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ध्यान संधान गीता

ध्यान संधान गीता-; 11से20

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

(११)
एक है, एक है, एक है ।
आत्मानुभूति कहो ।
या ज्ञानानुभूति अहो ! ।।
एक है, एक है, एक है ।

ज्ञान-घन , ज्ञान-घन, ज्ञान-घन ।
देखना हमें
बैठ के अपनी ही आत्मा में
अपना ही आत्मा प्रत्येक क्षण ।
देखना हमें
ज्ञान-घन, ज्ञान-घन, ज्ञान-घन ।।
एक है, एक है, एक है ।
आत्मानुभूति कहो ।
या ज्ञानानुभूति अहो ! ।।
एक है, एक है, एक है ।

वाक्-तन, वाक्-तन, वाक्-तन ।
करके एकाग्र, और अपना ये मन ।।
देखना हमें
बैठ के अपनी ही आत्मा में
अपना ही आत्मा प्रत्येक क्षण ।
देखना हमें
ज्ञान-घन, ज्ञान-घन, ज्ञान-घन ।।
एक है, एक है, एक है ।
आत्मानुभूति कहो ।
या ज्ञानानुभूति अहो ! ।।
एक है, एक है, एक है

(१२)
गुड़ में यथा सहज मिठास ।
वह चैतन्य दिव्य प्रकाश ।।
मुझमें सदा लहराई ।
हा ! अनभिज्ञ मैं भाई ।।

सत् जो ज्ञेय भिन्न अखण्ड ।
जानन मात्र चित् घन-पिण्ड ।।
पाने छुओ गहराई ।
मुझमें सदा लहराई ।
हा ! अनभिज्ञ मैं भाई ।।

आकुलता न नाम निशान ।
इक आनन्द आप समान ।।
बस लो लगन प्रगटाई ।
पाने छुओ गहराई ।
मुझमें सदा लहराई ।
हा ! अनभिज्ञ मैं भाई ।।

रखना सहजता बस मीत |
प्राणी मात्र निस्पृह प्रीत ।।
अर लो आत्म झलकाई ।
बस लो लगन प्रगटाई ।
पाने छुओ गहराई ।
मुझमें सदा लहराई ।
हा ! अनभिज्ञ मैं भाई ।।

गुड़ में यथा सहज मिठास ।
वह चैतन्य दिव्य प्रकाश ।।
मुझमें सदा लहराई ।
हा ! अनभिज्ञ मैं भाई ।।

(१३)
खोकर साध्य साधक भाव ।
ज्ञायक एक शुद्ध, स्वभाव ।।
साधो ! डूब अब गहरी ।
छेड़ो आत्म सुर लहरी ।।

कहके शुभ प्रवृत्त अमोल ।
काया बना लो मत दोल ।।
कछुआ शत्रु भू सगरी ।
साधो ! डूब अब गहरी ।
छेड़ो आत्म सुर लहरी ।।

मुख से निकालो मत बोल ।
हित मित भले मिसरी घोल ।।
कोयलिया गई पकरी ।।
साधो ! डूब अब गहरी ।
छेड़ो आत्म सुर लहरी ।।

घूमे बैल कोल्हू गोल ।
नाहक मन हिरण मत डोल ।।
अध्यातम गली सकरी ।
साधो ! डूब अब गहरी ।
छेड़ो आत्म सुर लहरी ।।

खोकर साध्य साधक भाव ।
ज्ञायक एक शुद्ध, स्वभाव ।।
साधो ! डूब अब गहरी ।
छेड़ो आत्म सुर लहरी ।।

(१४)
आत्मा ही आत्मा ।
आत्मा ही आत्मा ।
और क्या ? और क्या ?
सिवाय एक आत्मा ।।
आत्मा ही आत्मा ।
आत्मा ही आत्मा ।

है ही ऐसा शुद्ध नय ।
है ही ऐसा शुद्ध नय ।
मोहा, कोहा रीता ।
रागा, द्वेषा वीता ।।
है ही ऐसा शुद्ध नय ।

न दर्शन ही आत्मा ।
आचरण भी आत्मा ।।
आत्मा ही आत्मा ।
आत्मा ही आत्मा ।
और क्या ? और क्या ?
सिवाय एक आत्मा ।।
आत्मा ही आत्मा ।
आत्मा ही आत्मा ।

है ही ऐसा शुद्ध नय ।
है ही ऐसा शुद्ध नय ।
मोहा, कोहा रीता ।
रागा, द्वेषा वीता ।।
है ही ऐसा शुद्ध नय ।

ज्ञान और आत्मा ।
और गात एक जाँ ।।
दर्शन ही आत्मा ।
आचरण भी आत्मा ।।
आत्मा ही आत्मा ।
आत्मा ही आत्मा ।
और क्या ? और क्या ?
सिवाय एक आत्मा ।।
आत्मा ही आत्मा ।
आत्मा ही आत्मा ।

(१५)
जानन जानन, जानन जानन ।
जानन-जानन, जानन मैं ।।
क्यूँ बेचूँ स्वाभिमान ।
जाने क्यूँ रखूँ गुमान ।।
हाय ! रक्खा ही क्या ?
इन बेछोर बातन में ।
जानन-जानन, जानन मैं ।।

क्यूँ रॅंग लाऊॅं जेब ।
जाने क्यूँ रचूँ फरेब ।।
हाय ! रक्खा की क्या ?
इन मृग दौड़ बातन में ।
जानन-जानन, जानन मैं ।।

क्यूँ दिखलाऊॅं आंख ।
जाने क्यों तकूँ सुराख ।।
हाय ! रक्खा ही क्या ?
इन बद-खोर बातन में ।
जानन-जानन, जानन मैं ।।
जानन जानन, जानन जानन ।
जानन-जानन, जानन मैं ।।

(१६)
जाननहार, जाननहार ।
मैं बस जाननहार ।।
मुझमें नाहिं विकार ।
चिच्-चैतन्य चमत्कार ।
मैं बस जाननहार ।।

बढ़ा सिर्फ संसार ।
बनकर के कर्तार ।।
बनकर के कर्तार ।
हिस्से आई हार ।।
जाननहार, जाननहार ।
मैं बस जाननहार ।।

दिया प्रशय ममकार ।
नामे भेड़ कतार ।।
नामे भेड़ कतार ।
क्यूॅं न भरूॅं दहाड़ ।।
जाननहार, जाननहार ।
मैं बस जाननहार ।।

चढ़ना खड़ा पहाड़ ।
क्यूँ रखना सर भार ।।
क्यूँ रखना सर भार ।
मुक्ति रमा भर्तार !।।
जाननहार, जाननहार ।
मैं बस जाननहार ।।

(१७)
जाननहारा, जाननहारा, जाननहारा हूँ
बस और बस मैं जाननहारा हूँ ।।

न गोरा हूँ, न काला हूँ ।
न छोरा हूँ, न बाला हूँ ।।
बस और बस मैं जाननहारा हूँ ।।

न दुबला हूँ, न मोटा हूँ ।
न लम्बा हूँ, न नाटा हूँ ।।
बस और बस मैं जाननहारा हूँ ।।

न पोचा हूँ, न पहुँचा हूँ ।
न वृद्धा हूँ, न बच्चा हूँ ।।
बस और बस मैं जाननहारा हूँ ।।
जाननहारा, जाननहारा, जाननहारा हूँ
बस और बस मैं जाननहारा हूँ ।।

(१८)
न आस-पास यहीं
मेरा यह अपना मन
हो भले जहाँ कहीं
सब काम छोड़ के
आ जाता है दौड़ के ।
सुनते ही मेरी आवाज
है मुझे इस अपने मन पे नाज ।

मेरा मन बड़ा अच्छा है ।
हाँ ! हाँ ! ! दिल का सच्चा है ।
अपनी बात का पक्का है ।
मेरा मन बड़ा अच्छा है ।।

न, ना, न खोटा नहीं ।
न, ना, न खट्टा नहीं ।
हाँ ! हाँ ! ! खट्टा-मिठ्ठा है ।
मेरा मन बड़ा अच्छा है ।।

न आस-पास यहीं
मेरा यह अपना मन
हो भले जहाँ कहीं
सब काम छोड़ के
आ जाता है दौड़ के ।
सुनते ही मेरी आवाज
है मुझे इस अपने मन पे नाज ।

(१९)
बाहर है क्या अपना
अपना सब कुछ भीतर है
बाहर कुछ ना अपना

बाहर क्या सिवाय जादू-टोना ।
धन, यौवन, आयु इसे इक दिन खोना ।।
बाहर कुछ ना अपना

बाहर क्या सिवाय नजर बंदी ।
मोह से आँखें न किसकी अंधी ।
बाहर कुछ ना अपना

बाहर क्या सिवाय तेरा मेरा ।
छुप रह चले दीया तले अंधेरा ।।
बाहर कुछ ना अपना
बाहर है क्या अपना
अपना सब कुछ भीतर है
बाहर कुछ ना अपना

(२०)
चलो चलो, चलो चलो,
चलो चलो, भीतर चलें
भूल भुलैय्या से बाहर निकलें
चलो चलो, चलो चलो,
चलो चलो, भीतर चलें

दीया तले,
अंधेरा पले
बाहर काला जादू चले
न सिर्फ मनचले,
बाहर हैं लोग दोगले
भूल भुलैय्या से बाहर निकलें
चलो चलो, चलो चलो,
चलो चलो, भीतर चलें

साबुत निगले
माँ ना…गिन बने बच ले
दीया तले,
अंधेरा पले
बाहर काला जादू चले
भूल भुलैय्या से बाहर निकलें
चलो चलो, चलो चलो,
चलो चलो, भीतर चलें

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