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श्री गुरु विधान

17. विधान- मनभावना श्री गुरु

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

वर्धमान मंत्र
ॐ
णमो भयवदो
वड्ढ-माणस्स
रिसहस्स
जस्स चक्कम् जलन्तम् गच्छइ
आयासम् पायालम् लोयाणम् भूयाणम्
जूये वा, विवाये वा
रणंगणे वा, रायंगणे वा
थम्भणे वा, मोहणे वा
सव्व पाण, भूद, जीव, सत्ताणम्
अवराजिदो भवदु
मे रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते रक्ख-रक्ख स्वाहा
ते मे रक्ख-रक्ख स्वाहा ।।
ॐ ह्रीं वर्तमान शासन नायक
श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*पूजन*
हाई-को ?
जाऊँ तो, कहाँ मैं ।
मेरे तुम एक हो, दो-जहां में ।।

काम और छोड़ के ।
भक्ति डोर जोड़ के ।।
पुलक रोम रोम धन ।
जमुन-गंगा नयन ।
‘सहज’ गद गद वयन ।
जमुन-गंगा नयन ।
लाये श्रद्धा सुमन ।।
आये दूर गाँव से ।
सिर्फ तेरे लिये ।।
चल के पाँव-पाँव से ।
आये दूर गाँव से ।
सिर्फ तेरे लिये, सिर्फ तेरे लिये ।।स्थापना।।

तेरे थे, तेरे हैं, तेरे ही रहेंगे हम
उम्र-भर
जन्म-हर
कहते थे, कहते हैं, करते ही रहेंगे हम
जय विद्या-सागरम् ।
मृग के हाथ लगे कस्तूरी
अभिलाषा हो जाती पूरी
मन्सा पूरण मंत्र है ।
काली नजर न लग पाती है
अला बला मुंह की खाती है
संकट मोचन मंत्र है ।
रोग पाँव उलटे लौटाये
उछल-कूंद मन थम थमियाये
आधि-व्याधि हन मन्त्र है ।
जय विद्या-सागरम् ।।जलं।।

दर्शन तुम्हारा
गुण कीर्तन तुम्हारा
मेरे जीवन का सहारा है ।
प्रवचन तुम्हारा
जल-चरणन तुम्हारा
दुख सागर का किनारा है ।
जो सिमरन तुम्हारा है
वो जीवन हमारा है
तुम्हारे सुमरण बिना
जी सकता नहीं
मैं पल-भर भी
जैसे मछली जल कण बिना
पल भर भी
जी सकती नहीं
‘जी गुरु जी ।।चन्दनं।।

मैं जा के कहीं और,
न फैलाऊँगा झोली
करूँगा, करता आया भी,
तेरी चौखट गीली
मेरे अपनों में,
सिर्फ एक तेरा नाम आता है
तू मेरे बहुत काम आता है
तू मेरा हर काम बनाता है
गर्दिशों ने फिर-के घेरा मुझे
आ के मिरा काम फिर से बनाना तुझे
मुझे किसी और से, मतलब ही नहीं है
तेरे सिवा यहाँ, कौन जो मतलबी नहीं है
न नया नया, तिरा-मिरा,
कई जन्मों का नाता है ।
हुई भक्तों की पुकार अनसुनी,
न हमनें सुना ।
हर बार अपने भक्तों का भला,
तुमने चुना ।।
यूँ ही न तेरे दर पे लगा,
भक्तों का ताँता है ।।अक्षतं।।

दे बता ?
अय ! मेरे मन के देवता
ये सब कुछ जो,
है सब कुछ वो
तेरा ही तो दिया
तुझे तेरा, मैं कर दूँ समर्पित क्या ?
क्या ये मुरली पना ।
इस बाँस के लिये दिया,
आपने जो अपना ।।
क्या में गगरी-पना
इस माटी के लिये दिया,
खास अपना बना ।।
क्या में बदली-पना ।
इस पानी के लिये दिया,
दे अपनापना ।।पुष्पं।।

दूज, पूनम नजारे हैं
साथ चन्दा सितारे हैं
चाँदनी चाले मिला कदम
मेरा सिवाय तुम, कोई नहीं ।
गुलों के साथ खुशबू है
साथ कोयलिया कूहू है
साथ भँवरों के है सरगम
मेरा सिवाय तुम, कोई नहीं ।
डोर संग-संग पतंग है
संग सागर के तरंग है
रंग और तितली दोनों हमदम
मेरा सिवाय तुम, कोई नहीं ।।
अय ! निगाह नम ! ।।नैवेद्यं।।

।। मेरी श्रद्धा, तुम पे गहराती है ।।
फूँक कर पग जो रखते तुम ।
दया तरबतर रग जो रखते तुम ।
बस मुट्ठी भर दिल में,
सारा जग जो रखते तुम ।।
नमतर रखते निगाहें ।
फैलाकर रखते तुम बाँहें ।
नेकिंयाँ किस रस्ते आतीं,
देखते रहते तुम राहें ।।
जुबां रखते हो मिसरी तुम ।
और हित थामे छतरी तुम ।
तुम किसी के हो चश्मे,
तो हो किसी की लकड़ी तुम ।
तुम्हें एक जो सोना और माटी है
‘जि गुरु जी
मेरी भक्ति
मेरी श्रद्धा, तुम पे गहराती है ।।दीपं।।

कम नहीं, पल दो पल भी
सत्संग के,
पल दो पल भी, कम नहीं
छींटे भी केशरिया रंग के कम नहीं
फूटें करुणा झरने नीले
परहित हो चालें नयन पनीले
पनीले नयन
अपने लिये
किये अपनों के लिये
माने हैं नम नहीं ।
सुरीले वचन
अपने लिये
किये अपनों के लिये
माने सरगम नहीं ।
लचीले कदम
अपने लिये
किये अपनों के लिये
माने मरहम नहीं
छींटे भी, केशरिया रंग के कम नहीं ।।धूपं।।

मेरा मन विराजे तुम चरण में
तुम चरण विराजें मेरे मन से
बस गुजारिश,
न और ख्वाहिश
मैं जब तक रहूँ इस नश्वर तन में
मन ये मेरा चंचल बड़ा
पाप करने रहता खड़ा
इसे अपनी छाह में दे जगह दो जरा
करके कृपा ।।
जब देखो तब मिले खाते चुगली
जब देखो तब छाने औरन गली
इसे सच्ची राह पे लगा दो जरा ।।
बन बन के सोने की हा ! आदत इसे
रुचती अंधेरे की इबादत इसे
हुई सुबह कहके, इसे जगा दो जरा ।।फलं।।

तुझसे पीछे है चन्दा अमृत बरसाने में
पाछी-हवा तुझसे पीछे आगे बढ़ाने में
सच तुम जैसे तुम बस अकेले ।
अय ! भगवन् मेरे ।।
पल सुकून पा जाता है मन मेरा ।
तुझे अपने सपनों में पाके
नकदीक आके तेरे
तेरे नकदीक आके
अपने आँगन में पड़गा-के
खिल प्रसून सा जाता है मन मेरा ।
‘मरूँ’ कह चला, फिर भी दरिया न सुनता
विरख आते ही पतझड़ बेरुखी चुनता
सच तुम जैसे तुम बस अकेले
अय ! भगवन् मेरे ।।अर्घ्यं।।

…विधान प्रारंभ…
(१)
जय गुरुवर, जय विद्या सागर
भेंटूँ सादर
‘पय’ रत्नाकर
भर जल गागर
रस मलयागर
कञ्चन गागर
अछत गुणाकर
अक्षत धाँ वर
पिटार भा-धर
अर फुलवा-सर
अरु जग-जाहर
चरु मनवा-हर
कान्त सुधाकर
ज्योत जगाकर
गंध जहां अर
सुगंध आगर
महि महि-ना अर
फल महिमा-धर
द्रव्य सजाकर
मणमय पातर
भेंटूँ सादर
जय गुरुवर, जय विद्या सागर
ज्ञान दिवाकर !
जिन गुण आगर !
जय गुरुवर, जय विद्या सागर
सत् शिव सुन्दर
ज्ञान-समुन्दर
जय गुरुवर, जय विद्या सागर ।।अर्घ्यं।।
(२)
होने हल्का
कलशा जल का
हित सम दर्शन
सुरभित चन्दन
पत रख पाने
अक्षत दाने
हित गंधोदक,
गुल मनमोहक
खोने बंधन
न्यारे व्यंजन
हित संजीवा
गो-घृत दीवा
हित निज पूँजी
सुरभी दूजी
ऋत फल मिसरी
हित दिव नगरी
हित शिव थाती
जल फल आदी
करता अर्पण
गुरुदेव चरण
जयकारा गुरुदेव का…
जय जय गुरुदेव
बरसाये रखना कृपा सदैव
जयतु जय, जय जय गुरुदेव ।।अर्घ्यं।।
(३)
वर्तमाँ वर्धमाँ
गुरुजी नमो नम:
भेंटूँ जल कलशे
भर क्षीरी जल के
भेंटूँ घट चन्दन
सुगन्ध वन नन्दन
भेंटूँ धाँ शाली
अक्षत, मनहारी
भेंटूँ फुलवा’री
अलि गुन गुन न्यारी
भेंटूँ चरु मिसरी
गो घृत अठ-पहरी
भेंटूँ ज्योति अबुझ
दीप मोति अद्भुत
भेंटूँ सुगन्ध अन
हट घट वरन वरन
भेंटूँ ऋत ऋत फल
मधुरिम नवल धवल
भेंटूँ हट छव’री
दिव्य द्रव्य सबरी
वर्तमाँ वर्धमाँ
गुरुजी नमो नम:
जरा-सी ठोकर क्या लगी
गुरु जी उड़ के आ गये
उड़ा के दुख-दर्द ले गये
फूँक माँ गुरुजी
गुरुजी नमो नम:
सचमुच गुरु पूर्ण माँ ।।अर्घ्यं।।
(४)
जल क्षीर घट
हित तीर तट
चन्दन कलश
हित सम दरश
हित बाल मन
धाँ शाल कण
हित नन्द अन
गुल नन्द वन
चरु चारु घृत
हित झिर अमृत
ज्योती अबुझ
हित बोध कुछ
घट धूप हट
हित निज निकट
रित ओघ फल
हित मोख फल
सब द्रव्य दिव
हित स्वर्ग शिव
भेंटूँ सविनय
जय जयतु जय
तट वैतरण
आशा किरण
गुरुवर चरण
जय जयतु जय
थापूँ हृदय
हित पाप क्षय
जय जयतु जय ।।अर्घ्यं।।
(५)
आई आवाज़ चारों ओर से
भेंटो कलशे
भर के जल से
भेंटो चन्दन
उपवन नन्दन
भेंटो दाने
अछत सुहाने
भेंटो न्यारी
दिव फुलबा’री
भेंटो नीके
व्यंजन घी के
भेंटो दीवा
घृत संजीवा
भेंटो नाना
‘गंध’ निधाना
भेंटो भेले
जगत अकेले
भेंटो सबरी
द्रव दिव छव ‘री
सबसे प्यारे, जग न्यारे
विद्या सागर गुरु हमारे
शरण सहारे
तारणहारे
विद्या सागर गुरु हमारे
आ बँध चालो भक्ति दोर से
आई आवाज़ चारों ओर से ।।अर्घ्यं।।
(६)
हेत सम्यक्-दरश
भेंट जल मण कलश
हेत नम-तर हृदय
भेंट चन्दन मलय
हेत परणत विमल
भेंट अक्षत धवल
हेत वसुधा कुटुम
भेंट नन्दन कुसुम
हित निरंजन डगर
भेंट व्यंजन मधुर
हेतु भीतर समझ
भेंट दीपक अबुझ
हेत सुर’भी अखर
भेंट सुरभी इतर
हेत फल शिव सुरग
भेंट फल दिव विरख
हेत पल-पल सफल
भेंट जल फल सकल
ले पनीले नयन
साथ श्रद्धा सुमन
सिन्ध विद्या नमन
सिन्ध विद्या नमन ।।अर्घ्यं।।
(७)
पा तुम्हें अय ! मेरे भगवन्
हाथ मेरे लग चला सुपन
जल कंचन लाया
मेरा पुण्य उदय आया
घट चन्दन लाया
गुम कहीं मेरा वन क्रन्दन
पा तुम्हें अय ! मेरे भगवन्
लग जमीं मैंने छुआ गगन
धाँ अक्षत लाया
मेरा पुण्य उदय आया
दिव्य पुष्प लाया
डब-डबाये हित और नयन
पा तुम्हें अय ! मेरे भगवन्
बोल गद-गद, अमोल पुलकन
घृत नेवज लाया
मेरा पुण्य उदय आया
अबुझ ज्योत लाया
खुदबखुद सुलझ चली उलझन
पा तुम्हें अय ! मेरे भगवन्
लग ताँता भीतर-ज्ञान-किरण
दिव सुगन्ध लाया
मेरा पुण्य उदय आया
फल ऋत ऋत लाया
घाट जा लागी मोर-तरण
पा तुम्हें अय ! मेरे भगवन्
निराकुल भीतर-बाहर मन
दरब सरब लाया
मेरा पुण्य उदय आया
पा तुम्हें अय ! मेरे भगवन्
पाया मैंने नव-जीवन
मैं हो चला धन
मिलने लगा मुझे निश-दीस
गुरु आशीष
गुरु आशीष
मिलने लगा मुझे निश-दीस ।।अर्घ्यं।।
(८)
कृपा बरसाये रखना सदैव
यूँ ही गुरुदेव
चढ़ाऊँ प्रासुक उदक
‘कि पाऊँ गन्धोदक
चढ़ाऊँ चन्दन घोल
‘कि पाऊँ मिसरी बोल
चढ़ाऊँ शालिक धान
‘कि पाऊँ इक मुस्कान
चढ़ाऊँ सुर-तरु-गुल
‘कि पाऊँ तुम गुरु-कुल
चढ़ाऊँ चरु, मनहार
‘कि पाऊँ प्यार-दुलार
जगाऊँ ज्योत अबुझ
‘कि पाऊँ कुछ ना कुछ
चढ़ाऊँ देव अगर
‘कि पाऊँ एक नजर
चढ़ाऊँ फल वन नन्द
‘कि पाऊँ अपूर्वानन्द
चढ़ाऊँ अर्घ परात
‘कि पाऊँ आशीर्वाद
एक अरदास
निकले मेरी अंतिम श्वास
करते हुये तेरे चरणों की सेव
यूँ ही गुरुदेव
कृपा बरसाये रखना सदैव ।।अर्घ्यं।।
(९)
जोड़ो हाथ, झुका-माथा
जुड़े पुण्य अक्षत नाता
सद्-गुरु चरण शरण आओ
कलशे जल से भर लाओ
फूटे गन्ध गन्ध लाओ
सार्थ नाम अक्षत लाओ
दिव-द्रुम दिव्य कुसुम लाओ
घृत अमरित अरु चरु लाओ
परहित जिया, दिया लाओ
हट घट धूप नूप लाओ
सरस, हरष रित-फल लाओ
सहजो सरब दरब लाओ
सद्-गुरु चरण शरण आओ
जोड़ो हाथ, झुका-माथा
जुड़े पुण्य अक्षत नाता
गुरु से बढ़ के और नहीं
इक सुर, सुर न कौन गाता
अखर अखर श्रुत बतलाता
सद्-गुरु एक जगत्-त्राता
आओ गायें गुरु गाथा ।।अर्घ्यं।।
(१०)
भेंट सानन्दना
क्षीरजल, मण-कलश
हेत सम्यक्-दरश
झार चन्दन मलय
हेत सहजो-विनय
शालि-धाँ कण अछत
हेत प्रतिमा विरत
पुष्प नन्दन चमन
हेत अभिजित नयन
चारु चरु घृत अमृत
हेत सम्यक्-चरित
दीप मारुत अगम
हेत ज्ञान केवलम्
गंध घट हट बनक
हेत भीतर झलक
थाल फल रित सकल
हेत लोचन सजल
द्रव्य अष्टक अलग
हेत मस्तक सुरग
भेंट सानन्दना
वन्दना वन्दना वन्दना
श्रीमन्त नन्दना वन्दना
वन्दना वन्दना वन्दना ।।अर्घ्यं।।
(११)
नमो नमः नमो नम:
इक खुद सा
जल कलशा
भेंटूँ शचि भरतार समाँ
भेंटूँ चन्दन-बाल समाँ
हट कञ्चन
घट चन्दन
भा प्यारी
धाँ शाली
भेंट कोण्डेश ग्वाल समाँ
भेंटूँ मेंढ़क भक्त समाँ
वरन वरन
गुल ‘नंदन’
परात मण
घृत व्यंजन
भेंटूँ चक्री भरत समाँ
भेंटूँ नव दीक्षार्थ समाँ
दीप अबुझ
दिव कुछ कुछ
घट कंचन
सुगंध अन
भेंटूँ अञ्जन लाल समाँ
भेंटूँ द्रुपद-दुलार समाँ
रत-नारी
फल थाली
स्वर्ण बनक
अर्घ पिटक
भेंटूँ सोम श्रियांस समाँ
नमो नमः नमो नम:
विद्या गुरवे नमो नम:
नमो नमः नमो नम: ।।अर्घ्यं।।
(१२)
साथ श्रद्धा सुमन
सिन्ध-विद्या नमन
हेत सम-दरश
भेंट जल कलश
हेत स्रज विनय
भेंट रज मलय
हेत ध्याँ सुरत
भेंट धाँ अछत
हेत पल हरस
भेंट दल सहस
हेत जश विमल
भेंट रस-सकल
हेत औ’ समझ
भेंट लौं अबुझ
हेत घर अधर
भेंट अर अगर
हेत कल धवल
भेंट फल नवल
हेत शिव सुरग
भेंट दिव अरघ
नन्द श्री-मन्त
शिरोमणी सन्त
साथ श्रद्धा सुमन
सिन्ध-विद्या नमन ।।अर्घ्यं।।
(१३)
जयतु जय विद्यासागर
गगरिया सुनहरी
क्षीर जल से भरी
रत-नारी गगरी
न्यार चन्दन भरी
सुर विमान-वाली
धान अछत शाली
पद्म बड़े न्यारे
सर मानस वाले
नूर मोति वाली
मोतिचूर थाली
आप भाँत थाली
दीप पाँत प्यारी
हट स्व-गंध वाले
घट दश गंध न्यारे
फल नंद बगाना
छव सुगंध नाना
भव्य नव्य विरली
दिव्य द्रव्य सबरी
भेंटूँ तुम्हें सादर
जयतु जय विद्यासागर
गुल मुस्कुराकर
बुलबुल चहचहाकर
तू शत शरद जिये
और क्या यही तो कहे, कुल मिलाकर
जय विद्यासागर
जयतु जय विद्यासागर ।।अर्घ्यं।।
(१४)
लाया जल
माया छ्ल
कर लो निश्चल,
अपने समान
कर लो जिन-भट
चन्दन घट
बन्धन पट
चावल कण
चंचल मन
कर लो सज्जन
अपने समान
कर लो उदार
पुष्प पिटार
मुख विष-धार
चरु षट्-रस
गुरूर वश
कर लो समरस,
अपने समान
कर लो संस्कृत,
दीपक घृत
धी-बक कृत
अन सुगंध
विघन बंध
कर लो सुवंद्य,
अपने समान
कर लो प्र’बाल
श्रीफल थाल
सर पर काल
जल फल आद
वन सिंह-नाद
कर लो सुसाध,अपने समान
शिख सिन्ध-ज्ञान
सदलग गुमान
जय जयतु जयतु जय
मेरे भगवान् ।।अर्घ्यं।।
(१५)
जय विद्या सागर जय
जल-क्षीर नीर गागर
सौधर्म भाँत लाकर
चन्दना भाँत लाकर
घिस, चन्दन रस गागर
धाँ शाल, न्यार पातर
पुन-अछत भाँत लाकर
मण्डूक भाँत लाकर
पाँखुड़ी पुष्प पातर
घृत निर्मित चरु पातर
नृप सोम भाँत लाकर
चन्द्रार्क भाँत लाकर
घृत, ज्योति मोति पातर
वन नन्द गंध गागर
चक्रेश, भाँत लाकर
कौण्डेश भाँत लाकर
भेले श्री फल पातर
जल चन्दनाद पातर
इक आप भाँत लाकर
मैं भेंट रहा सविनय
जय विद्या सागर जय
जिन-धर्म प्रभाकर जय
सद्-गुण रत्नाकर जय
जय विद्या सागर जय ।।अर्घ्यं।।
(१६)
बरसाये रखना कृपा हरदम
कंचन के, खुद से
कलशे भर जल से
भेंट रहा दृग्-नम
खुद से, कंचन के
घट चन्दन भर के
पातर हाटक के
शालि धान हट के
मंजुल मनहारी
गुल, नन्दन क्यारी
अठपहरी घी की
चरु मिसरी नीकी
दृग्-दृग् संजीवा
रत्न खचित दीवा
खुश कोना कोना
‘मनु’ सुगंध सोना
पातर रतनारे
फल-दल रस वाले
कुछ हटके छव ‘री
दिव्य द्रव्य सबरी
भेंट रहा दृग्-नम
बरसाये रखना कृपा हरदम
अय ! मेरे आराध्य गुरु
जीवन ये मेरा तुम्हीं से शुरु,
तुम्हीं पे खतम ।।अर्घ्यं।।
(१७)
पाके तुम्हें अपने आँगन
फूला नहीं समाऊँ मैं
गागर नीर चढ़ाऊँ मैं
चन्दन घड़े भिंटाऊँ मैं
अक्षत शालि चढ़ाऊँ मैं
नन्दन पुष्प चढ़ाऊँ मैं
व्यञ्जन दिव्य चढ़ाऊँ मैं
अनबुझ ज्योत जगाऊँ मैं
अनुपम धूप चढ़ाऊँ मैं
फल वन-नन्द चढ़ाऊँ मैं
वसु-विध अर्घ्य भिंटाऊँ मैं
पाके तुम्हें अपने आँगन
झूमूँ मैं होके मगन
आया छूने में गगन
पाके तुम्हारी शरण
मेरे आराध्य गुरु नमन
आराध्य गुरु नमन
मेरे आराध्य गुरु नमन ।।अर्घ्यं।।
(१८)
गुरु विद्या मुनि तिन्हें हृदय से ढ़ोक
भर लाया कलशे जल सागर-क्षीर
आप भाँत बन पाने हृदय गभीर
भर लाया घट चन्दन महके गंध
आप भाँत बन पाने मन-निष्पन्द
भर लाया धाँ शाली थाली सोन
आप भाँत रख पाने भीतर मौन
भर लाया वन-नन्दन पुष्प पिटार
आप भाँत विहँसाने मनस् विकार
भर लाया पातर चरु चारु अमोल
आप भाँत चुन पाने हित-मित-बोल
भर लाया घृत दीप माल दृग्-हार
आप भाँत पा पाने माँ-श्रुत पार
भर लाया घट कुछ हट धूप अनूप
आप भाँत लख पाने नित चिद्रूप
भर लाया पल परात अपने भाँत
आप भाँत कर पाने समता हाथ
भर लाया वसु द्रव्य थाल रतनार
आप भाँत बन पाने ‘सहजो न्यार
जो जितना जग इनका ही आलोक
गुरु सेवा जिनकी चर्चित तिहुलोक
गुरु विद्या वे तिन्हें हृदय से ढ़ोक ।।अर्घ्यं।।
(१९)
भेंट सादर आकर तुम द्वार
क्षीर-सागर गागर-रतनार
गन्ध-चन्दन, गागर-मनहार
शालि धाँ कण-कण खुशबूदार
नन्द वन सुरभित पुष्प पिटार
चारु चरु घृत निर्मित रसदार
ज्योत अनबुझ घृत दीप कतार
गन्ध कस्तूर कपूर नियार
थाल फल ऋत-ऋत नन्दन क्यार
द्रव्य जल फलाद मणिमय थार
भेंट सादर आकर तुम द्वार
मिले यूँ ही तुम चरणन सेव
बनाये रखना कृपा सदैव
जयकारा गुरुदेव का…
जय जय गुरुदेव
बनाये रखना कृपा सदैव ।।अर्घ्यं।।
(२०)
क्षीर सागर कलश
हेत सम्यक् दरश
न्यार चन्दन कलश
हेत ‘भी’तर परश
शालि अक्षत अछत
हेत अक्षर विरद
बाग नन्दन कुसुम
हेत वसुधा कुटुम
भोग छप्पन नवल
हेत भव-जल कमल
ज्योत दृग्-हर अबुझ
हेत अन्दर समझ
गंध अद्भुत अगर
हेत सद्-गुण निकर
थाल फल रित सबन
हेत अमरित वचन
थाल चाँदी अरघ
हेत सुख शिव-सुरग
सहज भेंटूँ सविनय
विद्यासागर जी की जय
इक विशाला हृदय
क्षमा करुणा निलय
विद्यासागर जी की जय
विद्यासागर जी की जय ।।अर्घ्यं।।
(२०)
जयवन्त-जयवन्त
सिन्ध ज्ञान नन्द
जल क्षीर
घट नीर
हित तीर
भेंट सानन्द
घट गंध
हट गंध
हित नन्त
भेंट सानन्द
धाँ शाल
मण थाल
हित भाल
भेंट सानन्द
गुल नन्द
अर गंध
हित पन्थ
भेंट सानन्द
मन हार
चरु ‘चार’
हित सार
भेंट सानन्द
संजीव
मण दीव
हित नींव
भेंट सानन्द
घट धूप
दिव नूप
हित डूब
भेंट सानन्द
छव नेक
फल नेक
हित एक
भेंट सानन्द
कल-नाथ
जल-आद
हित साध
भेंट सानन्द
जयवन्त-जयवन्त
सिन्ध ज्ञान नन्द
शरद पून चन्द
श्री विद्या सिन्ध
जयवन्त-जयवन्त
पुरु वंश
मत हंस
निर्ग्रन्थ
जयवन्त-जयवन्त ।।अर्घ्यं।।
(२१)
नीर पियाली
छव सोनाली
सुगन्ध न्यारी
गंध पियाली
रत्न पिटारी
अक्षत शाली
छव रतनारी
पुष्प पिटारी
माणिक थाली
चरु घृत वाली
अछत निराली
घृत दीपाली
चन्दन वाली
धूप निराली
नन्दन क्यारी
फल मन हारी
दिव्य निराली
द्रव्य पिटारी
भेंट सश्रद्धा
जय जयतु जय गुरुवर विद्या
दृगों में हया
रंगों में दया
जय जयतु जय गुरुवर विद्या ।।अर्घ्यं।।
(२२)
जयकारा जय-जयकारा
गुरु चरणन छोडूँ धारा
भेंटूँ रज मलयज प्याला
लिये थाल अक्षत न्यारा
भेंटूँ दिव्य पुष्प माला,
भेंटूँ चरु मनहर प्यारा
भेंटूँ अक्षर उजियारा
खेऊँ अनल अगरु काला
भेंटूँ थाल शकरपारा
भेंटूँ अरघ सुरग वाला
जयकारा जय-जयकारा
एक, दो, तीन, चार
विद्यासागर गुरु हमार
पाँच, छै, सात, आठ
मेरे गुरु का हृदय विराट
नौ, दश, ग्यारा, बारा
गुरु-द्वारा तारण-हारा
जयकारा जय-जयकारा
गुरु-द्वारा तारण-हारा ।।अर्घ्यं।।
(२३)
नमतर नयन,
साथ श्रद्धा सुमन
भेंटने जल लाया
भेंट चन्दन लाया
भेंट अक्षत लाया
भेंटने गुल लाया
भेंटने चरु लाया
भेंट दीपक लाया
भेंट सुगंध लाया
भेंट श्री फल लाया
भेंट सब-कुछ लाया
सिर्फ़ तुम्हें आया
छोड़ शिकवे-गिले
गैरों को लगा आना गले ।।अर्घ्यं।।
(२४)
कहो,
अहो,
हो कहाँ के
इस जहाँ के,
लगते ही नहीं
क्यूँ न चढ़ाऊँ,
चढ़ाऊँ क्यूँ न तुम्हें दृग्-जल
छूती ही नहीं तुम्हें वानरी-गहल
क्यूँ न चढ़ाऊँ,
चढ़ाऊँ क्यूँ न तुम्हें चन्दन
छोड़ आये कहीं, तुम वन निर्जन क्रन्दन
क्यूँ न चढ़ाऊँ,
चढ़ाऊँ क्यूँ न तुम्हें अक्षत
होती ही नहीं तुम्हें किसी से नफरत
क्यूँ न चढ़ाऊँ,
चढ़ाऊँ क्यूँ न तुम्हें पुष्प दिव
तुम निस्पृह जो खे रहे हो नाव शिव
क्यूँ न चढ़ाऊँ,
चढ़ाऊँ क्यूँ न तुम्हें षट्-रस
जिन्दगी में तुम्हारी, है ही नहीं कशमकश
क्यूँ न जगाऊँ
जगाऊँ क्यूँ न तेरा दिया
लेने के नाम पर, हाथों का श्रीफल बस लिया
क्यूँ न चढ़ाऊँ,
चढ़ाऊँ क्यूँ न तुम्हें सुगंध अन
होती ही नहीं तुम्हें किसी से जलन
क्यूँ न चढ़ाऊँ,
चढ़ाऊँ क्यूँ न तुम्हें श्री फल
रखते हो, पर हित जो आँखें सजल
क्यूँ न चढ़ाऊँ,
चढ़ाऊँ क्यूँ न तुम्हें अरघ
हटके दुनिया से तुम, हो ही कुछ अलग
तुम रखते ही नहीं,
गैरों में
किसी को पैरों में
रखते ही नहीं
दिल के सिवा
अय ! मेहरवाँ ।।अर्घ्यं।।
(२५)
लाया जल कलशी
साथ ढ़ोक फरसी
लाया गन्ध मलय
आया साथ विनय
पिटार धाँ शाली
लग कतार ताली
पुष्प नन्द बागा
हट-कुछ अनुरागा
घृत निर्मित व्यंजन
विस्मित अभिनन्दन
अनबुझ घृत ज्योती
झिर लग दृग् मोती
सुगंध मन भाता
टेक दिया माथा
फल ऋत ऋत वाले
समेत जयकारे
लो स्वीकार नमन मेरे
मेरे भगवन ! चरण तेरे
मन्दिर मन मेरे
मेरे भगवन ! चरण तेरे
विराजे रहे युँही
और आरजू नहीं ।।अर्घ्यं।।
(२६)
जल घट कंचन, सुरभित चन्दन लाया हूँ
अन अक्षत कण, गुल वन-नन्दन लाया हूँ
षट्-रस व्यंजन, अबुझ दीप मण लाया हूँ
धन ! सुगंध अन, फल वन-उपवन लाया हूँ
तुम्हें मनाने आया हूँ
द्रव्य विहर-मन लाया हूँ
जर्रा पलकें उठा कर,
मुझे भी तो देख लो ना
ये दुनिया तो ‘साधे स्वार्थ’,
समझे मुझे खिलौना ।।अर्घ्यं।।
(२७)
जुड़ चाले नाम मेरा,
तेरे नाम से
श्री राम से
नाम जैसे जुड़ा मारुति नन्दन
भगवति चन्दन
नाम जैसे जुड़ा महावीर स्वाम से
जुड़ चाले नाम मेरा, तेरे नाम से ।।
आये दूर ग्राम से
लाये जल कलशे,
ले चन्दन कलशे
ले धाँ मोती से
ले गुल नभ बरसे
ले चर, तर रस-से
ले दीपक मण-से
ले सुगंध खुद से
ले फल दिव विकसे
ले सब द्रव दिव से
भरके श्रृद्धा से,
आये दूर ग्राम से
जैसे जुड़ा नाम मीरा,
हरी श्याम से
‘के जुड़ चाले नाम मेरा,
तेरे नाम से ।।अर्घ्यं।।
(२८)
काम बन चला तुरन्त
भेंटते ही नीर सिन्ध
मलय गंध
धाँ अखण्ड
सुमन नंद
चरु अनन्त
लौं अमन्द
दिव सुगंध
फल बसन्त
भेंटते ही द्रव समन्त
काम बन चला तुरन्त
गुरुदेव दया-नन्त
गुरुदेव कृपा-वन्त
गुरुदेव शुभ-शगुन
छूते ही गुरु चरण
काम बन चला तुरन्त
गुरुदेव दया-नन्त
गुरुदेव कृपा-वन्त ।।अर्घ्यं।।

*जयमाला*
इक साँचा गुरु का दरबार ।
एकलव्य कह रहा खड़ा ।
गुरु प्रतिमा का असर बड़ा ।।
गुरु साक्षात् मिले जिसको ।
भगवन्-दर्श हुआ उसको ।।
कम जीवन भी करो निसार ।।१।।
देख दूसरों की बढ़ती ।
सारी ही दुनिया जलती ।।
मगर बिठा सिर, काँधे पर ।
दें गुरुदेव छुवा अम्बर ।।
करे बिना व्यापार, दुलार ।।२।।
दुर्गम पन्थ थकान नहीं ।
काफी इक मुस्कान रही ॥
गुरु ने नजर उठा देखा ।
छटा अंधेरा, अभिलेखा ॥
टके चुनरिया चाँद-सितार ।।३।।
जुबां जुग-सहस लिये धरण ।
कर न सका गुरु-गुण वर्णन ।।
पुण्य कराये पार सुना ।
तब तुम-गुण-गुँजार चुना ॥
लागी खुशी अश्रु जल-धार ।
श्री गुरु महिमा अपरम्पार ।।४।।

हाई-को ?
तेरे नाम से जाने मुझे जहां ।
दे ये दो वरदाँ ।।
।। जयमाला पूर्णार्घ्यं।।

‘सरसुति-मंत्र’
ॐ ह्रीं अर्हन्
मुख कमल-वासिनी
पापात्-म(क्) क्षयं-करी
श्रुत(ज्)-ज्-ञानज्-ज्वाला
सह(स्)-स्र(प्) प्रज्-ज्वलिते
सरस्वति-मत्
पापम् हन हन
दह दह
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः
क्षीरवर-धवले
अमृत-संभवे
वं वं हूं फट् स्वाहा
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे
मम सन्-निधि-करणे ।
ॐ ह्रीं जिन मुखोद्-भूत्यै
श्री सरस्वति-देव्यै
अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ।।

*विसर्जन पाठ*
बन पड़ीं भूल से भूल ।
कृपया कर दो निर्मूल ।।
बिन कारण तारण हार ।
नहिं तोर दया का पार ।।१।।
अञ्जन को पार किया ।
चन्दन को तार दिया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
नागों का हार किया ।।२।।
धूली-चन्दन-बावन ।
की शूली सिंहासन ।।
धरणेन्द्र देवी-पद्मा ।
मामूली अहि-नागिन ।।३।।
अग्नि ‘सर’ नीर किया ।
भगिनी ‘सर’ चीर किया ।।
नहिं तोर दया का पार ।
केशर महावीर किया ।।४।।
( निम्न श्लोक पढ़कर विसर्जन करना चाहिये )
दोहा-
बस आता, अब धारता,
ईश आशिका शीश ।
बनी रहे यूँ ही कृपा,
सिर ‘सहजो’ निशि-दीस ।।
( यहाँ पर नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिये)

*आरती*

आ-रति कीजे संध्या संध्या ।
सुत श्रीमति मल्लप्पा नन्दा ।।

शरद पूर्णिमा का दिन आया ।
ग्राम सदलगा उत्सव छाया ।।
लिये दीप घृत गाय सुगन्धा ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।१।।

सूर देश-भूषण ब्रमचारी ।
साक्षि ज्ञान-गुरु दीक्षा थारी ।।
छोड़ और सब गोरख धन्धा ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।२।।

श्रमणी, श्रमण किये अनगिनती ।
सरसुति सेव देखते बनती ।।
बना सरस मानस निस्पन्दा ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।३।।

करघा, थलि-प्रतिभा, गौशाला ।
अखर जिनालय पाथर वाला ।।
हित उन्मूल यम-जनम फन्दा ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।४।।

आप सिन्ध गुण अपरम्पारा ।
हाथ कहो किस ? गणना तारा ।।
श्रद्धा सुमन चढ़ा सानन्दना ।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।
सुत श्री मति मल्लप्पा नन्दा ।।
आ-रति कीजे संध्या संध्या ।।५।।

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