- परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 902
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।स्थापना।।
दीखे भव जल तीर
सुमरण हाथ अखीर
बनता हृदय गभीर
क्यों न भेंटूँ गंगा नीर
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।जलं।।
गम दोखे यम-दोर
अँखिंयाँ नम बेजोर
पग मंजिल बिन शोर
क्यों न भेंटूँ चन्दन घोर
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।चन्दनं।।
भीतर ठण्डक हाथ
दो दिन बिच इक रात
घनी छाहरी पाथ
क्यों न भेंटूँ धान परात
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।अक्षतं।।
देते दिली सुकून
अंक यही, जग शून
कलजुग मन्सा-पून
क्यों न भेंटूँ दिव्य प्रसून
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।पुष्पं।।
मुँह-माँगा वरदान
जीवन नव निर्माण
पाछी हवा समान
क्यों न भेंटूँ घृत पकवान
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।नैवेद्यं।।
मोती वाली सीप
नींव निराली चीप
गहरी डूब समीप
क्यों न भेंटूँ अनबुझ दीप
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।दीपं।।
विद विच चिन-मृण संध
पूर्ण गर्भ अनुबंध
स्वर्ग मोक्ष संबंध
क्यों न भेंटूँ नन्द सुगन्ध
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।धूपं।।
टूक-टूक भ्रम जाल
पाप पुञ्ज प्रक्षाल
नव के निकले काल
क्यों न भेंटूँ श्रीफल थाल
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।फलं।।
चीज पराई धूल
निधि निज हाथ अमूल
वाहु तैर भव कूल
क्यों न भेंटूँ जल-फल-फूल
अमृत मिसरी घोल
बड़े अनमोल
गुरु-मुख झिरते बोल ।।अर्घ्यं।।
=हाईकू=
आगे श्री गुरु चले,
‘के काँटें चुभें मुझे पहले
जयमाला
सीप जगमगाती मोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
उजला-उजला अन्तरंग है
एक न उठती मन तरंग है
परिणत अब न काग धोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
सीप जगमगाती मोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
एक अलग सी ठण्डक मन में
सहज निराकुल दण्डक वन में
रह पाना, न बात छोटी
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
सीप जगमगाती मोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
परहित हुए पनीले नयना
अल, कल-दूत’ रसीले वयना
भार न ‘अव-मत’ सर ढ़ोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
सीप जगमगाती मोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
उजला-उजला अन्तरंग है
एक न उठती मन तरंग है
परिणत अब न काग धोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
सीप जगमगाती मोती
गुरु-वाणी अनबुझ ज्योती
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
=हाईकू=
जो हाथ जोड़े खड़े गुरु के आगे,
वो बड़भागे
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