परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 187
तू ही तुहीं इक निराकुल है ।
मंजिल तुहीं मिरा साहिल है ।।
क्या है नहीं, है तू सब मिरा ।
यहाँ तक कि, है तुहीं शिव मिरा ।। स्थापना।।
भरी जल की लिये गागर हूँ ।
अमर फिर भी बना पामर हूँ ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
शीघ्र सुलझा मिरी उलझन दो ।। जलं ।।
भर घड़े खड़े ले चन्दन से ।
कम न, जकड़े आठ बन्धन से ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
राह दिखला विभव जिन गुण दो ।। चंदनं ।।
अछत से भर ली थालियाँ हैं ।
अकृत ‘कि यूँ मिली गालियाँ हैं ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
सुकृत से भर मिरा जीवन दो ।। अक्षतम् ।।
पुष्प लाया हूँ सुगंधित मैं ।
किस पाप से न अभिनन्दित मैं ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
सुमन सा बना मेरा मन दो ।। पुष्पं ।।
लिये पकवाँ मैं घृत से बने ।
आशा अभी भी दिवाली मने ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
हाथ मेरे लगा भी सपन दो ।। नैवेद्यं ।।
घृत अठ पहरी लिये हूँ ‘दिया’ ।
बना मिथ्यात्व हहा साथिया ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
खोल कृपया तीजा नयन दो ।। दीपं ।।
खास कुछ धूप लिये हाथ में ।
आश शिव भूप लिये साथ में ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
लगा हाथ में गुण सज्जन दो ।। धूपं ।।
ऋतु फल से भर ली परात है ।
छाई किलकिल रूप रात है ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
विघटा निशि, ला प्रशमन दिन दो ।।फलं ।।
दरब एक न लाये सब हैं ।
गरब एक न भाये सब हैं ।।
सिन्धु विद्या मिरे भगवन् ओ ।
मद करा मर्दित ‘वसु-मदन’ दो ।। अर्घं ।।
-दोहा-
किसी वृक्ष की न रही,
जैसी गुरु की छाँह ।
नहीं एक, हर एक को,
दे जो रही पनाह ।।
॥ जयमाला ॥
जय हो-जय हो,
विद्या सिन्धु अहो !
जय हो-जय हो
नेक सवालों का जबाव इक,
लाजबाब देते ।
देखा देर, न मिले सलंगर,
कभी नाव खेते ।।
जय हो-जय हो,
विद्या सिन्धु अहो !
जय हो-जय हो ।।
मान क्षुधा को रोग औषधी,
भले खिलाते हैं ।
पे हरगिज न जिह्वा की,
बातों में आते हैं ।।
जय हो-जय हो,
विद्या सिन्धु अहो !
जय हो-जय हो ।।
कभी न पल सामायिक ने,
मुख इंतजार देखा ।
भाये कब उलाँघनी आगम,
समय लखन रेखा।।
जय हो-जय हो,
विद्या सिन्धु अहो !
जय हो-जय हो ।।
निंदिया को ये कभी न,
आमन्त्रण देने जाते ।
स्वयं धूप खा बने हुये हैं,
वृक्षों से ‘छाते’ ।।
जय हो-जय हो,
विद्या सिन्धु अहो !
जय हो-जय हो ।।
शब्द सुदूर अखर हर,
श्रुत कर आह्लादित देता ।
दिन भर में क्षण किस बन पाये,
‘अलस-भाव’ नेता ।
जय हो-जय हो,
विद्या सिन्धु अहो !
जय हो-जय हो ।।
नारिकेल, हित आप,
दूसरों को लौनी जैसे ।
गुण दशेक तो कहूँ,
नेक गुण दूँ कह मैं कैसे ।।
जय हो-जय हो
विद्या सिन्धु अहो !
जय हो-जय हो ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
-दोहा-
चाह रही मेरी यही,
श्रमणन शाहन शाह ।
कर आसाँ सी दीजिये,
मेरी भी शिव राह ॥
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