परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 233
है भूल भुलैय्या ।
अयि ! मेरे खिवैय्या ।।
दो लगा किनारे ।
मेरी ये नैय्या ।। स्थापना ।।
है लिये नीर हम ।
ले रही पीर दम ।।
ओ ! मेरे रहनुमा ।
दो तीर वह थमा ।। जलं ।।
लाये चंदन हम ।
ले रहे विघन दम ।।
ओ ! मुकति सारथी ।
दो थमा सार-‘धी’ ।। चंदनं ।।
है लिये सुधाँ हम ।
ले रहा कुध्याँ दम ।।
ओ ! समाँ साथिया ।
दो थमा ज्ञाँ दिया ।। अक्षतम् ।।
है लिये सुमन हम ।
ले रहा मदन दम ।।
ओ ! मेरे स्वामी ।
कर लो निष्कामी ।। पुष्पं ।।
लाये चरु घृत हम ।
लेवे-गद-क्षुध दम ।।
ओ ! मेरे बागवाँ ।
लो बना भागवाँ ।। नैवेद्यं ।।
लाये दीपक हम ।
लेवे ‘धी-धिक्’ दम ।।
ओ ! मेरे देवता ।
दे मेरा दें पता ।। दीपं ।।
लाये सुगन्ध हम ।
ले रहा द्वन्द्व दम ।।
ओ ! मेरे माँझी ।
अब मारूँ बाजी ।। धूपं ।।
है लाये फल हम ।
ले रही गहल दम ।।
ओ ! मेरे विधाता ।
दो मेंट असाता ।। फलं ।।
सब लिये दरब हम ।
ले रहे गरब दम ।।
ओ ! तारण-हारे ।
खो दुख दो सारे ।। अर्घं ।।
==दोहा==
जिन्हें पलक भी मिल चली,
गुरु जी की मुस्कान ।।
हुआ सुनिश्चित मानिये ।
उनका अब कल्याण ।।
।। जयमाला ।।
दुनिया की गुरु देते हैं ,
तस्वीर बदल ।
गुरुवर कर देते हैं ,
वक्त अखीर सफल ।।
गुरु के पास सवाली,
खाली आते हैं ।
मनमानी झोली भर-भर,
ले जाते हैं ।।
काली रातों में गुरु बन,
जाते ज्योती ।
राह दिखें क्या काँटे,
ले लेते गोदी ।।
घाम परेशाँ कर नहिं सके ,
गुरु छैय्या ।
दृग् तिरछी लख नचे कर्म,
ता-था थैय्या ।।
दीप बुझाये आंधी ओट,
बनें गुरु जी ।
कुम्भकार बन चुन-चुन खोट,
हनें गुरु जी ।।
गुरु वनमाली भिजा रहे,
आकाश तलक ।
पड़े न कहना, पाते गुरु की ,
काश ! झलक ।।
जग जाहिर गुरु माहिर,
हरने में पीड़ा ।
माँझी गुरु रह दूर ही न,
जाता तीरा ।।
दुनिया की गुरु देते हैं,
तस्वीर बदल ।
गुरुवर कर देते हैं,
वक्त अखीर सफल ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
अक्षर-पद-मात्रादि की,
रही भूल औ’ चूक ।
कृपया वो गुरुदेव जी,
हो जावें दो टूक ।।
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