- परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 435
हाईकू
है इक-पल न चैन मुझे,
देखे वगैर तुझे ।।स्थापना।।
भेंटूँ दृग्-जल, ए ! भक्त वत्सल,
दृग्-भेंटो सजल ।।जलं।।
भेंटूँ संदल, ए ! भक्त वत्सल,
दो बना सरल ।।चन्दनं।।
भेंटूँ तण्डुल, ए ! भक्त वत्सल,
दो दिला मंजिल ।।अक्षतं।।
भेंटूँ द्यु-गुल, ए ! भक्त वत्सल,
न रहूँ चंचल ।।पुष्पं।।
भेंटूँ क्षुध्-हर, ए ! भक्त वत्सल,
‘दे…खो’ माथे सल ।।नैवेद्यं।।
भेंटूँ ज्योतर, ए ! भक्त वत्सल,
लूँ मेंट गहल ।।दीपं।।
भेंटूँ अगर, ए ! भक्त वत्सल,
‘के चलूँ सँभल ।।धूपं।।
भेंटूँ श्रीफल, ए ! भक्त वत्सल,
के ‘साधूँ’ पहल ।।फलं।।
भेंटूँ सकल, ए ! भक्त वत्सल,
दो सँवार कल ।।अर्घ्यं।।
हाईकू
लागे खुद को मिटाने,
‘मेरे-खुदा’ मुझे बनाने
जयमाला
जिन्होंने विश्वास में
समाया गुरु जी को
अपनी श्वास-श्वास में
उन्होंने पाया सुकून
पा गये अंक, थे अब तक ‘कि शून
उन्होंने पाया सुकून
गूँजे धरती आकाश में
तलक दूर-दूर, न सिर्फ आस-पास में
जिन्होंने विश्वास में
समाया गुरु जी को
अपनी श्वास-श्वास में
पा गये चाँद, वे चौदहवीं का पून
उन्होंने पाया सुकून
पा गये अंक, थे अब तक ‘कि शून
उन्होंने पाया सुकून
गूँजे धरती आकाश में
तलक दूर-दूर, न सिर्फ आस-पास में
जिन्होंने विश्वास में
समाया गुरु जी को
अपनी श्वास-श्वास में
कतार कछुआ आने का
कुछ कर दिखाने का,
पा गये, सहजो निराकुल, वे कुछ हट के जुनून
पा गये चाँद, वे चौदहवीं का पून
उन्होंने पाया सुकून
पा गये अंक, थे अब तक ‘कि शून
उन्होंने पाया सुकून
जिन्होंने विश्वास में
समाया गुरु जी को
अपनी श्वास-श्वास में
उन्होंने पाया सुकून
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
हाईकू
न सिर्फ मुझे,
‘निः स्वार्थ माँ से’
गुरु भासे, न किसे
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