परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 89
आओ आओ आओ ।
आओ दरश दिखाओ ।।
आश और विश्वास तुम ।
आती जाती श्वास तुम ।।
और न मुझे रुलाओ ।
विद्या गुरुवर आओ
मुझे बना लो अपना,
या मेरे हो जाओ
आओ आओ आओ ।। स्थापना ।।
शुचि जल भी पास न मेरे ।
बस अश्रु पास घनेरे ।।
प्रक्षालूँ तुमरे चरणा ।
झट मेंटो जामन मरणा ।। जलं।।
नहिं चन्दन पास हमारे ।
सन्तुष्टि लाये द्वारे ।।
सर्वस्व यहि स्वीकारो ।
जन्मातप शीघ्र पछारो ।। चंदन ।।
धॉं शालि कहॉं पातर में ।
अवगाहूॅं निज सर-वर में ।।
जग हँसे,भले हँस लेगा ।
आया पद अछत मिलेगा ।। अक्षतम् ।।
दिव पुष्प नहीं चुन पाया ।
नित ब्रह्म-रमण मन भाया ।।
हूँ बालक त्रुटि विसराओ ।
कामानल शीघ्र बुझाओ।।पुष्पं ।।
घृत नेवज बना न पाया ।
भर भक्ति हृदय में आया ।।
नत माथ खड़ा तुम आगे ।
रुज क्षुधा न पीछे लागे।। नैवेद्यं ।।
घृत दीप कहाँ हाथों में ।
बस अनेकान्त बातों में ।।
आया लख तुमको अपना ।
कैवल्य रहे ना सपना।।दीपं ।।
घट धूप कहीं खो चाला ।
अन्तर् बिन तरंग वाला ।।
आया बस लज्जा खो के ।
भव भ्रमूँ न निर्जन रो के ।।धूपं ।।
फल पास बात ये झूठी ।
बस करुणा पास अनूठी ।।
गद-गद उर चरण चढ़ाता ।
शिव फल दीजे जग-त्राता।। फलं ।।
नहिं लिये द्रव्य की थाली ।
मैं तप-व्रत उपवन माली ।।
कृपया न मुझे ठुकराओं ।
मन वसो,चरण निवसाओ।।अर्घं ।।
दोहा-
गुरुवर विद्या सिन्धु का,
जीवन नामनु-रूप ।
मण-मोति ‘कछु-आ’ चुनें,
गुरु भक्ति में डूब ।।
॥ जयमाला ॥
पिता मल्लप्पा दुलारे ।
मात श्री मति प्राण प्यारे ।।
पुण्य-भू सदलगा माटी ।
चॉंद पूनम मिला साथी ॥1॥
लख हॅंसी गुल शर्म खाते ।
मॉं-पिता लख कब अघाते ।।
जगत में करने उजाला ।
चल पड़े ये पाठशाला ॥2॥
दो बहिन ये चार भाई ।
कूट कर करुणा समाई ।।
मिल सभी स्वाध्याय करते ।
सोचते जग क्यों विचरते ॥3॥
घना इतना क्यों अंधेरा ।
कौन हूॅं मैं,कौन मेरा ।।
देशभूषण जी पधारे ।
मिल,इन्होंने पग पखारे ||4||
बन चले ये ब्रह्मचारी ।
बाद प्रतिमा-सप्त धारी ।।
सिन्धु-श्रुत पाने किनारे ।
चल पड़े गुरु-ज्ञान द्वारे ।।5।।
किया फरसी नमन न्यारा ।
ले दृगों में गंग-धारा ।।
नाम विद्याधर पकड़ के ।
कह पड़े गुरुदेव बढ़-के ।।6।।
ले उड़ेगा ज्ञान जो तू ।।
क्या करूँगा वृद्ध जो हूॅं
ज्यों सुना,त्यों हाथ जोड़े ।
कहा,गाड़ी तजे घोड़े ।।7।।
देख दृढ़ता गुरु पसीजे ।
लिया अपना नैन भींजे ।।
शुक्ल पन आषाढ़ आई ।
तब दया गुरु ने दिखाई ।।8।।
धन ! हुई अजमेर नगरी ।
जैन-दीक्षा बॅंधी पगड़ी ॥
नाम विद्या-सिन्धु दीना ।
जय-दिगम्बर घोष कीना ।।9।।
रूप इनका था सलोना ।
निरख चाहे कौन खोना ।।
आई अगहन कृष्ण दोजा ।
ज्ञान गुरु पद लगा बोझा ॥10।।
तब निकट इनको बुला के ।
“दक्षिणा दो” कहा ला के ।।
आप बोलें झुका माथा ।
माँगिये क्या मन मॅंगाता ।।11।।
त्यागना चाहूँ उपाधी |
चाहता मैं अब समाधी ।।
कृश कषायरु काय कीनी ।
स्वैर वृत्ति जीत लीनी ॥12।।
जेठ बदी हा ! अमा आई ।
स्वास्थ्य पे जो कहर ढ़ाई ॥
तब ये सिन्धु ज्ञान भासा ।
अब अधिक न प्राण आशा ।।13।।
कहा विद्या से उन्होंने ।
जा रहा अब तुम्हें खोने ॥
कह रहा कुछ गाँठ बॉंधो ।
सब न सधता एक साँधो ।।14।।
संघ को गुरुकुल बनाना ।
शिष्य फिर,पहले तपाना ॥
तुम वचन न दिया करना ।
दिया प्रवचन जिया करना ।।15।।
तुम न जाना तम भगाने ।
दीप प्रकटाना सयाने ।।
पालकी वे ज्यों पधारे ।
स्वर्ग त्यों सहसा सिधारे ||16।।
निराकुल जो इन्हें लखता ।
साथ इनके वो निवसता ।।
कहे ओ ! मेरे विधाता ।
बनें मम दीक्षा प्रदाता ॥17।।
स्वप्र गुरु इनने सुमर के ।
श्रमण कीने कृपा करके ।।
निरख भक्ति भाव भीनी ।
अर्जिका दीक्षाएँ दीनी ।।18।।
भविक कीने ब्रह्मचारी ।
व्रति किये सम-दृष्टि-धारी ।।
रची इनने मूक-माटी ।
इक अहिंसा धर्म थाती ।।19।।
लसे प्रतिभा स्थली है ।
दयोदय इन दय पली है ॥
नन्त गुण कैसे गिनाऊॅं ।
क्यूॅं न थम मृग भॉंत जाऊॅं ।।20।।
।।जयमाला-पूर्णार्घं।।
।।दोहा।।
भटक रहा संसार में,
रह कर तुमसे दूर ।
आस-पास रख लीजिये,
विद्या सागर सूर ||
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