परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 283
हाईकू
आचार्य श्री जी अहो !
बदल मेरी भी
दुनिया दो ।।स्थापना।।
विघटे तम-मातम-गम,
नीर
भेंटते हम ।।जलं।।
विघटे यम-जरा जनम,
गन्ध
भेंटते हम ।।चन्दनं।।
आना-जाना हो जाय खतम,
सुधॉं
भेंटते हम ।।अक्षतं।।
ढ़ाये और न ‘मार’ सितम,
पुष्प
भेंटते हम ।।पुष्पं।।
क्षुधा हो जाये सम पुष्प खम्
चरु
भेंटते हम ।।नैवेद्यं।।
के मरहम, हो मरहम
दीप
भेंटते हम ।।दीपं।।
विघटे भव भव भरम
धूप
भेंटते हम ।।धूपं।।
पर-हित हो सके दृग् नम
फल
भेंटते हम ।।फलं।।
लगे कि हाथ ‘शिव-शरम’
अर्घ्य
भेंटते हम ।।अर्घ्यं।।
हाईकू
‘नन्दन माँ श्री मन्ती,
कर अपनों में लो गिनती’
जयमाला
भींजी-भींजी
दृग् रहतीं मेरी ।
जी शिल्पी जी
एक विनती मेरी ।
गढ़-दो मूरत माहन ।
मैं हूँ अनगढ़ पाहन ।।
बीतें ठोकर खा दिन ।
रीतें सोकर निशि छिन ।
जढ़ दो सितारे दामन ।
मैं हूँ अनगढ़ पाहन ।।
भींजी-भींजी
दृग् रहतीं मेरी ।
जी शिल्पी जी
एक विनती मेरी ।
गढ़-दो मूरत माहन ।
मैं हूँ अनगढ़ पाहन ।।
बाहर ही नहीं कड़ा ।
अन्दर भी कड़ा बड़ा ।।
दो लगा झड़ी सावन ।
मैं हूँ अनगढ़ पाहन ।।
भींजी-भींजी
दृग् रहतीं मेरी ।
जी शिल्पी जी
एक विनती मेरी ।
गढ़-दो मूरत माहन ।
मैं हूँ अनगढ़ पाहन ।।
रहता सहमें सहमें ।
बन भार जमीं पे मैं ।।
दो छुवा गगन-आँगन ।
मैं हूँ अनगढ़ पाहन ।।
भींजी-भींजी
दृग् रहतीं मेरी ।
जी शिल्पी जी
एक विनती मेरी ।
गढ़-दो मूरत माहन ।
मैं हूँ अनगढ़ पाहन ।।
॥ जयमाला पूर्णार्घं ॥
हाईकू
‘अपना कर दो सपना
गुरुजी,
मुझे अपना’
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