परम पूज्य मुनि श्री निराकुल सागरजी द्वारा रचित
पूजन क्रंमाक – 131
साहस से भरी हैं बातें तुम्हारी ।
माँ दही मिश्री हैं बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी,
कलि भो जलधि तरी हैं बातें तुम्हारी ।।
।। स्थापना ।।
सम्यक्त्व सीढ़ियाँ बातें तुम्हारी ।
दे तोड़ बेड़ियाँ बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी,
है सबसे ही बढ़िया बातें तुम्हारी ।। जलं ।।
संताप लें विहर बातें तुम्हारी ।
मन ताप लें विहर बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी,
धन ! श्राप लें विहर बातें तुम्हारी ।। चन्दनं ।।
पद अक्षत प्रदाता बातें तुम्हारी ।
हर कर्म असाता बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी,
इक भाग विधाता बातें तुम्हारी ।। अक्षतम् ।।
मद मार मारिया बातें तुम्हारी ।
संसार टारिया बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी,
पाप सँहारिया बातें तुम्हारी ।। पुष्पं ।।
क्षुधा ह्रास दें करा बातें तुम्हारी ।
जुदा आश दें करा बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी ।
खुदा पास दें करा बातें तुम्हारी ।। नैवेद्यं ।।
अज्ञान दें मिटा बातें तुम्हारी ।
संज्ञान दें भिटा बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी ।
भगवान् दें प्रकटा बातें तुम्हारी ।। दीपं ।।
करम बन्ध मिटायें बातें तुम्हारी ।
धरम गन्ध भिटायें बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी ।
शरम वन्त बनायें बातें तुम्हारी ।। धूपं ।।
मिटाय गलत लतें बातें तुम्हारी ।
विघटाय गफलतें बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी ।
भिटाय शिव सरहदें बातें तुम्हारी ।। फलं ।।
व्यथा थम्भ न केली बातें तुम्हारी ।
कहाँ भाँत पहेली बातें तुम्हारी ।।
श्री गुरु विद्या सिन्धु जी ।
वधु मुक्ति सहेली बातें तुम्हारी ।। अर्घं ।।
==दोहा==
सीखा जिनसे भान ने,
भर देना जग जाग ।
गुरु विद्या गतराग वे,
सुलटा देवें भाग ॥
॥ जयमाला ॥
।। व्रति-महा, व्रति-महा,व्रति-महा ।।
केश न बढ़ पा रहे ।
शक्ति कब छुपा रहे ।।
वृत्ति सिंह अपर अहा ।
व्रति-महा, व्रति-महा, व्रति-महा ।।
मगन ‘चीर’ चीर कर ।
नम दृग् लख पीर पर ।।
दया नित रहे बहा ।
व्रति-महा, व्रति-महा, व्रति-महा ॥
रुच रहा अदन्तवन ।
कब उठे तरंग मन ।।
हैं सुखी यहाँ वहाँ ।
व्रति-महा, व्रति-महा, व्रति-महा ॥
तल्फ न तलफा रहा ।
शयन भूमि भा रहा ।।
कहा कहाँ बस सहा ।
व्रति-महा, व्रति-महा, व्रति-महा ।।
‘भक्त-इक’ लुभा रहा ।
थिति-शन मन भा रहा ।।
जिह्वा लोलुप कहाँ ।
व्रति-महा, व्रति-महा, व्रति-महा ॥
आत्म सर उतर रहे ।
गज न्हवन न कर रहे ।।
भिन्न जलज जल जहाँ ।
व्रति-महा, व्रति-महा, व्रति-महा ॥
।।जयमाला पूर्णार्घं।।
==दोहा==
यही अरज इक आपसे,
कञ्चन काँच समान ।
कण-कण वसुधा के सभी,
हो जायें गुणवान ॥
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