भक्ता-मर-स्तोत्र ६१
भक्त अमर श्रद्धान ।
मुक्त पाप-तम भान ।।
भव-जल आदि जहाज ।
साधो ! मेरे काज ।।१।।
विद् माँ माहन मर्म ।
स्वर्गाधिप सौधर्म ।।
थव तव अर्णव पार ।
अर्णव नैन हमार ।।२।।
कर किनार इक लाज ।
छेडूॅं थुति तुम साज ।।
पाने निशि शशि-नीर ।
बालक सिर्फ अधीर ।।३।।
गुण-नभ नाप तुम्हार ।
सुर-गुरु मानी हार ।।
‘मगर’ सिन्धु उस छोर ।
लगे कौन भुज-जोर ।।४।।
शक्ति न मेरे पास ।
भरे भक्ति विश्वास ।।
शिशु हित मृगि अविचार ।
सिंह पर करे प्रहार ।।५।।
आप भक्ति मुनि-नाथ ! ।
मुखरी करे बलात् ।।
मधु ऋतु मधु पिक गान ।
हेत आम्र-बागान ।।६।।
करते सिमरन आप ।
कटते तत्-छिन पाप ।।
स्वयं अँधेरा दूर ।
किरण एक पा सूर ।।७।।
पाकर आप प्रसाद ।
थुति यह होगी ख्यात ।।
पड़ कमलन जलधार ।
माल-मोति मन-हार ।।८।।
दूर थवन अभिराम ।
आप ‘पाप-हर’ नाम ।।
रवि सुदूर आकाश ।
भरता कमल विकास ।।९।।
करके पूजा-पाठ ।
बने भक्त तुम भांत ।।
बदले सेवक रेख ।
वही धनी अभिलेख ।।१०।।
जुड़ कर तुमसे नैन ।
कहीं न पाते चैन ।।
पी जल क्षीर नियार ।
पिये कौन जल क्षार ।।११।।
रज-कण निःसन्देह ।
रचे ‘कि बस तुम देह ।।
सुन्दर सत्य अनूप ।
जगत् न दूजा रूप ।।१२।।
अभिजित ‘मुख’ उपमान ।
देखे पलट जहान ।।
कहाँ आप शशि लेख ।
ढाक पत्र दिन देख ।।१३।।
लांघ चले जग तीन ।
शशि गुण दाता-दीन ।।
थारी जिन्हें पनाह ।
कौन न देता राह ।।१४।।
शर कटाक्ष दिवि नार ।
आहत मन न तिहार ।।
प्रलय पवन बलजोर ।
मेरु न डामाडोल ।।१५।।
बिन बाती, बिन तेल ।
मारुत करे न खेल ।।
रोशन लोक अलोक ।
दीप अलौकिक, ढ़ोक ।।१६।।
राहु न रोके राह ।
नाम मात्र ना दाह ।।
बादल सके ना झाँप ।
सूर्य अलौकिक आप ।।१७।।
दलित मोह अँधियार ।
सदा उदित अविकार ।।
विगत झाँप घनश्याम ।।
अर शशि मुख अभिराम ।।१८।।
क्यों विहरें शशि, भान ।
तुम शश मुख तम हान ।।
पहुँचा घर, पक नाज ।
गरजें घन किस काज ।।१९।।
सार्थक केवल ज्ञान ।
और समीप गुमान ।।
तेज यथा मणि साँच ।
कब सतेज कण कांच ।।२०।।
भटकन दर-दर लाभ ।
मिले आप अभिताभ ।।
किन्तु न आमद तोर ।
दिखा न अर चित्-चोर ।।२१।।
माँ बनतीं शत नार ।
माँ जगदम्ब तुम्हार ।।
दिश्-दिश् तारक राश ।
सूर पूर्व आकाश ।।२२।।
पुरु तुम पुरुष प्रधान ।
तमहर रवि छविमान ।।
शरणा तुम भव अन्त ।
करुणा तुम शिव पन्थ ।।२३।।
विभु, अचिन्त्य, योगीश ।
प्रभु, असंख्य, जगदीश ।।
ब्रह्मा, आद्य, अनेक ।
अव्यय, अनंत, एक ।।२४।।
बुध सेवक तुम बुद्ध ।
शमकर शंकर सिद्ध ।।
धाता विधान मोख ।
पुरुषोत्तम गत-शोक ।।२५।।
जय जग पीर निवार ।
भूषण भूम जुहार ।।
जय जय पोषक लोक ।
भव जल शोषक ढ़ोक ।।२६।।
चुने और जन दोष ।
आप बने गुणकोश ।।
दोष समेत गुमान ।
दें न स्वप्न तुम मान ।।२७।।
तर अशोक तर गौर ।
सत् शिव सुन्दर और ।।
तन तुम सूर सतेज ।
प्रकटित समीप मेघ ।।२८।।
मण विचित्र सिंह पीठ ।
तन तुम अपहर दीठ ।।
उदित उदय गिर चूल ।
सूर्य तिमिर निर्मूल ।।२९।।
चॅंमर अमर समशर्ण ।
तुम तन वर्ण सुवर्ण ।।
गिर सुमेर जल धार ।
तट शशि प्रभा फुहार ।।३०।।
झालर रत्न विलोल ।
कान्त शशांक अमोल ।।
छत्र सुशोभित तीन ।
त्रिभुवन ईश्वर चीन ।।३१।।
दुन्दुभि शब्द गभीर ।
माँझी यह भव-तीर ।।
रहा गगन में गाज ।
जश अक्षय जिनराज ।।३२।।
सन्तानक, मंदार ।
गुल झिर बांध कतार ।।
मन्द पवन, जल-गन्ध ।
झिर तुम वचन अमन्द ।।३३।।
दर्पण भव-भव जोड़ ।
भा-मण्डल बेजोड़ ।।
आतप दिनकर कोट ।
सौम्य सोम उद्योत ।।३४।।
निपुण कथन सद्-धर्म ।
अर्थ विशद विद् मर्म ।।
भाष भाष परिणाम ।
धुनि तुम प्रद शिव धाम ।।३५।।
दर्श मात्र प्रद क्षेम ।
पद पंकज नव हेम ।।
रखते तुम जिन नाथ ।
देव रचें जल-जात ।।३६।।
जैसी आप अनूठ ।
सभा न और विभूत ।।
छवि रवि तम अपहार ।
कहाँ समीप सितार ।।३७।।
झिर मद मूल कपोल ।
क्रोधित सुन अलि बोल ।।
गज वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।३८।।
नख गज कुंभ विदार ।
भू लहु मोति-सिंगार ।।
सिंह वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।३९।।
उग्र प्रलय वाताश ।
जग निगलन अभिलाष ।।
दव वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।४०।।
रक्त नेत्र पिक कण्ठ ।
सम्मुख बढ़ निष्कण्ट ।।
अहि वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।४१।।
रद गज, नाद तुरंग ।
नृप ‘बल’ सार्थ दबंग ।।
रण वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।४२।।
शोणित सहित प्रपूर ।
तरने आतुर सूर ।।
अरि वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।४३।।
नाव बीच घड़ियाल ।
बड़वानल विकराल ।।
जल वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।४४।।
जीवन आश विलोप ।
कफ, पित, वात प्रकोप ।।
रुज वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।४५।।
नख-शिख श्रृंखल जाल ।
राज कोठरी काल ।।
बॅंध वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।४६।।
सिंह, गज, रोग, भुजंग ।
दव, जल, बन्धन, जंग ।
भय वशभूत तुरंत ।
जय-जय जयतु जिनन्द ।।४७।।
गुल आखर गुण क्यार ।
दिव्य माल तैयार ।।
धार कण्ठ भवि वर्ग ।
मान-तुंग शिव-शर्म ।।४८।।
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