परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 96
बिन तुम्हारे मैं कुछ भी नहीं हूॅं ।
हो सहारे ।
तुम हमारे ।।
बिन तुम्हारे मैं कुछ भी नहीं हूॅं ।।स्थापना।।
भले न आये वीर भोर पर,
चन्दन-बाला घर आये ।
राह निरखते नयन थक चले,
किन्तु न तुम दर्शन पाये ॥
कर लेता दर्शन जरूर मैं,
हर निशि तेरा सपनों में ।
दो आशीष आ सकूॅं अबकी,
मैं भी तेरे अपना में ।। जलं।।
मीरा के प्रभु सुनते पल पल,
रूप दिखाते थे आके ।
मैं चातक प्यासा हूॅं अब भी,
रिक्ष-स्वाति भी मुँह बा के ।।
मेरे तो अपने तुम ही हो,
तुम मानो या ना मानो ।
तुम्हें पिछानूॅं अन्धर मैं भी,
तुम न भले मुझको जानो ।।चंदन।।
सबरी के आ गये राम लो,
उपनय भटक-भटक वन में ।
रखना होगा,धीरज कितना,
मुझे और अपने मन में ॥
और अधिक ना देर लगाओ,
वरना,रो दूँगा स्वामी ।
दफा एक बतला दो,आ के,
रही हमारी क्या खामी ।।अक्षतम्।।
हुआ शुरू ही भक्तामर लो,
मुख प्रसाद छाया पल में ।
तुम्हें बुलाऊँ,सिर्फ दिलासा,
दे देते आता कल मैं ॥
कल नहिं आया जाने के दिन,
मेरे ही नजदीक हुये ।
तुम्हीं बताओ मछली कितनी,
जी सकती बिन नीर छुये ।।पुष्पं।।
देखो देने पंकज जीवन,
सूरज निकला करता है ।
नभ आँगन शशि हेत कुमुदिनी,
झट अपने पग धरता है ।
हुये स्वार्थी इतने कब से,
जो ना लो सुध-बुध मेरी ।
आ जाओ,आ भी जाओ अब,
सुनो,न करो और देरी ।।नैवेद्यं।।
देख धरा की पीड़ा देखो,
मेघ सजल नच उठते हैं ।
देख पीर पतझड़ बसन्त दृग्,
सावन भातॅं बरसते हैं ॥
क्यों रूठे हों क्या हम तुम ना,
जान एक तन दो जग में ।
क्या मिल जायेगा दो बतला,
रोते छोड़ हमें मग में ।।दीपं ।।
बागवान कैसा ? ना समझे,
जो फूलों की पीड़ा को ।
माझी कैसा देख-देख मुख,
ले उत्तारण बीड़ा जो ॥
सिर्फ सुगढ़ पत्थर में ही कब,
मूर्तिकार मूरत देखे ।
भले प्रभो ! हम अनगढ़ हैं पर,
देखो पल आश्रय देके ।।धूपं।।
त्रिभुवन वो तरु मिलना मुश्किल,
जो बेलि को ठुकराये ।
दीपक से ही नेह तभी तो,
शलभ न उस बिन रह पाये ॥
उतना तुमसे नेह रखूॅं मैं,
जितना रत्नाकर शशि से ।
धनि धन से,कृतिकार कृती से,
जल से झष,लेखनि मसि से ।।फलं।।
मैं तो खुली किताब सरीखा,
आप प्रमाण रहे इसमें ।
अपनों में,गैरों में,जिसमें,
रखना हो रख लो उसमें ।।
मगर श्वास इस तन में जब तक,
गीत तुम्हारे गाऊँगा ।
रूठ सकी माँ शिशु से कब तक,
निश्चित तुम्हें रिझाऊँगा ।।अर्घं।।
“दोहा”
तुमसे दिन शुरुआत है,
तुमसे मेरी शाम ।
वो पल अन्तिम,लूँ नहीं,
जिस पल तेरा नाम ॥
॥ जयमाला ॥
गगन चाँद इक पास तिरे,
इक मेरे भी नजदीक है ।
रात निकलता चाँद तिरा,
मेरा निकले निशिदीस है ॥
चाँद तिरा कालिख वाला,
मालूम नहीं किसको जग में ।
जगत् कौन वो मिरे चाँद के,
जो है रत निन्दा मग में ।।
तिरे चॉंद का स्वभाव ही है ,
जग जाने घटना-बढ़ना ।
मिरा चाँद चारित्र हिमालय,
कब आया उसको गिरना ॥
भले मुकुदिनी तिरे चाँद को,
निरख-निरख मुस्काती है ।
चाँद मिरा क्या आँख उठाये,
जगती हँसती गाती है ॥
राहु की मॅंडराती रहती,
तिरे चाँद सिर पे छाया ।
नव-ग्रह में से मिरे चाँद को,
कहाँ कोई भी छू पाया ॥
सागर भले उमड़ता है लख,
चाँद तिरा क्या बढ़वारी ।
चाँद मिरा लख व्रत-संयम में,
उमड़े है दुनिया सारी ॥
सभी कलायें तिरे चाँद की,
बच्चे-बच्चे जाने हैं ।
वज्र भेदना मिरे चाँद की,
काव्य कला के गाने हैं ॥
तिरे चाँद का परिकर तो बस,
टिम-टिम,टिम-टिम करता है ।
परिकर मिरे चाँद का,
पर-वादी प्रताप भी हरता है ॥
तिरे चाँद का अहो ! चाँदनी,
साथ निभाती कहाँ सदा ।
धवल कीर्ति कब मिरे चाँद से,
पल भर को भी हुई जुदा ॥
कहूँ कहाँ तक मिरे चाँद का,
त्रिभुवन ना कोई सानी ।
आये बड़े-बड़े अभिमानी,
हुये निरख पानी-पानी ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
दोहा=
पल व्यतीत कर देखिये,
कुछ विद्या-गुरु साथ ।
इन या शशि किससे हुई,
लखिये अमि बरसात ॥
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