बाड़ी के बाबा
आदिनाथ की पूजन
आदि बड़े बाबा ओ बाड़ी ।
द्वार तिहारे खड़े पुजारी ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आन पधारो ।।स्थापना।।
आ जिनने जल अर्पण कीना ।
मुनि मन सा मन दर्पण कीना ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
जिनने चन्दन चरण चढ़ाया ।
छिन में भव आताप मिटाया ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
किये समर्पित अक्षत दाने ।
भाने लगे निजात्म तराने ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
चरणन पुष्प परात चढ़ाया ।
पुष्प बाण छू एक न पाया ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
घृत नैवेध चढ़ाया जिनने ।
क्षुधा रोग विहँसाया उनने ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
जिनने ज्योत अखण्ड जगाई ।
कृपा दृष्टि माँ सरसुति पाई ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
धूप सुगंधित ला-जो खेता ।
धूम उड़ा कर्मों की लेता ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
श्री फल जो रखता ला अपना ।
हो मंजिल पर सहज पहुँचना ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
भर श्रद्धा से अर्घ चढ़ाया ।
पद अनर्घ झोली में आया ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
कल्याणक
बाकी अभी गर्भ छह महिना ।
झिर लग झिरे गगन से रतना ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
नगर अयोध्या जन्म लिया है ।
न्हवन मेरु सौधर्म किया है ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
राज-पाट तज पहुँचे वन में ।
पट छोड़े, लट तोड़े छिन में ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
अरि चतुष्क लख दृढ़ता भागा ।
केवल ज्ञान सम-शरण लागा ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
सहज शुक्ल ध्यानाग्नि जला के ।
कर्म खपा ठहरे शिव जा के ।।
तारे कई, मुझे भी तारो ।
हृदय वेदिका आज पधारो ।।
जयमाला
दोहा
अश्रु-पोंछना जानते,
करुणा दया निधान ।
बाड़ी अतिशय क्षेत्र के,
आदि नाथ भगवान् ।।
बाड़ी वाले बाबा का दरबार ।
खाली झोली भर देता हर बार ।।
जय जय कार…
जय-जय कार…
सम्यक दर्शन दृढ़ निमित्त है ।
कलजुग इक कल्याण मित्र है ।।
करता बेड़ा पार ।
जय जय कार…
जय-जय कार…
पाप पर्वतन वज्र समाना ।
विहर मेघ दुर्मति पवमाना ।।
चूनर टके सितार ।
जय जय कार…
जय-जय कार…
मंशा-पूरण करने वाले ।
संकट मोचन जग रखवाले ।।
सुखद अमंगलहार ।
जय जय कार…
जय-जय कार…
स्वर्ग संपदा दिखलाता है ।
सर्व आपदा विघटाता है ।।
महिमा अपरम्पार ।
जय जय कार…
जय-जय कार…
स्वानुभवन से जोड़े नाता ।
एक प्रदाता, शिव सुख खाता ।।
सहज निराकुल न्यार ।
जय जय कार…
जय-जय कार…
बाड़ी वाले बाबा का दरबार ।
खाली झोली भर देता हर बार ।।
जय जय कार…
जय-जय कार…
दोहा
थान एक विश्वास के,
छाना सकल जहान ।
बाड़ी अतिशय क्षेत्र के,
आदिनाथ भगवान् ।।
चालीसा
जहाँ रात दिन अमन-चैन है ।
नाम जिले का रायसेन है ।।
भारत नाम देश ‘उर’ जैसा ।
अन्तर्गत जो मध्य प्रदेशा ।।1।।
जुड़ बारह नदिंयों की धारा ।
नाम बारगा नदी पुकारा ।।
इसका मिश्री जैसा पानी ।
गौंड़ राज-कुल पुण्य निशानी ।।2।।
सीताफल कुछ हटके चाखा ।
कुछ हटके अमरूद यहाँ का ।।
सभी मंडिंयों की चाँदी है ।
जीने की शैली सादी है ।।3।।
जीमें मोटा, मोटा पहनें ।
गहना लाज राखतीं बहनें ।।
नख-शिख अपना ढ़क के रखतीं ।
कभी न मिलती चुगली चखतीं ।।4।।
झट देखें निशि सपने प्यारे ।
उठ बैठें, तमचूर पुकारे ।।
धर्म, इन्हें पग-पहले दिखता ।
कदम-कदम इतिहास विरचता ।।5।।
भोले-सीधे-साधे बच्चे ।
मुनि-मन माफिक मन के सच्चे ।।
हवा पश्चिमी इन्हें न छूती ।
मानवता पुश्तैन अनूठी ।।6।।
मर्यादा में रह नर नारी ।
नाम करे सार्थक सा बाड़ी ।।
बाड़ी-कला नाम है पूरा ।
चुनो, पूरने स्वप्न अधूरा ।।7।।
याद शब्द-मर्याद दिलाता ।
रखनी मरने तक मर-यादा ।।
भागो ‘भाग’ शब्द खुद कहता ।
सहजो सार्थक नाम सफ’लता ।।8।।
मार्ग जहाँ तक कदम बढ़ाना ।
काल-द्रव्य निष्क्रीय सुना ‘ना’ ।।
काल भरोसे बैठे, हारे ।
मोक्ष पधारे मित्र हमारे ।।9।।
द्वार मुक्ति का खुला न माना ।
पर क्या भला नरक में जाना ।।
ताप धूप क्यूँ राह निरखनी ।
खड़े लिये तरु छाया अपनी ।।10।।
खुशबू फूल दूर तक आती ।
चालो राह जहाँ तक जाती ।।
साहस बेल अहो ! क्या कहना ।
छुये फॉंद-दीवालें गगना ।।11।।
यही कह रही बाड़ी हम से ।
दूर नहीं बढ़बारी हम से ।।
लाठी वहीं टिकाओ आओ ।
तिमिर भगाने ज्योत जगाओ ।।12।।
बाड़ी अतिशय क्षेत्र पुराना ।
दर्श मात्र पा यश मनमाना ।।
अति पश्चात् अखर पलटाये ।
अतिशय शब्द स्वयं बतलाये ।।13।।
शिव, यह सत्य, यही सुन्दर है ।
परले पार जैन मन्दर है ।।
पड़े दूर तक सेतु बताते ।
बढ़-चढ़ाव चढ़ जब थक जाते ।।14।।
गगन चूमता, धकन मिटाता ।
बड़ी दूर से शिखर दिखाता ।।
लहराये पंचरंग हवा में ।
लगा दण्ड सोने का जामें ।।15।।
कीरत गान सुनाता ‘भी’ के ।
आप आप सा गुम्बद दीखे ।।
माहन मान बढ़ाने वाला ।
पाहन मानस्तम्भ निराला ।।16।।
विनत खड़े राजे महराजे ।
दिशा-दिशा जिन राज विराजे ।।
बड़ी अनूठी है नक्काशी ।
छकें न अँखिंयाँ रहती प्यासीं ।।17।।
चौखट छुई, भक्ति में डूबे ।
चौपट हुए, पाप मनसूबे ।।
सभी वेदिंयाँ मानो तारे ।
बीच विराजे तारण हारे ।।18।।
‘विक्रम संवत् आठ, तभी से ।
उतर आसमाँ, जुड़े जमीं से ।।
रानि देवि आकल्य विशेषा ।
कृतिक विक्रमादित्य नरेशा ।।19।।
बाड़ी वाले यह बाबा हैं ।
जैनों के काशी काबा हैं ।।
मुद्रा दैगम्बर अविकारी ।
मूरतिया अतिशय मनहारी ।।20।।
मुखड़ा मात चाँद को देता ।
आके तभी नखों में बैठा ।।
काँधे तलक झूलने वालीं ।
कालीं कालीं लट घुँघरालीं ।।21।।
लगे देख तेजस्वी माथा ।
जुड़ा दूसरे सूरज नाता ।।
निरख, धनुष ने बगलें झाकीं ।
कुछ-कुछ भ्रूएँ अनूठी बाकीं ।।22।।
देख पीर-पर सीलीं सीलीं ।
झील सरीखीं, आँखें नीलीं ।।
देख आप नासा क्या आया ।
चम्पक नाम पुष्प शरमाया ।।23।।
सुर-नर-नाग न अन्य किसी के ।
ऐसे होंठ बिम्ब फल फीके ।।
आ काँधों तक नर्तन करते ।
कर्ण लोल तब कुछ हट फबते ।।24।।
ग्रीवा शंखावर्तों वाली ।
चित्त चुराये चिबुक निराली ।।
ककुद भाँत काँधे उतुंग हैं ।
आप सरीखे अंग अंग हैं ।।25।।
उपमा परिकर करता झूठा ।
उर संस्थल श्री वत्स अनूठा ।।
चरण विराजा नन्दी राजा ।
दूर सुन पड़े घण्टा बाजा ।।26।।
भाग अशोक वृक्ष के जागे ।
पाँव थमे प्रभु बढ़े न आगे ।।
नाव लगाव न सिंहासन से ।
अधर विराजे पद्मासन से ।।27।।
भले प्रताप, न आतप थोड़ा ।
भा-मण्डल शशि दूजा जोड़ा ।।
ढुरते चौंषठ चॅंवर न कमती ।
झालर छतर मोति अनगिनती ॥28।।
उतरा जमीं सम-शरण लागे ।
कर दर्शन मिथ्यातम भागे ।।
दी प्रदक्षिणा तीन जिन्होंने ।
फेरे किये विलीन उन्होंने ।।29।।
जिनने आके छतर चढ़ाया ।
ऊपर अपने छतर लगाया ।।
चँवर ढुराये जिनने आके ।
लीन निजात्म अमर पद पाके ।।30।।
आ सुबहो जो ढ़ारे कलशा ।
उत्सव रोज मनाये जलसा ।।
दृग् ललाट गंधोदक धारे ।
जनम, जरा, यम रोग निवारे ।।31।।
पूजन अष्ट द्रव्य से करता ।
सहसा अष्ट कर्म अपहरता ।।
करे आरती दिया सजा के ।
विघटे दुख आरत झट ताके ।।32।।
मंगल अष्ट द्रव्य जो भेंटे ।
कष्ट अमंगल अरिष्ट मेंटे ।।
बाबा बड़े दयाल सुना है ।
निहाल, जिसने उन्हें चुना है ।।33।।
माघ बदी तेरस दिन देखा ।
मेला बार्षिक भरे अनोखा ।।
मस्ती में भवि कौन न झूमे ।
गलि-चौबारे विमान घूमे ।।34।।
सूरि मदन कीरत मुनिराया ।
संसंघ जीर्णोद्धार कराया ।।
पानी भाँत बहा धन राशी ।
सन् ईसा बारह इक्यासी ।।35।।
अपरम्पार जिनागम महिमा ।
प्रथम सदी की भी है प्रतिमा ।।
गाती सन्तन आत्म कहानी ।
गुफा एक नजदीक पुरानी ।।36।।
किला गौंड राजाओं का है ।
आश्रम बाल-गुपाल खुला है ।।
हो भद-भद कर पानी गिरना ।
सार्थक नाम भदभदा झिरना ।।37।।
खड़ा लिये चारित्र पताका ।
कीर्ति तंभ छोटे बाबा का ।।
सन् उनीस-पिचानवे ईसा ।
आये विद्या सिन्धु मुनीशा ।।38।।
गद-गद देख धरोहर जैना ।
बहते गंगा-जमुना नैना ।।
मदन ब्रह्मचारी ‘भागीरथ’ ।
यहाँ साधनारत बन एलक ।।39।।
कहूँ कहाँ तक अन्त न आता ।
गणना-तारक कर पछताता ।।
मुझे मौन अब शरण सहाई ।
लिये आश वधु मुक्ति सगाई ।।40।।
दोहा
सहज निराकुल लो बना,
अपने जैसा एक ।
ओ बाड़ी बाबा बड़े,
विनय यही सिर टेक ।।
आरती
माँ मरु देवि लाल की
नाभि बाल-गुपाल की
आरती उतारूॅं ‘रे
मैं तो आरती उतारूँ ‘रे
आदि युग प्रधान की
आन बान और शान की
बाड़ी के भगवान् की
गर्भ समय की आरति पहली ।
बरसी रत्न-राश नभ विरली ।।
जन्म समय आरति दूजी ।
नाभि महल किलकारी गूँजी ।।
त्याग समय की आरति तीजी ।
चाले वन, दृग् जन-जन भींजी ।।
ज्ञान समय की आरति चौथी ।
साधा एक सधी सब पोथी ।।
मोक्ष समय की आरति बाकी ।
निज-घर लगे साँझ, पत-राखी ।।
माँ मरु देवि लाल की
नाभि बाल-गुपाल की
आरती उतारूॅं ‘रे
मैं तो आरती उतारूँ ‘रे
आदि युग प्रधान की
आन बान और शान की
बाड़ी के भगवान् की
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