर्घ्यं।।
(१७)
हाई-को ?
सुना ! माटी दी बना घड़ा ।
कतार में, मैं भी खड़ा ।
ढोला दृग् जल भर-भर ।
उतरा तब जहर ।
भेंटी गन्ध ।
न चन्दन यूँ ही नेक एक सुगंध ।
वीर तब आँगन आये ।
पीले चावल चढ़ाये ।
श्रद्धा सुमन चढ़ाये ।
ताले तब जा खुल पाये ।
निरञ्जन तब अञ्जन ।
हैं भेंटे स्वर-व्यञ्जन ।
बाली भीतर ज्योती ।
सीप पा सकी तब जा मोती ।
न सोना सुगंध आई ।
गन्धोदक ने जाग पाई ।
पा आप शरणा ।
ना ‘रियल’ श्री फल भेला बना ।
न यूँ ही पाये नाम ‘नाक’ सुवर्ग ।
चढ़ाये अर्घ्य ।।अर्घ्यं।।
हाईकू
(१८)
हाई-को ?
भाग-कपास, जागा
धागा, हाथ क्या गुरु जी लागा
प्रणाम ।
आठों याम ।
अय ! मेरे राम ।
कीजिए समाँ आप ।
पाप, करे परेशां राग ।
बेदाग, कीजिए सद्-गुण कोष ।
रोष, करे परेशां काम ।
मुकाम, थमा दीजिए सुधा ।
क्षुधा, करे परेशां गुमाँ
छुवा आसमाँ, दीजिए बोध
क्रोध, करे परेशां ठगी
बना जिन्दगी, दीजिए मोख
करे परेशां शोक ।।अर्घ्यं।।
(१९)
हाई-को ?
पा गये पंछी उड़ान ।
खड़े हम भी, द्वारे आन ।
यूँ ही तुमसे जुड़ा रहूँ ।
ये जल भेंटूँ, लिये चाह ये, चन्दन भेंटूँ ।
साँसों पे तुम्हें सुमरूँ ।
तेरे भक्तों में आ सकूँ ।
ये शाली धाँ भेंटूँ, लिये चाह ये, पुष्प भेंटूँ ।
आप सा ही ‘जी’ जीत सकूँ ।
हाथों में तेरे कुछ रखूँ ।
ये चरु भेंटूँ, लिये चाह ये, दीपक भेंटूँ ।
मूँदूँ, दृग् खोलूँ, तुम्हें देखूँ ।
तेरी भक्ति में डूबा रहूँ ।
ये धूप भेंटूँ, लिये चाह ये, फल भेंटूँ ।
मन की बात कह सकूँ ।
ताउम्र तेरी सेवा करूँ ।
लिये चाह ये, अर्घ्य भेंटूँ ।।अर्घ्यं।।
(२०)
हाई-को ?
सुना, पा गया मोती सीप ।
हूँ मैं भी खड़ा-समीप ।
मैं भेंटूँ उदक ।
रहे छाहरी सा साथ निन्दक ।
देख निन्दक न सिकोडूँ नाकँ-मुँ ।
गंध भेंटूँ, मैं भेंटूँ सुधाँ ।
निन्दक गीड़ दिखाता रहे सदा ।
‘कि बाँधूँ सदा निन्दक प्रशंसा पुल ।
भेंटूँ गुल, मैं चढ़ाऊँ चरु ।
मुझे किसी निन्दक से मिला दो प्रभु ।
निन्दक रहे आ के मेरे करीब ।
भेंटूँ दीव, मैं भेंटूँ घट-धूप ।
मुझसे निन्दक कभी न पाये रूठ ।
निन्दक मुझे न छोड़े कभी अकेला ।
चढ़ाऊँ भेला, अरघ भेंटूँ तुम्हें ।
हो जाऊं एक जान जिस्म दो
‘कि भगवन् मेरे ! कुछ करो,
निन्दक और मैं ।।अर्घ्यं।।
(२१)
हाई-को ?
दी तोते राम-रट ।
बना मेरा भी दो काम झट ।
लाज राखो भगवन् ।
कहर ढ़ाते, जन्म मरण ।
भौ-ताप हो, न अब सहन ।
छूटे न पिण्ड आवागमन ।
तृष्णा फिर के उठाती फन ।
देखे तरेर-दृग् क्षुध्-वेदन ।
गणना माटी माधव-मन ।
छिड़ा अनादि कर्मों से रण ।
मोक्ष फल जा लगा गगन ।
पद अर्घ्य टिके नयन ।
लाज राखो भगवन् ।।अर्घ्यं।।
(२२)
हाई-को ?
रहता जब लग रस्ता ।
श्री गुरु निभाते रिश्ता ।।
जल, गंध, फल चढ़ाने लाये ।
‘कि विध्वंस जाये,
आना-जाना
पाप-ताप
मद-गद
नाम-काम
भोग-रोग
तम-स्वयं
भव-दव
रति-गति
अघ-मग ‘कि विध्वंस जाये ।
जल, गंध, फल चढ़ाने लाये ।।अर्घ्यं।।
(२३)
हाई-को ?
जा ‘घर-घर सहाई ।
चन्द्र-भान से गुरुराई ।
मुझे सहारा तेरा ।
छीना विकथा ने, चैन मेरा ।
छीना कटुता ने, चैन मेरा ।
छीना अ’भि-मां ने, चैन मेरा ।
छीना पशुता ने, चैन मेरा ।
छीना गृद्धता ने, चैन मेरा ।
छीना अपध्याँ ने, चैन मेरा ।
छीना शठता ने, चैन मेरा ।
छीना विपदा ने, चैन मेरा ।
छीना जड़ता ने, चैन मेरा ।
मुझे सहारा तेरा ।।अर्घ्यं।।
(२४)
हाई-को ?
दिखा, तुझसे फीका ।
‘देखा चाँद’ न तुझ सरीखा ।
भव-भव दृग् जल भेंट फल ।
हंस बुद्धी ‘धी’ जल-भिन्न कमल ।
कुछ हटके ही ठण्डक दिल ।
मेरे कदम चूमती जो मंजिल ।
इन हाथों में ये जो दो सुकूने पल ।
न करे भव मानव जो क्षुधा विकल ।
उद्घाटित भीतर ज्ञान पटल ।
न देखती आंख तरेर फिकर कल ।
बाहर भीतर वैभव ये सकल ।
जो टूक दो ये अनन्त गहल ।
भव-भव दृग् जल भेंट फल ।।अर्घं।।
(२५)
हाई-को ?
मेरी थकान
छू-मन्तर, छू एक तेरी मुस्कान ।
आये समेत जल-फल,
ले भींगे नैन ।
पाने अमनो चैन ।
जागने दिन रैन ।
पाने द्यु-काम धेन ।
जेय दृग्-अहि श्येन ! ।
क्षुधा तरेरे-नैन ।
पाने सुर’भी’ वैन ।
जीतने कर्म-सैन ।
पाने पूनम रैन ।
बनने साँचे जैन ।
आये समेत जल-फल,
ले भींगे नैन ।।अर्घ्यं।।
(२६)
हाई-को ?
मिलें हमेशा ही श्री गुरु ।
पोंछते औरों के आँसू ।
हाथों को जोड़ ।
भेंटूँ मैं जल, साथ श्रद्धा बेछोर ।
भेंटूँ चन्दन, मलयज मैं घोर ।
भेंटूँ अक्षत, मैं साबुत परोर ।
भेंटूँ मैं पुष्प, चुन चुन बेजोड़ ।
भेंटूँ मैं घृत,-व्यञ्जन चित्त चोर ।
भेंटूँ मैं दीप, मैं बाती घृत बोर ।
भेंटूँ मैं धूप, हो के भाव विभोर ।
भेंटूँ श्रीफल, सकल न’ कि तोड़ ।
भेंटूँ मैं अर्घ, भिंजा अश्रु दृग्-कोर ।
हाथों को जोड़ ।।अर्घ्यं।।
(२७)
हाई-को ?
निहारो,
थारे बिना,
गुरु ‘जी’ सूना-सूना, पधारो !
अय ! ‘जित-अख’ ।
भेंटूँ उदक-सी जी, पाने ठण्डक ।
भेंटूँ चन्दन-सी ही, पाने दमक ।
भेंटूँ अक्षत-सी ही, पाने खनक ।
भेंटूँ सुमन-सी जी, पाने बनक ।
भेंटूँ व्यञ्जन-सी ही, पाने महक ।
भेंटूँ दीपक-सी ही, पाने चमक ।
भेंटूँ सुगन्ध-सी ही, पाने तनक ।
भेंटूँ ‘श्री’ फल सी ही, पाने बेशक,
भेंटूँ अरघ सी ही, पाने झलक । ।।अर्घ्यं।।
(२८)
हाई-को ?
भरे न मन, पा सपनों में ।
रख लो अपनों में ।
स्वीकार जल-फल ये गुरुदेव ।
कर लो सुखी सदैव ।
पार दो लगा खेव ।
पुण्य से भर दो जेब ।
मेंट दीजे कुटेव ।
दीजे सुलटा दैव ।
कीजे बिदा फरेब ।
मौका दीजिये सेव ।
थमा दो ‘दृग्’ कलेव ।
कर दो स’माँ’ रेव ।।अर्घ्यं।।
=जयमाला=
हाई-को ?
झीनी-झीनी सी, उड़ा के मैं गुलाल,
गाऊँ जै-माल
क्या करना होगा देवता !
पाने के लिये,
‘तुझे’ रिझाने के लिये
क्या करना होगा दे…बता ।।
कण-धूल-चरण
‘तिरे’ अमूल-वचन
पाने के लिये,
मुस्कान-अखर
‘तेरी’ एक नजर
पाने के लिये
आहार घर-पर
‘तेरा’ हाथ सर-पर
पाने के लिये
मोर पिछिका-पंख
‘तोर’ संग-सत्संग
पाने के लिये
क्या करना होगा दे…बता ।।
हाई-को ?
‘अपना’, कह के दे पुकार तू,
न और आरजू ।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।५।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
*आरती*
आरती छोटे बाबा की
मिटाती पीर सुनो साथी ।
भिंटाती तीर, चुनो साथी ।।
छोड़ के और काम बाकी ।
आरती छोटे बाबा की
अश्रु जल भर के आंखों में ।
दीप घृत लेके हाथों में ।
करो संध्या तीनों साथी ।
छोड़ के और काम बाकी ।।१।।
रोम पुलकन अनचीनी ले ।
भावना भींनी-भींनी ले ।।
विनाशे कष्ट, सुनो साथी ।
पंच परमेष्ट, चुनो साथी ।।
छोड़ के और काम बाकी ।
आरती छोटे बाबा की ।।
अश्रु जल भर के आंखों में ।
दीप घृत लेके हाथों में ।
करो संध्या तीनों साथी ।
छोड़ के और काम बाकी ।।२।।
सुपन जो देखे अनदेखे ।
सुमन दो श्रद्धा के लेके ।।
निरा-कुल थान, सुनो साथी ।
गुरू-कुल ज्ञान, चुनो साथी ।।
छोड़ के और काम बाकी ।
आरती छोटे बाबा की ।।
अश्रु जल भर के आंखों में ।
दीप घृत लेके हाथों में ।
करो संध्या तीनों साथी ।
छोड़ के और काम बाकी ।।३।।
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