परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 134
शरण आया ।
यजन भाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।। स्थापना ।।
शरण आया ।
उदक लाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।।जलं ।।
शरण आया ।
गन्ध लाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।।चन्दनं ।।
शरण आया ।
अछत लाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।।अक्षतम् ।।
शरण आया ।
सुमन लाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।। पुष्पं ।।
शरण आया ।
अमृत लाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।।नैवेद्यं ।।
शरण आया ।
दीप लाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया।।दीपं ।।
शरण आया ।
धूप लाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया।। धूपं ।।
शरण आया ।
भेल लाया ।।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।। फलं ।।
शरण आया ।
अर्घ्य लाया ।
सिन्धु विद्या ।
श्रमण राया ।।अर्घ्यं ।।
==दोहा==
मात पिता गुरु देवता,
गुरु ही तीरथ धाम ।
धन्य वहीं जीवन किया,
जिसने गुरु के नाम ॥
॥ जयमाला ॥
।।धन श्रमण – धन श्रमण- धन श्रमण।।
दे रहे पर पीर न ।
विष बुझे वच तीर न ।।
धन न पर करें ग्रहण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
श्वान सी न अस्थि मुख ।
मुक्ति तरफ किस्ति रुख ।।
कहाँ संग संग्रहण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
देख जुग करें गमन ।
हित-मित परिमित वचन ।।
लें गृह श्रावक अशन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
सँभल उठा-धर रहे ।
जाग अठ पहर रहे ।।
सजग विकृति निर्गमन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
भाँति इक कड़ा नरम ।
शीत भाँति इक गरम ।।
गंध उभय इक वरण ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
इक वरण वरण सभी ।
इक विषय करण सभी ।।
अभिजित यूँ अक्ष पन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
छिन तीर्थक थुति न बिन ।
वन्दना निरत ‘ऽनु-दिन’ ।।
द्वार विनय शिव भवन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
जाप नमोकार साथ ।
निरसन रज हाथ हाथ ।।
छल न मन न बाँकपन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
अजोग-जोग भी विसर ।
कर न देह की फिकर ॥
आत्म ‘सर’ करें न्हवन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
मुण्ड-मुण्ड मुण्ड दश ।
वस्त्र दश दिशाएँ बस ।।
आप आप में मगन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
गंग जल ‘जी’ क्या न्हवन ।
मुँ: कमल क्या दन्तवन ।।
‘जवाँ’ धर-ज्ञाँ वृद्ध पन ।
धन श्रमण, धन श्रमण, धन श्रमण ।।
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
गुरु सम्मेद शिखर मिरे,
पुर चंपा गिरनार ।
पुर-पावा गुरु जी मिरे,
दिवि शिव के भी द्वार।।
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