परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 216
तुम सुन लेते सबकी ।
नैय्या खेते सबकी ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। स्थापना ।।
कलि गोपाला गैय्या ।
नौ बेजुवाँ खिवैय्या ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। जलं ।।
चल चरखा माफिक जी ।
हतकरघा इक माँझी ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। चंदनं ।।
गुम मृग-कस्तूरी हट ।
पूरी मैत्री केवट ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। अक्षतम् ।।
नुशासन तरण तारण ।
प्रशासन शरण शासन ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। पुष्पं ।।
प्रतिभा-थलि खेवटिया ।
प्रतिछा-प्रतिभा बिटिया ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। नैवेद्यं ।।
इक कर्णधार दुखिया ।
भाग्योदय क्या न ‘दिया’ ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। दीपं ।।
मल्लाह नशा बन्दी ।
जिनालय प्रद सुगन्धी ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। धूपं ।।
हिन्दी जुवान तारक ।
इक गुमान संहारक ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। फलं ।।
मुनि-गण खेवन-हारे ।
गुणि-गण-देवन प्यारे ।।
मैं भी मँझधार पड़ा ।
कर दो उस पार खड़ा ।। अर्घं ।।
==दोहा==
सुन, तकलीफों में बड़ी,
दे राहत तुम नाम ।
आया, उलझे-से मेरे,
दो सुलझा कुछ काम ।।
।। जयमाला ।।
।। गुरु मुख से झरे सुधा ।।
थे प्यासे अरसे से ।
पा वर्षा हरषे ये ।।
दुख पतझड़ हुआ बिदा ।
गुरु मुख से झरे सुधा ।।
हा ! हालत थी ऐसी ।
हो पल अब-तब जैसी ।।
मिली राम-बाणे दवा ।
गुरु मुख से झरे सुधा ।।
था डरा मरण से मैं ।
आया सुमरण खेमे ।।
‘कि अनुभवूँ ‘स्वयं भुवा’ ।
गुरु मुख से झरे सुधा ।।
थे प्रश्न बेहिसाब ।
उत्तर भी लाजबाब ।।
जीवन जल बुदबुदा ।
गुरु मुख से झरे सुधा ।।
आनन्द से था रीता ।
तर हुआ घट विनीता ।।
गुम हुआ पन-गुम-शुदा ।
गुरु मुख से झरे सुधा ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
यही विनय है आपसे,
हाथ जोड़ सिर टेक ।
अपने सा कर लीजिये,
अन्दर बाहर एक ।।
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