परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रमांक 67
जयतु गौरवम् सदलगा ।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।स्थापना।।
नीर झार हाथ में ।
नीर धार आँख में ।।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।जलं।।
मण सुराही गंध की ।
हाथ राह बंध की ।।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।चन्दनं।।
हाथ थाल शालि-धाँ ।
हा ! कराल कालिमा ।।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।अक्षतं।।
पुष्प थाल स्वर्ग की ।
गंध न अपवर्ग की ।।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।पुष्पं।।
पिटार चरु चारु घी ।
फुर कहीं मराल धी ।।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।नेवैद्यं।।
हाथ दीप मालिका ।
माथ दुख-घना लिखा ।।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।दीप॑।।
दिव्य नव्य धूप है ।
गुम कहीं स्वरूप है ।।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।धूपं।।
परात फल स्वर्ण की ।
पाँत जन्म-मर्ण की ।।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।फल॑।।
अर्घ थाल रूप सी।
धी मडूक कूप सी ॥
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने पीछे लगा ।।
नन्दनम् श्री मन्त माँ ।।
वन्दनम् सुत सिन्ध ज्ञाँ ।
जयतु गौरवम् सदलगा ।
लो हमें अपने रँग में रँगा ।।अर्घं।।
“दोहा”
अलस भाव की मित्रता,
जिन्हें नहीं स्वीकार ।
गुरु विद्या सविनय तिन्हें,
वन्दन बारम्बार ।।
“जयमाला”
कर्णधार गुरु विद्या भव जल,
बीच नाव मेरी ।
तीर लगा दो कृपया विनशा हा,
भव-भव फेरी ॥
जोन कौन सी जिसका नहीं,
दुशाला ओड़ा है ।
नाता कहो ! चतुर्गति में,
किससे ना जोड़ा है ।।
नन्त काल कीना व्यतीत,
मैंने निगोद माहीं ।
थावर पर्यय कौन जिसे,
मैंने पाया नाहीं ।
मुश्किल है विकलत्रय पर्यय,
की गानी गाथा ।
बना असंज्ञी नंत-बार,
दुख कौन वहाँ ना था।।
संज्ञी पर्यायें कुछ कम ना,
आईं हिस्से में ।
सुना रहा प्रभु ! आप बीति,
कहता नहिं किस्से मैं ।।
नरकन दुख बतलाते जिह्वा,
काँपे है स्वामी ।
पशुअन पाये दुख सो तुम,
जानो अन्तर्-यामी ।।
देवों में भी सच्चे सुख की,
मिली कहाँ रेखा ।
नरतन पाया पुनः तदपि निज,
वैभव नहिं देखा ।।
जगह-जगह संज्ञाएँ चारों,
रहीं हहा ! हावी ।
चमत्कार कीजे कर लीजे,
शिव ठाकुर भावी ।।जयमाला पूर्णार्घं।।
“दोहा”
संत सिर्फ ना सोचते,
अपने हित की बात ।
सेवक हूँ, प्रभु आपका,
थाम लीजिये हाथ।
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