परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 100
पर हित एक साधना,
जिनका काम है ।
छुपा भले नामों में,
जिनका नाम है ॥
रहे दूसरी कक्षा के,
पढ़ने वाले ।
श्री गुरु विद्या सागर तिन्हें ,
प्रणाम है ।।स्थापना।।
पता न दूर अभी भी,
कितना ग्राम है ।
हाथ थाम लो,
होने वाली शाम है ॥
नहीं पास कुछ और,
अश्रु जल लिये खड़ा ।
दुख थाती माटी,
दो कृपया बना घड़ा ।।जल॑।।
श्याम पा गई मीरा,
शबरी राम को ।
स्वाम न आये तुम,
होने को शाम लो ॥
नहीं पास कुछ और,
हाथ सिरी-फल बना |
खड़े, वंश से, कर वंशी लो,
महामना ।।चन्दनं।।
दुख न रवि से देखा गया,
सरोज का ।
रूठा मेरा चाँद अभी भी,
दोज का ॥
नहीं पास कुछ और,
श्वास आती जाती ।
खाली सीप, समीप करो,
बिन्दु स्वाती ।।अक्षतं।।
सिन्धु इन्दु मिलने,
आ जाता रोज ही ।
उठा रही दृग् हा ! मेरी,
चिर बोझ ही ॥
नहीं पास कुछ और,
अदब ‘कर’ कर आया |
पाहन अनगढ़ दो गढ़ ,
खुद-सी प्रति छाया ।।पुष्पं।।
तप्त धरा, घन सावन,
चौसठ धार दे ।
कभी आप भी दें दस्तक ,
आ द्वार पे ॥
नहीं पास कुछ और,
लिये विश्वास खड़ा ।
अन्ध उपल हूँ सोने सा,
दो बना खरा।।नैवेद्यं।।
देने घड़ी मुस्कान चले,
आते काँटे ।
खा मति जग-उलाहने रूप,
रही चाँटे ॥
नहीं पास कुछ और,
लिये भक्ति खाली |
बदल दीवाली में जाये,
चिर कंगाली।।दीप॑।।
रितु जा-जा क्या, रही आ नहीं,
देख लो ।
उठा नजर इक बार ही सही,
देख लो ॥
नहीं पास कुछ और,
लिये आ गया दया ।
गन्दला मेरा कपड़ा दो कर,
नया-नया ।।धूप॑।।
सही गई ना चाँद,
कुमुदिनी पीर है ।
रोम रोम मेरा तुम बिना,
अधीर है ॥
नहीं पास कुछ और,
बटोरा पुण्य यही ।
भ्रमी भूमियाँ सप्त सभी दो,
अन्त मही ।।फल॑।।
छू हो बीज, चला छूने वो,
गगन अहो ।
कब होगा घर मेरे,
तुम आगमन कहो ॥
नहीं पास कुछ और,
लिये गद-गद हियरा ।
काग-कोयले सा उर, कर दो,
पिक-हीरा ।।अर्घ्यं।।
“दोहा”
है पहले जैसी जिन्हें,
अनुशासन से प्रीत ।
जिन शासन सिर-मौर वे,
नमन तिन्हें अगणीत ॥
“जयमाला”
बात कर नभ से रहे,
गुरु बागवाँ करुणा तुम्हारी ।
प्रार्थना शिव तलक नहिं,
छूटे कभी शरणा तुम्हारी ॥
तुम्हीं ने तो उर्वरा, मिट्टी में ला,
मुझको रखा है ।
खाद-पानी दे, उछाला आसमाँ,
बन के सखा है ॥
घटा छाई, हवा आई,
ग्रीष्म ज्वाला, पड़ा पाला ।
वक्त पे आ, छाँव-आँचल से,
मुझे अपनी ढ़का है ॥
रखी निगरानी मिरी यूँ ,
दी मुझे मुस्कान खासी ।
चुकाऊँगा कर्ज तो पड़,
जायेगी कम उम्र सारी ॥
बात कर नभ से रहे,
गुरु बागवाँ करुणा तुम्हारी ॥
ठोकरें खा रहा था हा !
पड़ा था बन भार धरती ।
हो गया धन ! कार्य-शाला,
आप जो हो गया भरती ॥
हन्त ! था अनगढ़,गढ़ा है,
आपने निज समय देके,
देख दुनिया जो मुझे,इक और,
पाने झलक मरती ॥
आपका ही श्रम, उभर जो,
जिन्दगी में रंग आये |
स्वार्थ की नहिं गंध फिर भी,
जयतु जय अनियत-विहारी ॥
बात कर नभ से रहे,
गुरु बागवाँ करुणा तुम्हारी ॥
था न ज्यादा कीमती,
बिक रहा था दो चार पैसे ।
अब तलक नहीं ज्ञात,
पड़ तुम हाथ में,मैं गया कैसे ॥
काँच से कर खूब मेहनत,
किया जो दर्पण मुझे है ।
सुखी कितना कह न पाता,
स्वाद गुड़ का मूक जैसे ॥
सभी घुटने बल चलाते,
अनुचरों को मगर तुमने ।
खड़ा करने उन्हें, अपने पैर,
बाहें निज पसारी ॥
बात कर नभ से रहे ,
गुरु बागवाँ करुणा तुम्हारी ॥
“दोहा”
गुरुवर का गुण गावना,
नहिं साधारण बात ।
तारक-गण-गणना कहो,
लग पाई किन हाथ ॥
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