परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 182
निराकुल निरुपम ।
तम-विहर, हर-गम ।।
सुत वे गुरु ज्ञान ।
दें अदम भर दम ।। स्थापना।।
‘जि-लाय’ नीर हम ।
सताय पीर गम ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
हर लो हर सितम ।। जलं ।।
‘जि लाय गंध कण ।
भाय स्वच्छंद पन ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
हर लो द्वन्द मन ।। चंदनं ।।
जि लाय शालि धाँ ।
लुभाय कालिमा ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
हर लो कालि ऽमाँ ।। अक्षतम् ।।
‘कि लाय फूल ‘जी’ ।
न गिनाय भूल की ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
दो पद-धूल ही ।। पुष्पं ।।
लाय बहु पकवाँ ।
हाय ! बहु शकवाँ ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
न रहूँ धिक् वाँ ।। नैवेद्यं ।।
घृत लाय दीवा ।
कुप् आय ऽतीवा ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
दो बना धी वाँ ।। दीपं ।।
जि लाय धूपम् ।
न हाय धूर्त कम ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
दो बना अनुपम ।। धूपं ।।
जि लाय फल छटे ।
स्व से रहें कटे ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
मुश्किल ऽखिल हटे ।। फलं ।।
जि लाय सब दरब ।
रहें भरे गरब ।।
सुत ओ गुरु ज्ञान ।
कर लो समाँ अब ।। अर्घं ।।
==दोहा==
गुरुवर के गुणगान से,
और न मुश्किल काम ।
ना ना, ना कर पाऊँगा,
ऊँची भले इनाम ॥
॥ जयमाला ॥
राम शबरी मुझ मीरा श्याम ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
था विहार का ग्रीषम काल ।
सूर्य अग्नि का गोला लाल ।।
थमें चरण करने विश्राम ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
पास वृक्ष था छायादार ।
दुकाँ सुशोभित स्वल्पाहार ।।
था पत्थर का भाग ललाम ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
बैठ गये गुरुदेव क्षणेक ।
अद्भुत बात घटी तब एक ।।
पत्थर के बढ़ चाले दाम ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
बोली पहुँची तलक करोड़ ।
धन्य धन्य वह पत्थर रोड़ ।।
आ कुछ रहा गुरु के नाम ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
था मालिक पत्थर का पास ।
खड़ा ‘जोड़-कर’ बनकर दास ।।
कहे, अये ! मुझ हनुमत राम ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
पत्थर था मेरा बेमोल ।
छुआ आपने हुआ अमोल ।।
दाम चाहिये मुझे न नाम ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
सिर्फ यही मेरी अर-दास ।
बसने वाले मम उर श्वास ।।
रीते आप चरण में शाम ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।।
फिर क्या गूँजी जय जयकार ।
भक्ति भावना अगम अपार ।।
यहीं करीब रहा शिवधाम ।
श्री गुरु विद्या सिन्धु प्रणाम ।
।। जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
करुणा श्री गुरुदेव की,
रहती जिनके साथ ।
भँवर बीच नौका भले,
लगे किनारा हाथ ॥
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