परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक 171
उलझन घेरे ।
घोर अँधेरे ।।
भगवन् मेरे ।
शरणन तेरे ।।
आये भेंटो ।
भोर सबेरे ।। स्थापना ।।
ले जल झारी ।
बना पुजारी ।।
भो ! अविकारी ।
रहूँ न भारी ।। जलं ।।
चन्दन लाया ।
पाने छाया ।।
ओ मुनिराया ।
मेंटो माया ।।चंदनं ।।
अछत पराता ।
लिये विधाता ।।
सौख्य प्रदाता ।
हरो असाता ।। अक्षतम् ।।
पुष्प पिटारी ।
लिये पुजारी ।।
ओ सुखकारी ।
दो मति न्यारी ।। पुष्पं ।।
लाये मीठे ।
व्यंजन घी के ।।
आप सरीखे ।
होने नीके।। नैवेद्यं ।।
दीवा माला ।
लिये विशाला ।|
दीन दयाला ।
रहूँ न बाला ।। दीपं ।।
धूप निराली ।
लिये सवाली ।।
सुबहो लाली ।
मने दिवाली ।। धूपं ।।
ऋतु फल न्यारे ।
लाये द्वारे ।।
एक सहारे ।
होंय हमारे।। फलं ।।
अरघ सलोना ।
सुहाग सोना ।।
रसिक अलोना ।
दो ‘पद’ कोना ।। अर्घं ।।
==दोहा==
बढ़ के गुरु गुण गान से,
और न तीन जहान ।
सही पलक ही आ करें,
श्री गुरु का गुणगान ।।
॥ जयमाला ॥
पड़ जो गई गुरु जी की नजर ।
है अब नहिं मुझको कोई फिकर ।।
नैन खोजें बच्चे के, माँ है कहाँ ।
माँ के मिलते ही लगा, मिल गया जहाँ ।।
डर, डर गया, माँ-गोदी असर ।
पड़ जो गई गुरु जी की नजर ।।
है अब नहिं मुझको कोई फिकर ।।
नैन खोजें माटी के, शिल्पी कहाँ
शिल्पी क्या मिला, लगा मिल गया जहाँ ।।
घट बन चली, हाथ शिल्पी पकड़ ।
पड़ जो गई गुरु जी की नजर ।।
है अब नहिं मुझको कोई फिकर ।।
नैन खोजें नैय्या के, माँझी कहाँ ।
माँझी मिलते ही लगा, मिल गया जहाँ ।।
अब क्या पता करना, तीर किधर ।
पड़ जो गई गुरु जी की नजर ।।
है अब नहिं मुझको कोई फिकर ।।
।। जयमाला पूर्णार्घं ।।
==दोहा==
तुम ही तो जो भर रहे,
श्वास-श्वास विश्वास ।
आस-पास रहना सदा,
सिर्फ यही अभिलाश ॥
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