वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
पूजन
=हाईकू=
दे आवाज,
‘जि रुँध चला गला,
आ भी जाओ भला
करना खूब बातें,
करूॅं क्या ? भर पै आतीं आंखें ।।
आते आते आ गये हो इतने पास
‘कि बन गये हो आती-जाती श्वास
सताये मुझे, अब इक यही डर
‘के इस अपने सपने से भी प्यारे रिश्ते को
सारे जग से न्यारे रिश्ते को
किसी की
‘जि गुरु जी
कहीं लग न जाये नज़र
दिन-दिन रात भर
सताये मुझे, अब इक यही डर
टप-टप टपकते रहते हैं,
मेरी आँखों से आँसू
‘के कहीं हो न जाये मुझसे जुदा तू
नींद मुझे आती नहीं,
जागूँ में रात सारी ।
उजयारी ही कब रहती है,
आती भी रात काली ।।
सताये मुझे, अब इक यही डर
उठाता रहता है सवालात
फिर फिर के ये मेरा मन ।
खिलाने या मुर्झाने सुमन
थी आई किसलिये किरण ।।
सताये मुझे, अब इक यही डर ।।स्थापना।।
जा ‘री पवन
ए ! जा ‘री पवन
गुरु जी चरण
छू आ ‘री पवन
कहना बहुत आती है, याद तुम्हारी |
नैना भिंजा जाती है, याद तुम्हारी ।।
आवें या देवें ‘पर’
उड़ तिरा ‘कि छूवें दर
इसके सिवा न फरियाद हमारी ।
कहना बहुत आती है, याद तुम्हारी ।
रैना जगा जाती है, याद तुम्हारी ।।
चैना चुरा जाती है याद तुम्हारी ।।
कहना बहुत आती है याद तुम्हारी ।।जलं।।
मुस्कान के साथ
तेरी और मेरी
पहली मुलाकात
आ करके उसकी याद
सनेह बरसात
कुछ न छुपा के, की मुझसे जो बात
आ करके उसकी याद
खूब आशीर्वाद
मेरे सर पर रखकर अपना हाथ
आ करके उसकी याद
कर जाती है
सीली-सीली सी
आँखें मेरी
नीली नीली-सी
आँखें मेरी
यादें तेरी
कर जाती हैं
सीली-सीली सी
आँखें मेरी
‘जि गुरु जी, यादें तेरी ।।चन्दनं।।
मेरी एक न चलती है
झड़ी आंसुओं की लगती है
पल जो तुम्हें
न देखता मैं
जान मेरी निकलती है
मेरी एक न चलती है
चाहता हूँ मैं तुम्हें इतना
चन्दा चकोरा जितना
मेघा मयूरा जितना
दीवा जितना-पतंगा
जितना चकोरा चन्दा
चाहता हूँ मैं तुम्हें उतना
है हम पतंग, तुम ड़ोरा
तुम कुसुम रंग-विरंग, हम भौंरा
पंख तुम, मैं तितली हूँ
तुम खुशबू, मैं कली हूँ
स्याही तुम, मैं कागज कोरा ।।अक्षतं।।
कहाँ आँखों से ओझल हो जाते हो
बुद-बुद जल भी मिटते नहीं
इतने जल्दी बादल भी विघटते नहीं
जी सकते हैं, चाँद बिना चकोर,
और जीते हैं
जी सकते हैं, बिना बादल मोर,
और जीते हैं
पर मैं जी सकता नहीं,
तुम बिना गुरुजी
देखो ना, ये मेरे नयन-कोर,
अभी भी तीते हैं
देखो ना, थम सी चली है,
दिल धड़कन मेरी
देखो ना, जम की चली है,
लोहु छनन-छन मेरी
देखो ना, नब्ज मेरी,
मिलने का ले रही नाम ना
देखो ना, आँख मेरी,
फिरने की, है करे कामना ।।पुष्पं।।
अपने अपनों में,
तुमने हमें,
ये ऐसे, कैसे रखा,
‘जि गुरु जी,
‘के एक भी न खत लिखा,
तुमने हमें,
हमनें तुम्हें हिचकिंयाँ दीं,
तुमनें हमें सिसकिंयाँ दीं,
अपने सपनों में
तुमने हमें,
ये ऐसे, कैसे रखा ।
‘जि गुरु जी,
‘के एक भी न खत लिखा,
तुमने हमें,
तुम लौट के न फिर आये,
तुम्हारी याद,
जो आये तो,
लौट के न फिर जाये,
हमनें तुम्हें दिलो-जाँ दिये
तुमने हमें दिये आँसू ये,
तुमने पलट के भी न देखा,
ये निगाहें मेरीं,
देखती रही तुम्हें टकटकी लगा ।।नैवेद्यं।।
न ऐसे वैसे ही
रोज के जैसे ही
मुस्कुरा कर
मुझे लेने भेजना अपनी नज़र
देखते ही मुझे
याद करते ही उसे
मेरी आँख भर आती है
न ऐसे वैसे ही
रोज के जैसे ही
आँखें मूँद कर
मुझे देने लगना, दुआएँ दिल खोलकर
देखते ही मुझे
याद करते ही उसे
मेरी आँख भर आती है
न ऐसे वैसे ही
रोज के जैसे ही
फेर हाथ सिर पर
कहना कैसे हो, मेरे टुकड़े जिगर
देखते ही मुझे
याद करते ही उसे
मेरी आँख भर आती है
दिन हो या रात
तुम्हारी याद रह रहकर आती है ।।दीपं।।
आती है, फिर न जाती है
‘जि गुरु जी
याद तुम्हारी
परछाई सी साथी है
आती है, फिर न जाती है
बहुत रुलाती है,
याद तुम्हारी
‘जि गुरु जी
रह-रह कर आती है,
पतझड़ ‘पत झर’ सँग लाता
भागा वसन्त आ जाता
लगता बैरन बिरहन से,
आमरण है मेरा नाता
काश मेरीं यें सिसकिंयाँ
जा तुम्हें कुछ बतातीं
वैसे मैं हिचकिंयों की,
छिन-छिन भेंजूँ अनगिन पातीं
जाने पाती पाने की,
आयेगी कब बारी हमारी
बहुत रुलाती है,
याद तुम्हारी ।।धूपं।।
मैंने छोड़ा जमाना
तेरे पीछे
तुम मुझे अकेला मत छोड़ जाना
मैं चलने तैयार हूँ आँखें मींचे
तेरे पीछे
मैंने छोड़ा जमाना
तुम्हें कसम मेरी
‘जि गुरुजी
करके आँख नम मेरी,
तुम मुझे अकेला मत छोड़ जाना
यादों से जोड़ के,
किये वादों से मुँह मोड़ के,
बाना बेगाना ओढ़ के,
हो जान तुम मेरी,
पहचान तुम मेरी,
करके आँख नम ।।फलं।।
पा वसन्त कोयल गाती है
पाती सीप बिन्दु स्वाती है
गाती जब माँ प्रभाती है
मुझे याद तुम्हारी आती है
मिसरी घुली बोली तुम्हारी
वो हँसी रंगोली तुम्हारी
रह रह के आँख भर लाती है
दया करुणा बहना आँखों से
बहुत कुछ कहना आँखों से
वो तुम्हारा, सिर हमारा
‘के सहलाना अपने हाथों से
वो तुम्हारा, बहुत कुछ कहना आँखों से ।
‘मैं हूँ ना’ कहना बार बार
धकाऊँगा बनके मैं पाछी बयार
वो तुम्हारा, पोंछते हुये आँसू मेरे
कर लेना आँचल अपना छार-छार
वो तुम्हारा, ‘मैं हूँ ना’ कहना बार बार
मुझे याद तुम्हारी आती है ।।अर्घ्यं।।
=विधान प्रारंभ=
(१)
ग्रीषम छैय्या ।
अहो खिवैय्या ।।
लगा तीर दो, मेरी नैय्या ।।
दीजो विघटा ।
कृपया झट आ ।।
ले जल आये ।
बादल छाये ।।
मलयज लाये ।
करज रुलाये ।।
अक्षत लाये ।
विपत् रुलाये ।।
पहुपन लाये ।
कटुपन भाये ।।
पकवाँ लाये ।
दुक्ख रुलाये ।।
दीपक लाये ।
धी-धिक् भाये ।।
सुगन्ध लाये ।
बन्ध रुलाये ।।
ले फल आये ।
गहल भ्रमाये ।।
सब द्रव लाये।
गरब रुलाये ।।
दीजो विघटा ।
कृपया झट आ ।।अर्घं।।
(२)
खड़े हैं हम तेरे द्वारे ।
हमारे ओ, पालन हारे ।।
उलझ कुछ काम गये ऐसे ।
बना दो, बन जाये जैसे ।।
क्रोध रह-रह के तलफाता ।
दीजिये भिंटा बोध त्राता ।।
लिये भर जल कलशे न्यारे ।।
खड़े हैं हम तेरे द्वारे ।
लिये भर चन्दन घट न्यारे ।।
मान जा-जा के आ जाता ।
दीजिये भिंटा ज्ञान त्राता ।।
लोभ कब गया, न जो आता ।
दीजिये भिंटा ओम् त्राता ।।
थाल-अक्षत लाये न्यारे ।।
खड़े हैं हम तेरे द्वारे ।
सुगंधित लिये पुष्प सारे ।।
काम के मन गाने गाता ।
दीजिये भिंटा राम त्राता ।।
होश चाहे-जब खो जाता ।
दीजिये भिंटा ऽतोष त्राता ।।
लिये पकवान घृत-पिटारे ।।
खड़े हैं हम तेरे द्वारे ।
दीप ले सम जग मग तारे ।।
भरम रह आस पास-जाता ।
दीजिये भिंटा ऽवगम त्राता ।।
शोक से जुड़ा अमिट नाता ।
दीजिये भिंटा ऽऽलोक त्राता ।।
धूप,घट-धूप लिये न्यारे ।।
खड़े हैं हम तेरे द्वारे ।
लिये फल विगलित ‘पन-खारे’ ।।
गहल ले जाय छीन साता ।
दीजिये भिंटा अकल त्राता ।।
टूट ना रहा कुमत ताँता ।
दीजिये भिंटा सुमत त्राता ।।
खड़े हैं हम तेरे द्वारे ।
लिये वसु द्रव्य मिला सारे ।।अर्घं।।
(३)
भँवर बीच मेरी नैय्या |
तुम्हीं हमारे खेवैय्या ।।
पार लगा दो कर करुणा ।
हमें तिहारी ही शरणा ।।
शरणा-वर दीजे शरणा ।
करुणा-कर कीजे करुणा ।
लाये हम जल झारी भर ।
करने पद-अविकारी कर ।।
लाये भर चन्दन गागर ।
बनें न यूँ रहने पामर ।।
लाये भर अक्षत थाली ।
पाने शाश्वत खुशहाली ।।
लाये पुष्प सुकोमल हम ।
करने बिलकुल ही छल गुम ।।
व्यञ्जन लिये सलोने हम ।
आये मुनि-मन होने हम ।।
लाये दीवा घृत वाले ।
पाने श्रुत अमृत प्याले ।।
धूप-थाल सुरभि वाला ।
सपना आप-पाठ-शाला ।।
पके-पके फल वरन-वरन ।
मिलें छूबने आप चरण ।।
द्रव्य आठ ले आये हम ।
उलझे कर्म-आठ परचम ।।
करुणा-कर कीजे करुणा ।
शरणा-वर दीजे शरणा ।। अर्घं ।।
(४)
बन्धु माँ पिता ।
मेरे देवता ।।
खो गया पता ।
जरा दें बता ।।
खबर लीजिये ।
कलश भरे जल ।
विकल करे कल ।
सबर दीजिये ।।
भरे गन्ध घट ।
कहे बन्ध हट ।
जबर कीजिये ।।
शालि धाँ लिये ।
कालिमा छिये ।
‘जि-पर’ दीजिये ।।
फूल खुशनुमाँ ।
फुस्लाये गुमाँ ।
इतर कीजिये ।।
चरु वरन-वरन ।
सर चढ़े व्यसन ।
अधर कीजिये ।।
माल दीपिका ।
काल भीतिदा ।
अखर कीजिये ।।
धूप सुगंधित ।
झूठ, धृत अमृत ।
अमर कीजिये ।।
फल पके-पके ।
अत्त छल करे ।।
निडर कीजिये ।।
अरघ मन विहर ।
ढ़ाय अघ कहर ।।
खबर लीजिये ।
रबर दीजिये ।। अर्घं।।
(५)
निहारिये जी गुरु जी ।
सूना-सूना हृदयासन ।
करता सविनय आह्वानन ।।
‘जि पधारिये जी गुरु जी ।
स्वीकारिये जी गुरु जी ।
लाया जल से भर कलशे ।
माया छल से उर निवसे ।।
विहँसाहिये जी गुरु जी ।
लाया चन्दन घट सुन्दर ।
माया पकड़े हट अन्दर ।।
हटकारिये जी गुरु जी ।
आया शालि धाँ लाई ।
माया कालिमा छाई ।।
विघटाइये जी गुरुजी ।
लाया गुल सुगन्ध वाले ।
माया मनसूबे काले ।
धुतकारिये जी गुरुजी ।
आया व्यञ्जन ले घी के ।
माया ले चाले नीचे ।।
फटकारिये जी गुरुजी ।
लाया घृत गो दीपाली ।
माया छीने दीवाली ।
ललकारिये जी गुरुजी ।
लाया सुगन्ध मन हारी ।
माया ढ़ाये दुश्वारी ।
विखराईये जी गुरुजी ।
लाया फल मन लुभावने ।।
माया ठगे जितना बने ।
विनशाईये जी गुरुजी ।
लाया द्रव्य सभी मनहर ।
माया चढ़ती सिर ऊपर ।।
धमकाईये जी गुरुजी ।
निहारिये जी गुरुजी।।अर्घं ।।
(६)
क्षमा न जिन सी पास धरा ।
जिन्हें कुटुम सी वसुन्धरा ।।
श्री गुरु वे विद्यासागर ।
दें सद्या कर शिव नागर ।।
कलशे भर लाये जल के ।
होने तुम जैसे हल्के ।।
झलके, दो भर श्रुत गागर ।
जय जय गुरु विद्यासागर ।
भटके राह, दो बता घर ।
भर लाये मलयज झारी ।
होने तुम-से उपकारी ।।
भर लाये अक्षत थाली ।
होने तुम से बलशाली ।।
ढ़क नख-शिख पाये चादर ।
जय जय गुरु विद्यासागर ।
अब ना हो गणना पामर ।
लाये सुमन नयन-हारी ।
होने तुम से अविकारी ।।
ले आये व्यंजन घी के ।
होने तुम जैसे ‘भी’ के ।।
अपना बना लो दया कर ।
जय जय गुरु विद्यासागर ।
दो वाणी भर वीणा स्वर ।
लाये घृत दीवा-माला ।
होने तुम से गो-पाला ।।
लिये धूप घट अभिरामी ।
होने तुम से निष्कामी ।।
सप्त सभी लो विहँसा डर ।
जय जय गुरु विद्यासागर ।
लो कर अबकी अजरामर ।
ले आये ऋतु फल मीठे ।
होने तुम जैसे नीके ।।
लिये दरब, आँख पानी ।
होने तुम जैसे ध्यानी ।।
जय जय गुरु विद्यासागर ।
तुम्हें मना लूँ रो गाकर ।।अर्घं।।
(७)
‘जि पुजारी नये नये हम ।
आ खाली हाथ गये हम ॥
सुनते, गुरु विद्या दानी ।
कर लो अपने सा ध्यानी ॥
नहिं मिल पाई जल झारी ।
दृग् झरना बनी हमारी ।।
नहिं आस पास भी चन्दन ।
भावन भींगा बस वन्दन ।।
अक्षत नहिं पास पिटारे ।
धूमिल बस भाग सितारे ।।
नहिं हाथ पुष्प लग पाये ।
मन, मुनि मन सा भर लाये ॥
नैवेद्य बना नहिं पाया ।
अब तक का पुण्य कमाया ।।
सँग दीप तेल नहिं बाती ।
श्वासें बस आती जाती ॥
नहिं धूप, धूप घट भी ना ।
परिणति बस अलस विहीना ।।
खोजा फल नहिं मिल पाया ।
श्री फल ‘कर’ जुगल बनाया ।।
नहिं अरघ कहीं दीखे ओ ।
व्यञ्जन स्वर माँ सीखे जो ॥
जो कुछ यहि गुरु स्वीकारो ।
नो भो जल पार उतारो ।।अर्घं।।
(८)
लिये बिन तेरा नाम ।
न रीते कोई शाम ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।
भर लाये जल कलशे ।
रहने न बने कल-से ।।
लाये चन्दन झारी ।
हित बनने अविकारी ।।
अक्षत परात लाया ।
पाने छत्रच्छाया ।।
बहुतेरे गुल लाया ।
विहँसाने मद माया ।।
नीके व्यञ्जन घी के ।
मुख काल क्षुधा दीखे ।।
लाया माला दीवा ।
बनने विदेह जीवा ।।
खे घट में धूप रहा ।
मण्डूक कूप पन हा ।।
ले आया फल ढ़ेरी ।
पड़ जाय नज़र तेरी ।।
वसु द्रव्य लिये थाली ।
खुरपा छूटे जाली ।।
ओ निरीह निष्काम ।
गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।अर्घं ।।
(९)
रखते जो नित योगों की सँभाल ।
काटा करें न बैठे हैं जिस डाल ।।
गुरुवर वे विद्या सिन्धु महाराज ।
आये पल अखीर, रख लेवें लाज ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज ।
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज
मिला न जल भर लाया नैनन नीर ।
मुनि मन भाँत बना दो मम तस्वीर ।।
खड़ा लिये चन्दन बदले संतोष ।
क्षण आयें जब रोष, न दूँ खो होश |।
अक्षत कहाँ सुकृत ले आया द्वार ।
विहँसा सकूँ वृषभ तेली किरदार ।।
फूल नहीं, पल ले आया अनुकूल ।
खाये मुँह की मन्मथ मोहन धूल ।।
था चरु नहिं ले आया निस्पृह नेह ।
पाऊँ अबकी अनुपम अवगम देह ।।
दीप जगह ले आया अदब बुजुर्ग |
स्वर्ग स्वप्न न रहे ख्वाब अपवर्ग ।।
धूप कहाँ मति आया लिये मराल ।
अबकि काल न कर पाये बेहाल |।
फल नहिं श्रीफल बना आ गया हाथ ।
मुलाकात दो करा शिव वधु बात ।।
अरघ मिला न, ले आया गुण नेक ।
साधा सब अबकि साधूँ निज एक ।।
गुरु विद्या ओ श्रमण संघ सरताज |
कर अनसुनी न देना शिशु आवाज ।। अर्घं।।
(१०)
गुरुवर तेरे दीवाने ।
आये हैं तुम्हें मनाने ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।।
लाया जल से झारी भर ।
आने बाहर से भीतर ।।
चन्दन झारी ले आया ।
करने मिथ्यात्व सफाया ।।
आया परात अक्षत ले ।
पद स्वप्न साथ अक्षत ले ।।
गुल लिये सुगन्धित न्यारे ।
करने मद मदन किनारे ।।
घृत व्यंञ्जन तुरत बनाये ।
लाये दव-क्षुधा सिराये ।।
लाये दीपक मनहारी ।
आने ‘जी’ तक इस बारी ।।
लाये दश-गंध निराली ।
परिणति अपहरने काली ।।
फल लाये मीठे-मीठे ।
होने मन-आप सरीखे ।।
ले दिव्य द्रव्य हैं आये ।
मन गाने-पाप न गाये ।।
दो नजर उठा इक बारी ।
जाऊँ मैं बलि-बलि हारी ।।अर्घं।।
(११)
हैं पाबन्द समय के बचपन से ।
जिन्हें ‘निराकुल हैं’ न सुना किनसे ।।
नियम लगे नहिं जिन्हें कभी बन्धन ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु तिन्हें वन्दन ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।।
प्रासुक जल के भर लाये कलशे ।
पा पाहन पथ पे, होने जल से ।।
लाये घिस कर हाथों में चन्दन ।
फिरूँ न हित कस्तूरी मृग बन वन ।।
अछत-अछत से भर लाये थाली ।
मन जाये कच्छप सी दीवाली ।।
चुन-चुन पुष्प थाल हैं भर लाये ।
भेद भ्रमर मन नेह कमल पाये ।।
ले आये नीके व्यंजन घी के ।
आने ‘ही’ से कुछ करीब ‘भी’ के ।।
घृत दीपों की लिये खड़े माला ।
बदलूँ चाबी खुले न गर ताला ।।
धूप सुगन्धित लाये मनहारी ।
स्वानुभूति गुल महके हिय क्यारी ।।
ऋतु फल मीठे-मीठे ले आया ।
विहँसे आप आप वानरि-माया ।।
कर मिश्रण ले आठ दरब आये ।
खो श्वानी इस बार गहल जाये ।।
ओ मेरे भगवन् सुन लो विनती ।
लो अपने-अपनों में कर गिनती ।। अर्घं।।
(१२)
तारण तरण ।
मिरे भगवन् ।।
आया चरण ।
पाने शरण ।।
लाया उदक ।
पाने झलक ।।
इक आपकी ।।
गुरु आपकी ।।
लिये मलयज ।
पाने पदरज ।।
कुछ आपकी ।
गुरु आपकी ।।
लिये अक्षत ।
पाने हसरत ।।
शिव आप सी ।
गुरु आप सी ।।
लाया सुमन ।
पाने मदन ।।
जय आप सी ।
गुरु आप सी ।।
लिये व्यंजन ।
पाने तरण ।।
शिव आपकी ।
गुरु आपकी ।।
लिये दीपक ।
पाने बनक ।।
दय आप सी ।
गुरु आप सी ।।
लिये सुगंध ।
पाने अनंत ।।
‘धी’ आप सी ।
गुरु आपसी ।।
लिये ऋतु फल ।
पाने सजल ।।
दृग् आप सी ।
गुरु आप सी ।।
लिये सब द्रव ।
पाने अदब ।।
गुरु आप सी ।
गुरु आप सी ।। अर्घं ।।
(१३)
खूब समय का जानें जो उपयोग ।
जिन्हें रोग से इन्द्रिय विषयन भोग ।।
चेतन कृति गुरु ज्ञान सिन्धु की एक ।
गुरु विद्या वे वन्दन तिन्हें अनेक ।।
करुणा कर दो कृपया गुरु महाराज ।
शिव जाना चाहें लो बिठा जहाज ।।
कलशों में भर लाये प्रासुक नीर ।
करने मरण समाधि वक्त अखीर ।।
झारी भर लाये हैं चन्दन द्वार ।
भवाताप खाये मुँह की इस बार ।।
भर परात में लाये शाली धान ।
ठगे न मान, बहाने स्वाभिमान ।।
चुन-चुन सौरभ मण्डित लाये फूल ।
स्वप्न बना नहिं रह जाये भव कूल ।।
घृत निर्मित व्यंजन का लिये परात ।
देखे अबकी बार क्षुधा मुख ‘मात’ ।।
मणि मय अठ-पहरी घृत लाये दीप ।
दे दो थान जरा सा चरण समीप ।।
लाये सुरभित धूप अनूप अमोल ।
तूती कर्म न पाये अबकी बोल ।।
सुन्दर लाये ऋतु फल मधुर अनूप ।
कर छाया दें घनी, कर्म वसु धूप ।।
लाये वसु द्रव्यों का करके मेल ।
ना निकालते रहें रेत से तेल ।।
करुणा कर दो कृपया गुरु महाराज ।
शिव जाना चाहें लो बिठा जहाज ।। अर्घं ।।
(१४)
यजन भाया ।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।।
शरण आया ।
उदक लाया ।।
गन्ध लाया ।।
अछत लाया ।।
सुमन लाया ।।
अमृत लाया ।।
दीप लाया ।।
धूप लाया ।।
भेल लाया ।।
अर्घ्य लाया ।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।।अर्घ्यं ।।
(१५)
सुन पीड़ा लो ।
ले बीड़ा लो |।
कल्याण का ।
मेरे भगवान् आ ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।।
उजला सा जल ।
धुंधला सा कल ।।
शीतल चन्दन ।
भीतर क्रन्दन ।।
अक्षत पावन ।
वञ्चित सावन ।।
गुल वरन-वरन ।
‘गुल’ मञ्जुल-पन ।।
चरु घृत निर्मित ।
अमृत विरहित ।।
संदीप रतन ।
समीप अवगुण ।।
घट धूप नवल ।
मण्डूक अकल ।।
मीठे से फल ।
खीचे सा छल ।।
वसु द्रव नीके ।
गारव भीगे ।।
कीजे करुणा ।
दीजे शरणा ।। अर्घं ।।
(१६)
सुनते दुख हर लेते ।
झोली सुख भर देते ।।
हूँ दुख घाम सताया ।
भेंटो छत्रच्छाया ।।
लाया हूँ जल पावन ।
पाने जल सा दामन ।।
लाया हूँ चन्दन रस ।
पाने चन्दन सा जश ।।
लाया हूँ शालि धाँ ।
अपहरने कालिमाँ ।।
लाया हूँ थाल-कुसुम ।
अपहरने पन गुमसुम ।।
लाया व्यञ्जन घी के ।
होने मुनि-मन ही से ।
लाया दीवा न्यारे ।
अपहरने अँधियारे ।।
हूँ लिये धूप विरली ।
हो माफ भूल पिछली ।।
फल ले आये मन हर ।
चिर रह पायें, मन घर ।।
लाया हूँ अलग अरघ ।
हित मारग मुकत सुरग ।।
हूँ भय घाम सताया ।
भेंटो छत्रच्छाया ।। अर्घं ।।
(१७)
मुझ शबरी के धन राम ओ ।
मुझ मीरा के घनश्याम ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
पल अब-तब मुख तव नाम हो ।
घट भर लाये हम नीर के ।
हा ! मार खाय तकदीर के ।।
कर कर शुभ भाव इनाम दो ।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
मारग बतला शिव धाम दो ।।
घट भर लाये रज मलय के ।
ढ़िग पहुँच न पाये विनय के ।।
हम लिये थाल अक्षत भरे ।
कुछ-कुछ सहमे कुछ-कुछ डरे ।।
मन खुद सा कर अभिराम लो ।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
बस दिखला मेरा ग्राम दो ।।
भर लिये पुष्प की थालियाँ ।
हा ! रुठी सी खुशहालियाँ ।।
लाये घृत के व्यंजन सभी ।
पाये नहिं छोड़ व्यसन अभी ।।
जिह्वा मन लगा लगाम दो ।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
तम का कर काम तमाम दो ।
लाये घृत दीप सुहावने ।
छाये जीवन अन्धर घने ।।
घट धूप-नूप लाये मुदा ।
मंडूक-कूप पन ही फिदा ।।
मति हंस मिरे कर नाम दो ।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
‘कर’ थमा थान विश्राम दो ।
ऋतु-फल लाये मीठे पके ।
भागें मृग से हारे थके ।।
मिश्रण कर लाये द्रव्य हैं ।
मन देखें, लगे अभव्य हैं ।।
कर मिरा जरा सा काम दो ।
लिखवा भव्यों में नाम दो ।।अर्घं।।
(१८)
थाम पतवार लो ।
लगा उस पार दो ।।
गुरु खिवैय्या ।
है मँझधार में मेरी नैय्या ॥
भेंटते जल कलश ।
भेंट दें सम-दरश ॥
भेंटते रस-मलय ।
भेंट दें जश-विनय ॥
भेंटते शालि धाँ ।
मेंट दें कालिमाँ ॥
भेंटते सुमन चुन ।
भेंट दें सुमन-गुण ॥
भेंटते चरु सरस ।
मेंट दें गुरुर रस ।।
भेंटते दीप घृत ।
मेंट दें लत गलत ।।
भेंटते धूप कण ।
भेंट दें नूप पन ।।
भेंटते फल निकर ।
मेंट दें कल-फिकर ।
भेंटते वसु दरब ।
मेंट दें रस गरब ।
गुरु खिवैय्या,
है मँझधार में मेरी नैय्या।।अर्घं।।
(१९)
सुनि सुनि मीरा अन्तर धुनि ।
सुनि सुनि शबरी मन्तर ध्वनि ।।
गुरु ! हम भी रहे पुकार तुम्हें ।
भव-जल से दो कर पार हमें ।
लेके दर खड़े, सुन्दर बड़े ।
मुख तलक भरे, शुचि उदक घड़े ।।
दो नैन उठा दो, नेह मढ़े ।
अभिलाष यही, इक बार सही ।
दो होंठ दिखा, शिल-सिद्ध मुडे ।।
मुख तलक भरे, रज मलय घड़े ।।
लेके दर खड़े, सुन्दर बड़े ।
सित अछत भरे, थाल सुनहरे ।।
दो हाथ उठा, आशीष भरे ।
अभिलाष यही, इक बार सही ।
कह दो अपना, गुरुदेव मिरे
गुल प्रफुल भरे, थाल सुनहरे ।।
लेके दर खड़े, सुन्दर बड़े ।
पकवान भरे, थाल सुनहरे ।।
लेने दो लख भर नैन अरे ।
अभिलाष यही, इक बार सही ।
लेने दो छू ये चरण तिरे ।
घृत दीप भरे, थाल सुनहरे ।।
लेके दर खड़े, सुन्दर बड़े ।
दश-गन्ध भरे, थाल सुनहारे ।।
दो बोल-बोल दो मिसरि घुरे ।
अभिलाष यही, इक बार सही ।
लो खैर-खबर गुरुदेव मिरे ।।
फल सकल भरे, थाल सुनहरे ।।
लेके दर खड़े, सुन्दर बड़े ।
अर अरघ भरे, थाल सुनहरे ।।
अभिलाष यही, इक बार सही ।
आकर लो घर आहार मिरे ।। अर्घं।।
(२०)
बालक तिरे, दर पर खड़े ।
गुरुवर मिरे, गुरुवर मिरे ।
गद-गद हिये, तर-दृग् किये ।।
कञ्चन घड़े, ले जल भरे ।
दो वर, किनारा छल करे ।
लेकर घड़े, मलयज भरे ।
दो वर, किनारा रज करे
अछत के ले, परात भरे ।
दो वर, किनारा मद करे ।
पहुप के ले, परात भरे ।
दो वर, किनारा कुप् करे ।
घृत दीप ये, लेकर निरे ।
दो वर, किनारा बद करे ।
चारु ले, चरु परात भरे ।
दो वर, किनारा डर करे ।
घट धूप के, लेकर निरे ।
दो वर, किनारा पट करे ।
परात बड़े, फल के भरे ।
दो वर, किनारा सल करे ।
अरघ के ले, परात भरे ।
बालक तिरे, दर पर खड़े ।।
गुरुवर मिरे, गुरुवर मिरे ।
दो वर, किनारा अघ करे ।।अर्घं।।
(२१)
मेरी सुन लो ।
मुझको चुन लो ।।
दास अपना ।
न और सपना ॥
एक शरणा ! ।
करके करुणा ।।
भेंटूँ जल घट ।
मेंटो संकट ।।
भेंटूँ चन्दन ।
मेंटो क्रन्दन ।।
भेंटूँ अक्षत ।
मेंटो गफलत ।।
भेंटूँ पहुपन ।
मेंटो कटुपन ।।
भेंटूँ व्यञ्जन ।
मेंटो उलझन ।।
भेंटूँ दीपक ।
मेंटो धी-बक ।।
भेंटूँ कपूर ।
मेंटो फितूर ।।
भेंटूँ फल-दल ।
मेंटो छल-पल ।।
भेंटूँ वसु-द्रव ।
मेंटो गारव ।।
एक शरणा ! ।
करके करुणा।।अर्घं।।
(२२)
थिर साध रहे संधान ।
हित संस्कार वरदान ।।
ओंकार दूसरे नाम ।
गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
दे कृपया दो आशीष ।
लाये भर प्रासुक नीर ।
हो सुमरण वक्त अखीर ।।
लाये चन्दन घिस द्वार ।
दो धरा धरा सिर भार ।।
लाये भर अछत परात ।
दो निभा शिव-तलक साथ ।।
लाये चुन सुरभित फूल ।
नहिं करूँ भूल भी भूल ।।
लाये रच घृत पकवान ।
हो एक मशान मकान ।।
लाये मणिमय घृत दीप ।
लो निवसा चरण समीप ।।
आये ले धूप अनूप ।
धारूँ नहिं अब बहु-रूप ।।
लाये फल नेक अनेक ।
साधा सब साधूँ एक ।।
लाये वसु द्रव्यन थाल ।
अब बुनूँ न मकड़ी जाल ।।
गुरु विद्या सिन्धु ऋषीश ।
दे कृपया दो आशीष ।।अर्घं।।
(२३)
फूल पथ में हों, या काँटे ।
सदा मिलें जो, मुस्कुराते ।।
जलज जल-भिन्न वे जग में ।
करें संस्थित मुकति मग में ।।
भोर, ना लख पाई सोते ।
हेत क्या ? क्यों उड़वे तोते ।
तीर दें, जल-घट लिये हमें ।।
स्वानुभव होगा ना कैसे ।
सिद्ध जो आसन पहले से ।
धीर दें,चन्दन लिये हमें ।।
हुये क्या प्रतिक्रमण करने ।
अश्रु के बने नयन झरने ।
विनय दें, अक्षत लिये हमें ।।
मदन आ क्या कर पावेगा ।
जो न मन साथ निभावेगा ।
विजय दें, पहुपन लिये हमें ।।
क्षुधा जब मान रोग ली है ।
गृद्धता बात दोगली है ।
सुधा दें, व्यञ्जन लिये हमें ।।
अब कहाँ, दीप तले अन्धर ।
रत्न दीपक जो शोभे कर ।
सुज्ञाँ दें, दीवा लिये हमें ।।
चरण से छूने जाते भू ।
नयन से पहले आते छू ।
सुध्याँ दें, सुगन्ध लिये हमें ।।
कहे कुछ रसना पल अगले ।
आये छू मिसरी को पहले ।।
सुमति दें, ऋतु-फल लिये हमें ।।
छू रहे भले आशमाँ है ।
बसाये प्रभु श्वास माँ है ।।
जलज जल-भिन्न वे जग में ।
सुगति दें, सब-द्रव लिये हमें ।। अर्घं ।।
(२४)
मन मेरे वचन तन ।
मेरे जीवन धन ।।
हो क्या-क्या नहीं तुम ।
तुम्हीं मेरे भगवन् ।।
कर कुछ दो ऐसा ।
कलश नीर लाये ।
गहल कीर छाये ।।
‘कि चल तीर आये ।।
कलश गन्ध लाये ।
पन स्वछन्द भाये ।।
‘कि बन्धन पलाये ।।
धाँ-शालि लाये ।
भा-काली भाये ।।
‘कि दिवाली आये ।।
सुमन चुन सजाये ।
मदन अत्त ढ़ाये ।।
‘कि अड़चन बिलाये ।।
घृत पकवाँ लाये ।
जिद धिक् ध्याँ भाये ।।
‘कि गद-क्षुध बिलाये ।।
घृत प्रदीप लाये ।
मद समीप आये ।।
‘कि गफलत बिलाये ।।
घट सुगंध लाये ।
निकट बंध आये ।।
‘कि क्रन्दन बिलाये ।।
सु-मधुर फल लाये ।
फिकर कल सताये ।।
‘कि गहल गल जाये ।।
अरघ थाल लाये ।
उरग चाल भाये ।।
कर कुछ दो ऐसा ।
‘कि उड़ स्वर्ग आये ।। अर्घं।।
(२५)
मिसरी तुम घोलते हो ।
जुवाँ जब खोलते हो ।।
कला ये दो सिखला भी ।
साथिया वधु-शिव भावी ।।
पा नजर जो जाता है ।
हाँ ! निखर वो जाता है ।।
नीर ले आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।।
धूल पा जाये चरणन ।
कूल आ जाये तत्-क्षण ।।
गन्ध ले आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।।
झलक इक जो भी पाता ।
झलक स्वातम ही आता ।।
अछत ले आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।।
आये ले झोली खाली ।
झूमता जाये सवाली ।।
पुष्प ले आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।।
यहाँ की न सिर्फ बातें ।
होती पूरी मुरादें ।।
लिये चरु आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।।
याद कर ले बस मन से ।
सुलझ जाये उलझन से ।।
दीप ले आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।।
करें भक्ती, दे तालीं ।
अँगुलिं हों घी में सारीं ।।
धूप ले आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।।
समर्पण क्या दिखलाया ।
हुई छू-मन्तर माया ।।
लिये फल आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।।
द्वार जो भी आया है ।
फाड़ छप्पर पाया है ।।
अरघ ले आया द्वारे ।
सुलट दो भाग सितारे ।। अर्घं।।
(२६)
खूबसूरत हो ।
शुभ मुहूरत हो ।।
तुम हाँ !
हाँ ! हाँ ! तुम ।
भगवत् मूरत हो ।।
लिये खड़े चरणा ।
गुरु ज्ञाना-भरणा ।
स्वीकारो जल-घट ।
ओ ! तारण-तरणा ।
स्वीकारो चन्दन ।
इक शरण्य-शरणा ।।
स्वीकारो अक्षत ।
हर-जामन-मरणा ।।
स्वीकारो फुलवा ।
सुधा-सिन्धु करुणा ।।
स्वीकारो पकवाँ ।
लोभ-क्षोभ-हरणा ।।
स्वीकारो दीवा ।
अनुकम्पा झरना ।।
स्वीकारो सुगन्ध ।
द्वन्द्व-बन्ध क्षरणा ।।
स्वीकारो ऋतु फल ।
हरणा भव-भ्रमणा ।।
अवहित पन-करणा ।।
स्वीकारो द्रव-सब ।
लिये खड़े चरणा ।। अर्घं।।
(२७)
एक तारण तरण ।
एक अकारण शरण ।।
बीच नैय्या भँवर ।
खींच, कर दो उधर ।।
लीजिये शरण में ।
हो पाउँ निरालस ।
भर नीर के कलश ।
भेंटता चरण में ।।
खो पाउँ प्रणय-रस ।
ले कलश मलय-रस ।।
भेंटता चरण में ।
खो पाउँ कालिमा ।
पय समाँ शालि-धाँ ।
भेंटता चरण में ।
खो पाउँ मद-मदन ।
मन लुभावन सुमन ।।
भेंटता चरण में ।
खो पाउँ गद-क्षुधा ।
पकवाँ समाँ सुधा ।।
भेंटता चरण में ।
हो पाउँ ज्ञान वाँ ।
दीव जित-भान भा ।।
हो पाउँ निज निकट ।
ले नूप-धूप घट ।।
खो पाउँ फिकर कल ।
ले सकल सरस फल ।।
भेंटता चरण में ।
खो पाउँ लगन अघ ।
ले कुछ अलग-अरघ ।।
भेंटता चरण में ।
लीजिये शरण में ।। अर्घं।।
(२८)
हित पूजन सविनय आया ।
विद्या सागर मुनिराया ।।
श्री-श्री गुरुदेव हमारे ।
दुख दर्द मेंट दो सारे ।।
विहसाने छल, जल लाया ।
संकट विघटा दो सारे ।।
पाने गुण चन्दन लाया ।
विध्वंस विघ्न दो सारे ।।
चाहत पद अक्षत लाया ।
खो पथ कण्टक दो सारे ।।
हित मन श्रमण सुमन लाया ।
दुर्भाव पलट दो सारे ।।
मेटन रज नेवज लाया ।
सुलझा धागे दो सारे ।।
हित धी दीवा घी लाया ।
भर नादि जख्म दो सारे ।।
हित नूप धूप सित लाया ।
गुण आत्म दिखा दो सारे।।
हित शिव-फल सब फल पाया ।
संपूर स्वप्न दो सारे ।।
हित अनघ अरघ सित लाया ।
विद्या सागर मुनिराया ।।
श्री श्री गुरुदेव हमारे ।
कर पाप माफ दो सारे ।।अर्घं ।।
=जयमाला=
गुरुदेवा-गुरुदेवा ।
तेरे चरणों की सेवा ।।
देती पूर मुरादें ।
सुन लेती फरियादें ।।
ले पाँखुड़ि इक मेंढ़क ।
जा पहुँचा स्वर्गों तक ।।
करती पाप किनारे ।
टिकती चुनर सितारे ।।
श्रद्धा पद-रज राखी ।
सोन जटायू पाखी ।।
खड़े-खड़े धरती पर ।
हाथ लगाती अम्बर ।।
भव छव सत् शिव सुन्दर ।
नाग, नेवला, बन्दर ।।
भरती हया दृगों में ।
भरती दया रगों में ।।
अंजन हुआ निरंजन ।
चन्दन टूटे बन्धन ।।
भव जल गहन घनेरा ।
पार लगाये बेड़ा ।।
सहज निराकुल करती ।
सहज निरा’कुल धरती ।।
गुरुदेवा-गुरुदेवा ।
तेरे चरणों की सेवा ।।
देती पूर मुरादें ।
सुन लेती फरियादें ।।
=हाईकू=
बोल बोर के गुड़ घी में,
बोलते, गुरु जी धीमे ।
गुरु अमृत घोलते,
पूछने पे थोड़ा बोलते ।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।
*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)
=आरती=
दैगम्बर निर्ग्रन्थ की
आओ कीजो आ-रति
विद्यासागर सन्त की
दैगम्बर निर्ग्रन्थ की
ग्राम सदलगा जनमे ।
मल्-लप्पा आंगन में ।।
आखर ढ़ाई
हाथ पढ़ाई
लोरी सुन बचपन में ।।
नन्दन मॉं श्री मन्त की
आओ कीजो आ-रति
विद्यासागर सन्त की
दैगम्बर निर्ग्रन्थ की ।।१।।
सूरि देश भूषण से ।
भूषित प्रतिमा धन से ।।
पुण्य कमाई,
पूरब भाई
दीक्षा ज्ञान श्रमण से ।।
छवि कुन्द कुन्द भगवन्त की ।
आओ कीजो आ-रति
विद्यासागर सन्त की
दैगम्बर निर्ग्रन्थ की ।।२।।
गुरुकुल संघ बनाया ।
श्रुत भण्डार बढ़ाया ।।
पीर पराई
आंख भिंजाई
सांझन सु…मरण भाया ।
वर्तमान अरिहन्त की
आओ कीजो आ-रति
विद्यासागर सन्त की
दैगम्बर निर्ग्रन्थ की ।।३।।
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