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आचार्य श्री पूजन

गुरु-पाद पूजन – 154

By मुनि श्री निराकुल सागर जी महाराज 

परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित

पूजन क्रंमाक – 154

विद्या,
सद्या,
पाने ‘गाने’ ।। स्थापना ।।

जल मैं ।
चल मैं, आया ।।
लाया।।जलं ।।

चन्दन, सा-मन ।
रोपें ! सौपें ।।चंदन ।।

अक्षत ।
अक्षत पद-हित ।।
अर्पित ।।अक्षतम् ।।

प्रसून ।
सुकून भाया ।।
लाया।। पुष्पं ।।

व्यंजन ।
हित हन ।।
क्षुध्-मन अर्पण ।। नैवेद्यं ।।

दीपक ।
‘जी तक आऊँ ।।
बालूँ ।। दीपं ।।

सुधूप ।
स्वरूप सेवूँ ,
खेवूँ ।।धूपं ।।

ऋतु-फल ।
छल-सल मेंटूँ ।।
भेंटूँ ।। फलं।।

सब द्रव ।
मद अब लोपूँ ।।
सोंपूँ ।।अर्घं ।।

==दोहा==
मंशा पूरण दूसरा,
और न गुरु के भाँत ।
आ भीगें, कर हाथ में,
गुरु करुणा बरसात ॥

॥ जयमाला ॥

दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।
रहे सब कुछ न पैसा ।।

शब सो जल्दी जाऊँ,
सुबहो जल्दी जागूँ ।।
नहिं भागूँ मृग जैसा ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।
रहे सब कुछ न पैसा ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।

यूँ ही न जल बहाऊँ ।
हेत पूजन नहाऊँ ।।
रहूँ जागृत हमेशा ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।
रहे सब कुछ न पैसा ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।

चप चप कर ना जीमूँ ,
छुप छुप कर ना जीऊँ ।।
हो लक इंगलिश ‘छै-सा’ ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।
रहे सब कुछ न पैसा ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।

हों पुद्-गल जीवों से ।
हों जीव सिद्ध जैसे ।।
गहूँ माहन संदेशा ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।
रहे सब कुछ न पैसा ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।

क्या पर का मुख तकना
खुद करूँ काम अपना ।।
हूँ जैसा, न रहूँ वैसा ।
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।
रहे सब कुछ न पैसा
दो गुरु कुछ कर ऐसा ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।

==दोहा==
यही विनय अनुनय यही,
कलि युग इक शीलेष ।
राग विहर लो कर कृपा,
और विहर लो द्वेष ।।

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