परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 84
=हाईकू=
हो तुम्हीं मेरे,
न घर आओगे,
तो कौन आयेगा ।।१।।
जिया बगिया है मुरझाई,
कौन महकायेगा ।।२।।
देखो ‘ना’ चाँद आ जाये,
कुमुद के लिये रोजाना ।।३।।
आ जाओ,
मुझ से रखते बनता रोज ‘रोजा’ ना ।।४।।स्थापना।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
दृग् जल चढ़ाऊँ मैं ।
रूठे, मना पाऊँ तुम्हें ।।जलं।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
चन्दन चढ़ाऊँ मैं ।
अपना बना पाऊँ तुम्हें ।।चन्दनं।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
तण्डुल चढ़ाऊँ मैं ।
मन क्या बता पाऊँ तुम्हें ।।अक्षतं।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
प्रसून चढ़ाऊँ मैं ।
पड़गा पुन: पाऊँ तुम्हें ।।पुष्पं।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
नेवज चढ़ाऊँ मैं ।
मन भर जिमा पाऊँ तुम्हें ।।नेवैद्यं।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
दीवा चढ़ाऊँ मैं ।
घर-आँगना पाऊँ तुम्हें ।।दीप॑।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
सुगंध चढ़ाऊँ मैं ।
दुखड़ा सुना पाऊँ तुम्हें ।।धूपं।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
श्री फल चढ़ाऊँ मैं ।
नयना झुला पाऊँ तुम्हें ।।फल॑।।
आ के सपनो में करते हो बात रोज ही ।
हकीकत में भी याद कर लो कभी ।।
द्रव सब चढ़ाऊँ मैं ।
देखूँ जहाँ, पाऊँ तुम्हें ।।अर्घं।।
दोहा
गुरु भक्ति कलि काल में,
मात्र सहारा एक।
आ पल दो पल के लिये,
लेते मथ्था टेक ।।
जयमाला
गुण रत्नाकर ! आत्म ध्येय ! संयत !
जिनके शुभ नाम ।
गुरु विद्या श्री चरणन सविनय,
मेरा नम्र प्रणाम ।।
दया क्षमा समता करुणा,
पाये जिनमें विश्राम ।
सरल सत्य शिव सुन्दर जिन सा,
कहाँ और तिहुधाम ।।
राजहंस अध्यात्म सरोवर !
रसिया आतम राम ।
गुरु विद्या श्री चरणन सविनय,
मेरा नम्र प्रणाम ।।
अनुपम ज्ञान ध्यान महिमा,
मण्डित जिनके वसु याम ।
पलक पाबड़े बिछा राह निरखे,
जिनकी हर ग्राम ।।
प्राणि मात्र पे बिखराते,
अनमोल नेह निर्दाम ।
गुरु विद्या श्री चरणन सविनय,
मेरा नम्र प्रणाम ।।
जिन्हें परेशाँ कर पाये कब,
बारिस सर्दी घाम ।
जो कर्त्तव्य निष्ठ गुरु आज्ञा,
पालन जिनका काम ।
तीर्थोद्धारक सदय हृदय,
कलजुग गैय्यन घनश्याम ।
गुरु विद्या श्री चरणन सविनय,
मेरा नम्र प्रणाम ।।
कहाँ दूसरों पे उड़ेलते,
जो अपना इल्जाम ।
किया करें जो बाद, पूर्व सोचे,
उसका अंजाम ॥
पल प्रत्येक प्रकृति तीर्थंकर,
खचित दिव्य परिणाम ।
गुरु विद्या श्री चरणन सविनय,
मेरा नम्र प्रणाम ।।
जो निरीह ! निष्कम्प ! निरंजन !
निरति-चारि निष्काम ।
सराबोर कब पाप प्रपंचन,
जिनकी सुबहो शाम ।।
कहूँ कहाँ तक गुण अगम्य जो ,
लेता अतः विराम ।
गुरु विद्या श्री चरणन सविनय,
मेरा नम्र प्रणाम !
“दोहा”
सिन्धु-पार बल बाहु से,
हो सकता इक बार ।
किन्तु हस्त गत कब कहाँ,
तुम गुण कीर्तन पार ॥
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