- परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 734
हाईकू
मिलता सुकूँ,
हों रूबरू गुरु,
तो होता दर्द छू ।।स्थापना।।
किसी का छीनते न हक,
सो भेंटूँ उदक ।।जलं।।
तुम करते न अनुबन्धन,
सो भेंटूँ चन्दन ।।चन्दनं।।
तुम न लेते सहारा दीवाल,
सो भेंटूँ धाँ शाल ।।अक्षतं।।
तुम रखते न सिरहाना,
भेंटूँ सो पुष्प नाना ।।पुष्पं।।
तुम लेते न वैशाखी कभी,
भेंटूँ सो नैवेद्य घी ।।नैवेद्यं।।
तुम ढ़ोलते न पानी नाहक,
सो भेंटूँ दीपक ।।दीपं।।
तुम हो जाते उसके अनुरूप,
सो भेंटूँ धूप ।।धूपं।।
तुम दे चुके तिलांजली गहल,
सो भेंटूँ फल ।।फलं।।
तुम चाहते न मोक्ष-सुरग,
सो भेंटूँ अरघ ।।अर्घ्यं।।
हाईकू
धीर हैं,
वीर हैं,
गंभीर हैं,
‘गुरु’ बेनजीर हैं
जयमाला
हैं खड़े दया से सटके ।
गुरु खुद जैसे कुछ हटके ।।
पारस को पड़ता छूना ।
लोहा तब जाकर सोना ।।
गुरु दूर, गुरु का ध्याना,
क्या किया हुआ कल्याणा ।।
गुरु रस पारस से बढ़ के ।
गुरु जश पारस-से बढ़ के ।।१।।
रख लिया नाम क्या होता ।
नीचे कब पनपा पौधा ।।
तुम सत्संगति में आके ।
भूला भी खुश, निधि पाके ।।
बोले न स्वार्थ सिर चढ़ के ।
गुरु वट ‘विरक्ष’ से बढ़ के ।।२।।
बस बारी तीन उछाले ।
फिर, चिर निश्चिंत सुला ले ।।
गुरु क्षमा करें, कह ‘गलती’ ।
अहसान गुरू अनगिनती ।।
कब बढ़े, दोष अर मड़ के ।
गुरु-वर दरिया से बढ़ के ।।
हैं खड़े दया से सटके ।
गुरु खुद जैसे कुछ हटके ।।३।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
हाईकू
गुरु हाजिर जबाबी,
रक्खें हर ताले की चाबी
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